कथा :
तृतीयदिन कथा तृतीय दिने तथैव राज्ञ: पार्श्व आगतो यमदण्ड: राज्ञा पृष्ट:-रे यमदण्ड चौरो दृष्टस्त्वया? तेनोक्तम्-हे देव! न कुत्रापि चौरो दृष्ट: । राज्ञोक्तम्-कथं महती वेला लग्ना तेनोक्तम्-हे देव ? एकस्मिन्मार्गे एकेन कथकेन कथा कथिता, सा मया श्रुता, अतएव महती वेला लग्ना, राज्ञोक्तम्-सा कथा ममाग्रे निरूपणीया । यमदण्डेनोक्तम्-तथास्तु, तद्यथा र्पाालदेशे वरशक्तिनगरे राजा सुधर्म-परमधार्मिको जैनमतानुसारी, तस्य भार्या जिनमति:, सापि तथा । राजमन्त्री जयदेव: चार्वाकमतानुसारी, तस्य भार्या विजया सापि तथैव । एवं राजा महता सुखेन राज्यं करोति । एकदा स्थानस्थितस्य राज्ञोऽग्रे केनचिन्निरूपितम्-हे देव! महाबलो वैरी महतीं पीडां प्रजानां करोति । तच्छ्रुत्वा सकोपं राज्ञोक्तम्-तावद् गलगर्जं करोत्वेष यावन्नाहं व्रजामि । पुनरपि राज्ञोक्तम्-शस्त्रबन्धं न यस्य कस्यापि करोमि । यस्तु समरे तिष्ठति, निजमण्डलस्य कण्टकं भवति सोऽवश्यं राज्ञा निराकरणीय: । तथा चोक्तम्- तीसरे दिन उसी प्रकार जब यमदण्ड राजा के पास आया तब उसने पूछा-हे यमदण्ड तूने चोर देखा? उसने कहा - हे देव! कहीं भी चोर नहीं दिखा । राजा ने कहा - बहुत समय क्यों लगा? उसने कहा - देव! एक मार्ग में एक कथा कहने वाला कथा कह रहा था, उसे मैं सुनता रहा इसीलिए बहुत समय लग गया । राजा ने कहा - वह कथा मेरे आगे कही जाये । यमदण्ड ने कहा - तथास्तु कहता है सुनिये । पाञ्चाल देश के वरशक्ति नगर में राजा सुधर्म रहता था, वह परम धार्मिक और जैनधर्म के अनुसार चलने वाला था । उसकी स्त्री का नाम जिनमति था । वह भी राजा के ही समान परम धार्मिक और जैनमत को धारण करने वाली थी । राजमन्त्री का नाम जयदेव था, जो चार्वाकमत का अनुयायी था । उसकी स्त्री का नाम विजया था । विजया भी अपने पति की तरह चार्वाक मत को मानने वाली थी । इस प्रकार राजा बहुत भारी सुख से राज्य करता था । एक दिन जब राजा सभा में बैठा था तब उसके आगे किसी ने कहा - हे देव! महाबल नाम का वैरी प्रजा को बहुत पीडि़त कर रहा है । वह सुन राजा ने क्रोध सहित कहा - यह तब तक कंठ से गर्जना कर ले, जब तक मैं नहीं जाता हूँ । राजा ने फिर कहा - मैं जिस किसी के ऊपर शस्त्र बन्धन नहीं करता हूँ अर्थात् सभी पर शस्त्र नहीं उठाता हूँ किन्तु जो युद्ध में खड़ा होता है और अपने देश का काँटा होता है वह अवश्य ही राजा के द्वारा निराकरण करने के योग्य होता है । जैसा कि कहा है- य: शस्त्रवृत्ति: समरे रिपु: स्याद्य: कण्टको वा निजमण्डलस्य ।
जो शत्रु शस्त्र लेकर युद्ध में खड़ा हो अथवा जो अपने देश के लिए काँटा स्वरूप हो राजा उसी पर शस्त्र चलाते हैं दीन, कन्यापुत्र और अच्छे अभिप्राय वालों पर नहीं ॥81॥अस्त्राणि तत्रैव नृपा: क्षिपन्ति न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ॥81॥ तथा च दुष्टनिग्रह: शिष्टप्रतिपालनं हि राज्ञो धर्म: न तु मुण्डनं, जटाधारणं च । एवं विचार्य निजशत्रु-महाबलस्योपरि गतो राजा । समरे तं जित्वा तस्य सर्वस्वं महानन्दनेन निजनगरमागतो राजा । ससैन्यनगरप्रवेशसमये नगरमुख्यप्रतोली पतिता । तां दृष्ट्वा "अपशकुनम्" इति ज्ञात्वा व्याघुट्य नगरबाह्ये स्थितो राजा । मन्त्रिणा झटिति प्रतोली कारिता । द्वितीयदिनेऽपि तथैव पतिता, एवं तृतीय दिने पतिता । इसके सिवाय दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करना ही राजा का धर्म है, शिर मुंडाना और जटा धारण करना नहीं । ऐसा विचार कर राजा अपने शत्रु महाबल से युद्ध करने चला, युद्ध में उसे जीतकर तथा उसका सर्व धन छीनकर बड़े हर्ष से अपने नगर को आ गया । जब राजा सेना के साथ नगर में प्रवेश कर रहा था तब नगर का मुख्य द्वार गिर गया । उसे गिरा देख तथा "अपशकुन" हो गया ऐसा विचार कर राजा लौट आया और नगर के बाहर ही ठहर गया । मन्त्री ने शीघ्र ही प्रमुख द्वार तैयार करा दिया परन्तु दूसरे दिन भी प्रतोली-प्रमुख द्वार गिर गया । इसी प्रकार तीसरे दिन भी गिर गया । रणमुखेषु रणार्जितकीर्तय: करितुरङ्गरथेष्वपि निर्भयान् ।
रणाग्रभाग में कीर्ति का संचय करने वाले योद्धा, हाथी-घोड़े और रथों पर सवार तथा निर्भय होकर सामने स्थित योद्धाओं को मारने के लिए ही सन्मुख जाकर प्रहार करते हैं । अन्य लोगों पर नहीं ॥82॥अभिमुखानभिहन्तुमधिठितानभिमुखा: प्रहरन्ति नहीतरान् ॥82॥ ततो बहि: स्थितो राजा मन्त्रिणं प्रति पृष्टवान् - भो मन्त्रिन् । किमिति प्रतोली पतति? कथं अप्रतोली स्थिरा भवति? मन्त्रिणोक्तम् - हे राजन् स्वहस्तेनैकं मनुष्यं मारयित्वा तद्रक्तेन प्रतोली सिच्यते तदा स्थिरा भवति, नान्यथा कुलाचार्यमतमिदम् । एतद्वचनं श्रुत्वा राजा ब्रूते - यस्मिन् नगरे जीववधो विधीयते ममानेन नगरेण प्रयोजनं नास्ति । यत्राहं तत्र नगरम् । सुवर्णेन तेन किं क्रियते येन कर्णस्त्रुट्यति । तदनन्तर बाहर ठहरे हुए राजा ने मन्त्री से पूछा - हे मन्त्री! इस प्रकार प्रमुख द्वारा क्यों गिरता है? और वह स्थिर कैसे हो सकता है? मन्त्री ने कहा - हे राजन्! अपने हाथ से एक मनुष्य को मारकर उसके रक्त से यदि प्रधान द्वार को सींचा जाये तो स्थिर हो सकता है, अन्य प्रकार से नहीं यह कुलाचार्य का मत है । यह सुन राजा बोला - जिस नगर में जीवघात किया जाता है, उस नगर से मुझे प्रयोजन नहीं है । जहाँ मैं हूँ वहीं नगर है । उस सुवर्ण से क्या किया जाये, जिससे कान कटने लग जाये? पुनरपि राज्ञोस्तम् - य: स्वस्य हितं वाञ्छति तेन हिंसा न कत्र्तव्या । तथा चोक्तम्- राजा ने फिर भी कहा - जो अपना हित चाहता है उसे हिंसा नहीं करना चाहिए । जैसा कि कहा है - स कमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्तादमृतमुरगवक्त्रात्साधुवादं विवादात् ।
जो प्राणियों के घात से धर्म की इच्छा करता है, वह अग्नि से कमल वन, सूर्यास्त से दिन, सर्प के मुख से अमृत, विवाद से धन्यवाद, अजीर्ण से नीरोगता और कालकूट विष से जीवित रहने की इच्छा करता है ॥83॥रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटादभिलषति वधाद्य: प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥83॥ श्रूयतां धर्म-सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
