कथा :
चतुर्थदिन कथा चतुर्थदिने आस्थानस्थितेन राज्ञा तथैव यमदण्ड: पृष्ट:-रे यमदण्ड! त्वया मोषको दृष्ट: तेनोक्तम्-न कुत्रापि दृष्टो मया । पुनरपि नरपतिनाभाणि-किमर्थं महती वेला लग्ना? तेनोक्तम्-राजन् । ग्रामाद् बहि: एकस्मिन् पथि एकेन कथकेन हरिणीकथा कथिता । सा मया सावधानेन श्रुता, अतएव महती वेला लग्ना । राज्ञोंक्तम्-स कथाममाग्रे निरूपणीया । तेनोक्तम्-तथास्तु । तद्यथा । चतुर्दिशतडागाकीर्णे बहुदल-सरल तरुगण विस्तीर्णे एकस्मिन्नुद्यानवने तडागतटे काचिद् हरिणी निवसतिस्म । सा स्वबालकै: सह वनस्थलीषु तृणादिभक्षणं कृत्वा तडागेषु पानीयं पीत्वा सुखेन कालं गमयति । तदासन्न-नगरस्यारिमर्दनस्य नृपस्य बहव: पुत्रा: सन्ति । केनाऽपि व्याधेनैकं मृगशावकं जीर्णवनतो गृहीत्वा एकस्मै कुमाराय समर्पित: । अन्ये कुमारास्तं दृष्ट्वा मृगबालकेभ्य:स्पृहयालवों जाता: । चौथे दिन सभा में बैठे हुए राजा ने उसी प्रकार यमदण्ड से पूछा-रम यमदण्ड तूने चोर देखा । उसने कहा - मैंने तो कहीं नहीं देखा । राजा ने फिर कहा - इतना समय क्यों लगा? यमदण्ड ने कहा - राजन्! गाँव के बाहर एक मार्ग में एक पथिक हरिणी की कथा कह रहा था । वह कथा मैंने सावधान होकर सुनी । इसलिए बहुत समय लग गया है । राजा ने कहा - वह कथा मेरे निरूपण करने के योग्य है । यमदण्ड ने कहा - अच्छी बात है, सुनिये । चारों दिशाओं में वर्तमान तालाब से युक्त और अनेक पत्तों वाले सीधे वृक्षों के समूह से विस्तृत एक उत्तम वन में तालाब के तट पर कोई हरिणी रहती थी । वह बच्चों के साथ वन की अकृत्रिम भूमि में तृणादि का भक्षण कर तालाबों में पानी पीकर सुख से समय व्यतीत करती थी । उस वन के निकटवर्ती नगर के राजा अरिमर्दन के बहुत पुत्र थे । किसी शिकारी ने एक मृग का बच्चा पकड़कर एक कुमार के लिए दिया । उसे देख अन्य कुमार भी मृग के बच्चों के लिए इच्छुक हो गये । नहि दुष्करमस्तीह किंचिदध्यवसायिनाम्ङ्घ । उद्यम:, साहसो धैर्यं बलं बुद्धिर्पराक्रम: ।
षडैते यस्य विद्यन्ते यस्य देवोऽपि शङ्कते ॥107॥ पश्चात्तैरेकत्र संभूय राज्ञोऽग्रे कथितम्-हे स्वामिन्! अस्माकं मृगशावकान् समर्पय । ततो राजा व्याधानाकार्य पृष्ट:-भो भो व्याधा: कथ्यतां कस्मिन् वने बहवों मृगशावा: प्राप्यन्ते? केनचित्कथितम्-हे देव! जीर्णोद्याने प्रभूता- प्राप्यन्ते । तच्छ्रुत्वा राजा स्वयमेव व्याधवेषं विधाय तत्र गत: । तद्वनं विषमं दृष्ट्वा मृगपोतग्रहणार्थं बुद्धिर्विहिता । चतुर्दिग्वर्ति तडागपालीं प्रस्फोट्य जलमेकीकृतम् । परित: सर्वत्र पाशरचना कारयिता, जीर्णशीर्णपर्णे ज्वलन: प्रज्वलित: । राज्ञा कथितम्-भो व्याधा एवं वनमवगाहनीयं यथामी मृगपोता बहव: पाशेषु पतितास्तैस्तथैव धृताश्च भवेयु: क्रीडार्थम् । व्याधैस्तथैव कृतम्-तद् दृष्ट्वैकेनापि पण्डितेनोक्तम्- पश्चात् उन्होंने एकत्रित होकर राजा के आगे कहा - हे स्वामिन्! हम लोगों को मृग के बच्चे दीजिए । तदनन्तर राजा ने शिकारियों को बुलाकर पूछा-हे हे शिकारियो! कहो किस वन में मृगों के बहुत बच्चे मिलते हैं? किसी शिकारी ने कहा - हे देव! जीर्णोद्यान में बहुत मिलते हैं । यह सुनकर राजा स्वयं ही शिकारी का वेष रखकर वहाँ गया । उस वन को विषम देखकर उसने मृगों के बच्चे पकड़ने के लिए बुद्धि की । चारों दिशाओं में वर्तमान तालाबों का बाँध फोड़कर जल इकठ्ठा कर लिया । सब ओर जाल बिछवा दिया और जीर्णशीर्ण पत्तों में आग लगवा दी । पश्चात् राजा ने कहा - हे शिकारियो! वन में इस तरह प्रवेश करना चाहिए कि जिससे मृगों के बहुत से बच्चे जालों में फँस जावे और उन फँसे हुए बच्चों को क्रीड़ा के लिए पकड़ लिया जावे । शिकारियों ने वैसा ही किया । यह देख एक विद्वान् ने कहा - सव्वजलं विसताईदं सव्वारण्यं च कूट संछण्णम् ।
समस्त जाल चारों ओर फैला दिया है, समस्त वन जालों से व्याप्त है और राजा स्वयं शिकारी बना हुआ है तब उस वन में रहने वालों का निवास कैसे हो सकता है? ॥108॥राया च सयं वाहो तत्थ सिदाणं कुदो वासो ॥108॥ तथा च - और भी कहा है - रज्ज्वा दिश: प्रवितता: सलिलं विषेण-
दिशाएँ रस्सियों से विस्तृत हैं, पानी विष से सहित है, पृथ्वी जालों से आच्छादित है, वन का मध्य भाग अग्नि से युक्त है और शिकारी धनुष लेकर पीछे-पीछे चल रहे हैं, अत: बच्चों से सहित हरिणी किस देश का आश्रय करे-कहाँ जावे? ॥109॥पाशैर्मही हुतभुजाकुलितं वनान्तम् । व्याधा: पदान्यनुसरन्ति गृहीतचापा: कं देशमाश्रयतु डिम्भवती कुरङ्गी ॥109॥ एवं सूचिताभिप्रायं राजा न जानाति, इत्याख्यानं निरूप्य निज मन्दिरं गतो यमदण्ड: । इस प्रकार सूचित अभिप्राय को राजा नहीं जानता है । यह कथा कहकर यमदण्ड अपने घर चला गया । ॥ इति चतुर्थ दिन कथा॥ ॥ इस प्रकार चतुर्थ दिन की कथा पूर्ण हुई॥ |