कथा :
पञ्चमदिन कथा पञ्चमदिने आस्थानस्थितेन राज्ञा तथैव पृष्ट: - रे यमदण्ड चोरो दृष्ट:? तेनोक्तम्-हे देव! न कुत्रापि दृष्टोमया । राज्ञोक्तम् - किमर्थं बृहद्वेला लग्ना । तेनोक्तं ग्रामाद् बहिरेकेन कथा कथिता सा मया श्रुता,अतएव महती वेला लग्ना । राज्ञोक्तं सा कथा ममाग्रे निरूपणीया । तेनोक्तम् तथास्तु । तद्यथा नेपाल देशे पाटली पुरी, राजा वसुन्धर: राज्ञी वसुमति-स राजा कवित्वविषये बलीयान् । राजमन्त्री भारतीभूषण: भार्या देवकी, सोऽपि मन्त्री शीघ्र-कवित्वकरणेन लोक-मध्ये प्रसिद्ध: । एकदास्थानमध्ये विद्वद्-गोठीषु राजकवित्वं मन्त्रिणा बहुधा दूषितम्, कुपितेन राज्ञा मन्त्रिणं बन्धयित्वा रात्रौ गङ्गाप्रवाहे निक्षिप्त:, प्राक्तन- दैववशाद् बालुकोपरि पतित: तथा चोक्तम्- पञ्चम दिन की कथा पाँचवें दिन सभा में बैठे हुए राजा ने उसी प्रकार पूछा-रे यमदण्ड! चोर दिखा है? उसने कहा - हे देव मुझे कहीं नहीं दिखा । राजा ने कहा - फिर इतना अधिक काल क्यों लगा? उसने कहा - ग्राम के बाहर एक कथाकार कथा कह रहा था, मैं उसे सुनने लगा अतएव बहुत समय लग गया । राजा ने कहा - वह कथा मेरे आगे कही जाये । उसने कहा "तथास्तु" । कहता हूँ सुनो - नेपाल देश में पाटली नाम की नगरी है, उसके राजा का नाम वसुन्धर और रानी का नाम वसुमति था । वह राजा कवित्व के विषय में-कविता करने में बहुत बलिठ था । राजमन्त्री का नाम भारतीभूषण था और उसकी स्त्री का नाम देवकी था । वह मन्त्री आशुकवि होने से लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध था । एक दिन सभा के बीच चलने वाली विद्वत्गोठी में मन्त्री ने राजा की कविता को बहुत दूषित कर दिया-उसमें अनेक दोष निकालने लगा, जिससे राजा ने कुपित होकर मंत्री को बएधवाकर रात के समय गंगा के प्रवाह में गिरवा दिया परन्तु पूर्व पुण्य के उदय से बालुका के ऊपर पड़ा । जैसा कि कहा है- वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
वन में, रण में, शत्रु, जल और अग्नि के मध्य में, महासागर में, पर्वत के शिखर पर सोये हुए प्रमत्त अथवा विषमरूप में स्थित मनुष्य की उसके पूर्वकृत पुण्य ही रक्षा करते हैं ॥110॥सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥110॥ भीमं वनं तस्य पुरं प्रधानं, सर्वो जन: सुजनतामुपयाति तस्य ।
जिस मनुष्य के पास पूर्व पर्याय में किया हुआ, विशाल पुण्य होता है उसके लिए भयंकर वन प्रधान नगर बन जाता है, सभी मनुष्य उसके लिए सज्जनता को प्राप्त होते हैं अथवा सभी लोग उसके स्वजन-आत्मीय जन हो जाते हैं और समस्त पृथ्वी उसके लिए उत्तम निधि तथा रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है ॥111॥कृत्ऋा च भू र्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा, यस्यास्ति पूर्वं सुकृतं विपुलं नरस्य ॥111॥ बालुकोपरि स्थितेन मन्त्रिणा चिन्तितम्- " कविं कविर्न सहते" यत् लोक मध्ये प्रसिद्धम् एतत् सत्यम् यत:- बालुका के ऊपर स्थित मन्त्री ने विचार किया । कवि-कवि को सहन नहीं करता है, यह जो लोक में प्रसिद्धि है वह सत्य है । क्योंकि - न सहंति इक्कयिक्कं न विणा चिट्ठिंति इक्कमिक्केण ।
गधा, बैल, घोड़ा, जुआरी, पण्डित और बालक में एक-एक को सहन नहीं करते और एक-एक के बिना रहते भी नहीं हैं ॥112॥रासहवसह तुरंगा जूयारा पंडिया डिंभा ॥112॥ तथा चोक्तम्- जैसा कि कहा है- शिष्टाय दुष्टो विरताय कामी, निसर्गतो जागरकाय चौर: ।
दुष्ट मनुष्य शिष्ट मनुष्य से, कामी व्रती से, चोर स्वभावत: जागने वाले से, पापी धर्मात्मा से, भीरु शूरवीर से और अकवि कवि से क्रोध करता है ॥113॥धर्मार्थिने कुप्यति पापवृत्ति:, शूराय भीरु: कवयेऽकविश्च ॥113॥ पुनरपि चोक्तम्- फिर भी कहा है- सूपकारं कविं वैद्य विप्रो विप्रं नटों नटम् ।