धर्म का सर्वस्व सुनो और सुनकर उसे हृदय में धारण करो । धर्म का सर्वस्व यही है कि जो काम अपने विरुद्ध हैं-अपने लिए अच्छे नहीं लगते हैं, उन्हें दूसरों के प्रति भी न करे ॥84॥आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥84॥ प्रवाहे वर्तते लोको न लोक: पारमार्थिक: ।
लोग तो प्रवाह में बरतते हैं अर्थात् देखा-देखी करते हैं, परमार्थ का विचार करने वाले नहीं हैं । इस जगत् में साँप सामने तो मारा जाता है परन्तु गोबर का बनाया हुआ पूजा जाता है ॥85॥प्रत्यक्षं मार्यते सर्पो गोमयेष्विह पूज्यते ॥85॥ अहिंसा परमो धर्मोह्यधर्म: प्राणिनां वध: ।
अहिंसा परम धर्म है और प्राणियों का वध करना अधर्म है इसलिए धर्म के इच्छुक मनुष्यों को प्राणियों पर दया करना चाहिए ॥86॥तस्माद् धमोर्थिनावश्यं कत्र्तव्या प्राणिनां दया ॥86॥ यो भूतेष्वभयं दद्याद् भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् ।
जो पृथ्वी आदि से भूतों को अभय देता है । उसे भूतों से भय नहीं होता । यह ठीक ही है क्योंकि जैसा दान दिया जाता है वैसा ही फल होता है ॥87॥यादृग्वितीर्यते दानं तादृगासाद्यते फलम् ॥87॥ न कत्र्तव्या स्वयं हिंसा प्रवृत्तां च निवारयेत् ।
जीवन, बल और आरोग्य की निरन्तर इच्छा करने वाले राजा को स्वयं हिंसा नहीं करना चाहिए और कोई हिंसा कर रहा है तो उसे मना करना चाहिए ॥88॥जीवितं बलमारोग्यं शश्वद् वाञ्छन् महीपति: ॥88॥ तथा च- और भी कहा है - यो दद्यात् काञ्चनं मेरुं कृत्स्नां चापि वसुन्धराम् । एकस्य जीवितं दद्यात् फलेन न समं भवेत् ॥89॥ एक मनुष्य मेरु के बराबर सुवर्ण अथवा संपूर्ण पृथ्वी दान में देता है और दूसरा एक जीव को जीवन-दान देता है परन्तु फल की अपेक्षा दोनों के दान में समानता नहीं होती अर्थात् जीवन दान का फल अधिक होता है ॥89॥ ततो राज्ञो निश्चयमेवंविधं निर्णीय मन्त्रिणा समस्तनगरमाकार्योक्तम् - भो लोका:! श्रूयतां यद्येवमेवं क्रियते तदा प्रतोली स्थिरा भवति नान्यथा । यदि मनुष्यवधादिकं विधीयते तदादेशं न ददाति राजा, कथयति स यत्राहं तत्र नगरम्, जीववधादिकं न करिष्ये, न कारयिष्ये, न चानुमोदिष्ये, इत्यवगम्य यो विचार: समायाति तं कुर्वन्तु । ततो महाजनेनागत्य भणितम् - भो स्वामिन्! अस्माभि: सर्वमपि क्रियते, भवन्तस्तूष्णीं तिष्ठन्तु । राज्ञोक्तम्-प्रजा: पापं कुर्वन्ति यदा तदा मम षडंश - पापं भवति पुण्यमपि तथा । तथा चोक्तम्- तदनन्तर राजा के ऐसे निश्चय का निर्णय कर मन्त्री ने समस्त नगरवासियों को बुलाकर कहा - हे नगरवासियों! सुनो यदि ऐसा किया जाये तो प्रधान द्वार स्थिर हो सकता है अन्यथा नहीं । यदि मनुष्य का वध आदिक किया जाता है तो राजा आज्ञा नहीं देता है । वह कहता है कि जहाँ मैं हूँ वहीं नगर है । जीव-वध आदि को न मैं स्वयं करँगा न दूसरों से कराऊँगा और न अनुमोदना ही करँगा । यह जानकर जो विचार आता है उसे कहो । पश्चात् महाजनों ने आकर कहा - हे स्वामिन्! हम लोग सब कुछ कर सकते हैं आप चुप रहिये । राजा ने कहा - जब प्रजा पाप करती है तब उसका छठवाँ भाग मेरा होता है और जब पुण्य करती है अब उसका भी छठवाँ भाग मेरा होता है । जैसा कि कहा है - राज्ञो राष्ट्रकृतं पापं राजपापं पुरोधस: ।
देश का किया पाप राजा को भी लगता है, राजा का किया पाप पुरोहित को भी लगता है, स्त्री का किया पाप पति को भी लगता है और शिष्य का किया पाप गुरु को भी लगता है ॥90॥भर्तुश्च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरोरपि ॥90॥ यथैव पुण्यस्य सुकर्मभाजां षडंशभागी नृपति: सुवृत्त: ।
जिस प्रकार सदाचारी राजा अच्छा कार्य करने वाले मनुष्यों के पुण्य के छठवें भाग का हिस्सेदार होता है उसी प्रकार दुराचारी राजा खोटा कार्य करने वाले मनुष्यों के पाप के छटवें भाग का हिस्सेदार होता है ॥91॥तथैव पापस्य कुकर्मभाजां षडंशभागी नृपति: कुवृत्त: ॥91॥ पुनरपि महाजनेनोंक्तम् - पापभागोऽस्माकं पुण्यभागो भवतामितितूष्णीं तिष्ठन्तु । राज्ञोक्तम् - तथास्तु । ततो महाजनेन द्रव्यस्योद्ग्राहणिका कृता । तेन द्रव्येण र्कानमय: पुरुषो घटयित:, नाना प्रकारै: रत्नैर्विभूषितश्च । पश्चात् पुरुषं शकटे चटयित्वा नगरमध्ये घोषणा दापिता-यदि कोऽपि स्वपुत्रं दत्वा माता स्वहस्तेन विषं प्रयच्छति, पिता स्वहस्तेन गलमोटनं करोति व्योर्मातृपित्रो: र्कानमय: पुरुष: कोटिद्रव्यं च दीयते । तत्रैव नगरे निष्करुणो महादरिद्रों वरदत्तो नाम ब्राह्मणोऽस्ति, तस्य सप्त पुत्रा: सन्ति, तस्य वरदत्तस्य भार्या निष्करुणा नाम्नी । पटहं श्रुत्वा तेन द्विजेन स्वभार्या पृष्टा-हे प्रिये! लघुपुत्रमिन्द्रदत्त-नामानं दत्त्वेदं द्रव्यं गृह्यते, द्रव्यप्राप्तौ सर्वे गुणा आत्मनो भविष्यन्ति । यदुक्तम्- महाजनों ने पुन: कहा - पाप का पूरा हिस्सा हम लोगों का और पुण्य का हिस्सा पूरा आपका होगा इसलिए आप चुप रहिये । राजा ने कहा - तथास्तु ऐसा हो । तदनन्तर महाजनों ने धन की उगाहनी की उस धन से सुवर्ण का एक मनुष्य बनवाया और उसे नाना प्रकार के रत्नों से अलंकृत किया । पश्चात् उस पुरुष को गाड़ी पर चढ़ा कर नगर में घोषणा दिलवायी-यदि कोई अपना पुत्र इस प्रकार देता है कि माता अपने हाथ से विष देवे और पिता गला मोड़े तो उन माता-पिता के लिए सुवर्णमय पुरुष और एक करोड़ रुपये दिये जायेंगे । उसी नगर में करुणा रहित महादरिद्री वरदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था, उसके सात पुत्र थे । उस वरदत्त की स्त्री का नाम निष्करुणा था । घोषणा के नगाड़े को सुनकर उस ब्राह्मण ने अपनी स्त्री से पूछा-हे प्रिये इन्द्रदत्त नामक छोटे पुत्र को देकर यह द्रव्य ले लिया जाये । द्रव्य की प्राप्ति होने पर सब गुण अपने हो जायेंगे । जैसा कि कहा है - यस्यास्ति वित्तं स नर: कुलीन:, स पण्डित: स श्रुतवान् गुणज्ञ: ।
जिसके पास धन है वही मनुष्य कुलीन है, वही पण्डित है, वही शास्त्रज्ञ और गुणज्ञ है, वही वक्ता है तथा वही दर्शनीय-सुन्दर है क्योंकि समस्त गुण धन का आश्रय करते हैं ॥92॥स एव वक्ता स च दर्शनीय:, सर्वे गुणा काञ्चनमाश्रयन्ते ॥92॥ हे भद्रे! धनस्य माहात्म्यं पश्य । तथा च अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते ।