रसोइया-रसोइया को, वैद्य-वैद्य को, ब्राह्मण-ब्राह्मण को, नट-नट को और राजा-राजा को देखकर कुत्ते के समान घुरघुराता है ॥114॥राजा राजानमालोक्य श्ववद् घुरघुरायते ॥114॥ प्रकुप्यति नर: कामी बहुलं ब्रह्मचारिणे ।
कामी मनुष्य ब्रह्मचारी से उस प्रकार अत्यधिक कोप करता है, जिस प्रकार कि रात्रि में घूमने वाला चोर जागने वाले मनुष्य से कोप करता है ॥115॥जनाय जाग्रते चौरो रजन्यां संचरन्निव ॥115॥ इतो नद्या: पूरं समायातं, जलेन प्लवमानमात्मानं दृष्ट्वा मन्त्रिणा पद्यमेकमभाणि । तथा च- इतने में नदी का पूर आ गया । पानी में उतराते हुए अपने आपको देखकर मन्त्री ने एक श्लोक कहा - जेण वोयाइ रोहंति जेण तिप्पंति पायपा: ।
जैसे-जिस जल के द्वारा बीज उत्पन्न होते हैं और जिस जल से वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उस जल के बीच में मरँगा । अहो! शरण देने वाले से भय उत्पन्न हो गया ॥116॥तस्स मज्झे मरिस्सामि जादं सरणदो भयं ॥116॥ पुनरपि अधो वहमानं जलं दृष्ट्वान्योक्त्या पद्यमेकमुच्चै: स्वरेणाभाणीत् शिष्टशिरोमणिर्मन्त्रीश्वर: । तद्यथा- फिर भी नीचे की ओर बहते हुए-जल को देखकर सज्जनों में श्रेठ मन्त्री ने अन्योक्ति के रूप में उच्च स्वर से एक पद्य पढ़ा । जैसे- शैत्यं नाम गुणस्तथैव तदनु स्वाभाविकी स्वच्छता
हे जल! तुम में शीतलता नाम का प्रसिद्ध गुण है फिर स्वाभाविक स्वच्छता है, तुम्हारी पवित्रता को क्या कहूँ क्योंकि जिसके संग से दूसरे पदार्थ शुचिता को प्राप्त होते हैं अथवा इससे तुम्हारी अधिक स्तुति का स्थान और क्या हो सकता है कि तुम प्राणियों के जीवन हो-जीवन की रक्षा करने वाले हो, फिर भी तुम नीच मार्ग से जाते हो तो-तुम्हें रोकने के लिए कौन समर्थ है? यहाँ मन्त्री ने पानी के व्याज से राजा से कहा है कि आप स्वयं उत्कृष्ट होकर भी नीच मार्ग से चल रहे हैं असहनशीलता के कारण मंत्री का घात कर रहे हैं तो तुम्हें कौन रोक सकता है? ॥117॥किं ब्रूम: शुचितां भवन्ति शुचय: संगेन यस्यापरे । किं वान्यत्पदमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं जीविनां त्वं चेन्नीचपथेन गच्छति पय: कस्त्वां निरोद्धु: क्षम: ॥117॥ राज्ञ: प्रच्छन्नगुप्तचरेणेदं श्रुतं, शीघ्रं च गत्वा राज्ञोऽग्रे विज्ञप्तम् । ततो राज्ञा मनसि चिन्तितम्-अहो! मया विरूपकं कृतम्, यन्मन्त्री विडम्बित:, सत्पुरुषेणाश्रितानां गुणदोषचिन्ता न करणीया । तथा चोक्तम् - राजा के छिपे गुप्तचर ने यह श्लोक सुना और उसने शीघ्र ही जाकर राजा के आगे कह दिया । तदनन्तर राजा ने मन में विचार किया - अहो! मैंने बुरा किया जो मन्त्री को तिरस्कृत किया । सत्पुरुष को अपने आश्रित जनों के गुण और दोषों की चिन्ता नहीं करना चाहिए । जैसा कि कहा है- चन्द्र: क्षयी प्रकृतिवक्रतनुर्जडात्मा
चन्द्रमा क्षीण हो जाता है स्वभाव से वक्र शरीर वाला है जड़ात्मा-मूर्ख (पक्ष में जल रूप-शीतल) है, दोषाकार-दोषों की खान अथवा रात्रि को करने वाला है और मित्र की विपत्ति के समय (पक्ष में सूर्यास्त काल में) चमकता है फिर भी शंकरजी उसे अपने मस्तक से धारण करते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि आश्रित मनुष्यों में महापुरुषों को गुण और दोष का विचार नहीं होता ॥118॥दोषाकर: स्फुरति मित्रविपत्तिकाले । मूध्र्ना तथापि विधृत: परमेश्वरेण नह्याश्रितेषु महतां गुणदोषचिन्ता ॥118॥ एव विचार्य स मन्त्री झटिति प्रवाहजलान्नि:सारित: पुन: पूजितो मन्त्रिपदे स्थापितश्च । एवं सूचिताभिप्रायं राजा न जानाति । इत्याख्यानं निरूप्य निजगृहं गतो (तन्मार:) यमदण्ड । ऐसा विचार कर राजा ने उस मंत्री को शीघ्र ही पूर के जल से निकलवा लिया, उसकी पूजा की तथा मन्त्री के पद पर रख लिया । इस प्रकार सूचित अभिप्राय को राजा नहीं समझ पाया । यह कथा कहकर यमदण्ड कोतवाल अपने घर चला गया । ॥इस प्रकार पञ्चम दिन की कथा पूर्ण हुई॥ ॥इति पञ्चमदिन कथा॥ |