हे भद्रे! धन की महिमा देखो जैसा कि कहा है-धन का इच्छुक यह मनुष्य श्मशान की भी सेवा करता है और महान् अनर्थों को करता है, जिससे दुर्गति को प्राप्त होता है ॥93॥करोति च महानर्थान् येन प्राप्नोति दुर्गतिम् ॥93॥ जो मनुष्य दुर्गम अटवी में घूमते हैं और भयंकर अन्य देशों को जाते हैं वह भी धन की महिमा है । यद्दुर्गामटवीमटन्ति विकटं क्राम्यन्ति देशान्तरम्-इत्यादि । नयेन नेता विनयेन शिष्य: शीलेन लिङ्गी प्रशमेन साधु: ।
नीति से रहित नेता, विनय से रहित शिष्य, शील से रहित वेषधारी परिव्राजक, शान्ति से रहित साधु, जीव से रहित शरीर पुण्य से रहित गृहस्थ कुछ भी नहीं है ॥94॥जीवेन देह: सुकृतेन देही वित्तेन गेही रहितो न किंचित् ॥94॥ आवयो: कुशले सति अन्येऽपि बहव: पुत्रा भविष्यन्ति । व्या निष्करुणया "तथास्तु" इति भणितम् । ततो वरदत्तेन घोषणां धृत्वा कथितम्-इदं द्रव्यं गृहीत्वा पुत्रो दीयते मया । महाजनेनोक्तम्-दीयतां भवता । यदि मात्रा स्वहस्तेन पुत्रस्य विषं दीयते, पित्रा स्वहस्तेन पुत्रस्य गलमोटनं क्रियते चेत् तर्हि द्रव्यमिदं दीयते समस्तवस्तु च नान्यथा । वरदत्तेनोक्तं-तथास्तु" सर्वं प्रतिपन्नम् । तत्पितुश्चेष्टितं श्रुत्वा इन्द्रदत्तेन स्वमनसि चिन्तितम्-अहो स्वार्थ एव संसारे, कोऽपि कस्यापि वल्लभो नास्ति । हम दोनों के कुशल रहने पर और भी बहुत पुत्र हो जायेंगे । उस निष्करुणा ब्राह्मणी ने "तथास्तु" ऐसा कह दिया । तदनन्तर वरदत्त ने घोषणा को धारण कर कहा - इस द्रव्य को लेकर मैं अपना पुत्र देता हूँ । महाजनों ने कहा - आप दीजिये परन्तु यदि माता अपने हाथ से पुत्र को विष देवे और पिता अपने हाथ से पुत्र का गला मोड़े तो यह धन और समस्त वस्तुएँ दी जायेंगी अन्यथा नहीं । वरदत्त ने कहा - " तथास्तु" सब स्वीकार है । पिता की इस चेष्टा को सुनकर इन्द्रदत्त ने अपने मन में विचार किया-अहो! संसार में स्वार्थ ही है कोई किसी का प्यारा नहीं है । धनहीनं नृपं भृत्या: कुलीनमपि चोन्नतम् ।
जिस प्रकार पक्षी सूखे वृक्ष को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, उसी प्रकार सेवक धनरहित कुलीन और उत्कृष्ट राजा को भी छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं ॥95॥संत्यज्यान्यत्र गच्छन्ति शुष्कवृक्षमिवाण्डजा: ॥95॥ वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगा: शुष्कं सर: सारसा:
पक्षी फलरहित वृक्ष को छोड़ देते हैं, सारस सूखे सरोवर को छोड़ देते हैं, भौंरम गन्धरहित फूल को छोड़ देते हैं, मृग जले हुए वन को छोड़ देते हैं, वेश्याएँ निर्धन पुरुष को छोड़ देती हैं और सेवक दुष्ट विपत्तिग्रस्त राजा को छोड़ देते हैं । ठीक ही है सभी लोग अपने-अपने कार्य के वश ही प्रीति दिखाते हैं, परमार्थ से पृथ्वी पर कौन किसे प्रिय है? ॥96॥पुष्पं गन्धगतं त्यजन्ति मधुपा दग्धं वनान्तं मृगा: । निद्र्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका दृष्टं नृपं सेवका सर्व: कार्यवशाज्जनोऽभिरमते क: कस्य को वल्लभ: ॥96॥ अहो वसुनो माहात्म्यं पश्य । धननिमित्तमकर्तव्यमपि क्रियते । तथा चोक्तम्- अहो धन का माहात्म्य देखो, धन के निमित्त न करने योग्य कार्य भी किया जाता है । जैसा कि कहा है - पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते ।
जो अपूज्य भी पूजा जाता है, अगम्य-असेव्य के पास भी पाया जाता है और अवन्द्य की भी वन्दना की जाती है वह धन का ही प्रभाव है ॥97॥वन्द्यते यदवन्द्योपि तत्प्रभावो धनस्य च ॥97॥ बुभुक्षित: किं न करोति पापं, क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति ।
भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता? दरिद्र मनुष्य दया रहित होंते हैं, हे भद्रे! प्रियदर्शन की कथा प्रसिद्ध है कि उसके निर्धन होने पर गंगदत्त फिर कुँए को नहीं जाता है ॥98॥आख्या हि भद्रे प्रियदर्शनस्य, न गङ्गदत्त: पुनरेति कूपम् ॥98॥ तावदेव जन: सर्व: प्रियत्वेनानुवर्तते ।
जिस प्रकार कुत्ते के पिल्ले को जब तक खिलाते-पिलाते रहते हैं, तब तक वह प्रिय समझ कर पीछे लगा रहता है, उसी प्रकार जब तक सब मनुष्यों को दान आदि देकर अपने अनुकूल रखा जाता है, तभी तक वे प्रिय समझकर पीछे लगते हैं, दान आदि के स्रोत बन्द होने पर सब साथ छोड़ देते हैं ॥99॥दानेन गृह्यते यावत्सारमेय शिशुर्यथा ॥99॥ तत: सालङ्कारं मातापित्रादि-लोकसमूहवेष्टितं हसन्तं प्रतोलीसम्मुखागतमिन्द्रदत्तं दृष्ट्वा राज्ञा भणितम्-रे माणवक! किमर्थं हससि? किं मरणेन न विभेषि तेनोक्तम्-हे देव! यावद्भयं नागच्छति तावद् भेतव्यम् आगते तु सोढव्यम् इति । तथा चोक्तम्- तदनन्तर द्रव्य लेकर वरदत्त ने अपना पुत्र महाजनों को सौंप दिया । तदनन्तर जो आभूषणों से सहित था तथा माता-पिता आदि लोगों से घिरा हुआ था, ऐसे हँसते हुए, प्रधान द्वार के सम्मुख आये हुए इन्द्रदत्त को देखकर? राजा ने कहा - रे बालक! किसलिए हँस रहा है? क्या मरने से डरता नहीं है । उसने कहा - हे देव! जब तक भय आता नहीं, तब तक डरना चाहिए परन्तु आ जाने पर सहन करना चाहिए । जैसा कि कहा है - तावद् भयस्य भेतव्यं यावद् भयमनागतम् ।
भय से तब तक डरना चाहिए, जब तक वह आया नहीं है परन्तु भय को आया देखकर शंका रहित हो प्रहार करना चाहिए ॥100॥आगत तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमशङ्कितम् ॥100॥ इत्यभिधानात् । ततो द्रव्यं गृहीत्वा पुत्रो महाजनस्य समर्पितो वरदत्तेन । एक बात यह भी है - माता यदि विषं दद्यात् पित्रा विक्रीयते सुत: ।
माता यदि विष देती है, पिता पुत्र को बेचता है और राजा सर्वस्व हरण कर्ता है तो वहाँ दु:ख की क्या बात है? ॥101॥राजा हरति सर्वस्वं किं तत्र परिदेवनम् ॥101॥ किञ्च- इति स्थितौ यदा माता विषं पुत्राय यच्छति ।
इस स्थिति में कि जब माता पुत्र के लिए विष दे रही हो क्रूर पिता लोभ से गला मोड़ रहा हो, महाजन धन देकर खरीद रहा हो और राजा प्रेरणा कर रहा हों । तब हे नाथ! मैं किसके आगे अपना दु:ख कहूँ? ॥102-103॥पिता च कुरुते क्रूरो लोभाद् गलविमोटनम् ॥102॥ जनो गृह्वाति द्रव्येण प्रेरको यत्र भूमिराट् । तत्र कस्याग्रतो नाथ! स्वदु:खं कथ्यते मया ॥103॥ सत्त्वं विना न मुक्ति: स्यान्मरणाङ्गीकृतोऽपि य: ।
जो मृत्यु के द्वारा स्वीकृत किया जा चुका है, उसकी भी मुक्ति धैर्य के बिना नहीं हो सकती इसलिए हे राजन्! इस अवसर पर मैं धैर्य का आलम्बन लेकर हँस रहा हूँ ॥104॥अत: सत्त्वं समाधाय नाथात्र हसितं मया ॥104॥ पुनरपीन्द्रदत्तेनोक्तम्-भो राजन् मात्रासंतापित: शिशु: पितु: शरणं गच्छति, पित्रा: संतापित: शिशुर्मातृशरणं गच्छति, द्वाभ्यां संतापितो राज्ञ: शरणं याति, राज्ञा संतापितो महाजन शरणं गच्छति । यत्र माता विषं प्रयच्छति पुत्रस्य, पिता च गलमोटनं करोति, महाजनो द्रव्यं दत्त्वा गृह्वाति, राजा प्रेरको भवति तत्र कस्याग्रे निरूप्यते तथा चोक्तम्- इन्द्रदत्त ने पुन: कहा - हे राजन्! माता के द्वारा संताप को प्राप्त हुआ बालक पिता की शरण जाता है, पिता के द्वारा संताप को प्राप्त हुआ माता की शरण जाता है । दोनों के द्वारा संताप को प्राप्त हुआ राजा की शरण को जाता है और राजा के द्वारा संताप को प्राप्त हुआ महाजनों की शरण को जाता है परन्तु जहाँ माता विष देती है, पिता गला मोड़ता है, महाजन धन देकर ग्रहण करता है और राजा प्रेरक-प्रेरणा करने वाला होता है वहाँ किसके आगे कहाँ जावे? जैसा कि कहा है - मात्रा पित्रा सुतो दत्तो राजा च शस्त्रघातक: ।
माता और पिता के द्वारा पुत्र दिया गया हो, राजा शस्त्र से घात करने वाला हो और देवता बलि की इच्छा करता हो वहाँ रोना-चीखना क्या कर सकता है ?॥105॥देवता वलिमिच्छन्ति आक्रोश: किं करिष्यति ॥105॥ अतएव धीरत्वेन मरणमस्तु । एतद्वचनं श्रुत्वा राज्ञोक्तम्-अनया प्रतोल्या, अनेन नगरेणापि च मम किमपि प्रयोजनं नास्ति । यत्राहं तत्र नगरमिति-अभिधानम्,नूतननगरं करिष्ये, एवं सधैर्यं राजानं माणवकसाहसं च दृष्ट्वानगरदेवव्या प्रतोंली निर्मिता, पञ्चाश्चर्येण माणवक: प्रपूजितश्च । द्वयोरुपरि पुष्पवृष्टिश्च कृता । तथा चोक्तम्- इसलिए धीरता से मरण हो । यह वचन सुनकर राजा ने कहा - इस प्रतोली-प्रधान द्वार से और इस नगर से भी मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । जहाँ मैं हूँ वहीं नगर है......यह मेरा-कहना है, मैं नवीन नगर बसा लूँगा । इस प्रकार धैर्य सहित राजा और बालक के साहस को देखकर नगर देवता ने प्रतोली का निर्माण कर दिया, पञ्चाश्चर्यों से बालक की पूजा की और दोनों के ऊपर पुष्पवृष्टि की । कहा भी है - रत्नवृष्टिस्तथा पुष्पवृष्टिर्गीर्वाणदुन्दुभि: ।
रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि, देवदुन्दुभि, मन्द, सुगन्धित और शीतल के भेद से तीन प्रकार की वायु और साधुवाद-धन्य-धन्य शब्द की ध्वनि से पञ्चाश्चर्य कहलाते हैं ॥106॥त्रिधावायुर्मरुत्साधुकारश्चाश्चर्यपञ्चकम् ॥106॥ इस संसार में उद्योगी मनुष्यों के लिए कोई कार्य कठिन नहीं है । उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि और पराक्रम ये छह जिसके पास हैं, देव भी उससे शंकित रहते हैं-भय खाते हैं ॥107॥ इस प्रकार सूचित किये हुए अभिप्राय को राजा नहीं जानता है । यह कथा कहकर यमदण्ड अपने घर चला गया । (॥ इस प्रकार तृतीय दिन व्यतीत हुआ॥) |