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षठ दिन की कथा

  कथा 

कथा :

षठदिन कथा

षठदिने सभास्थितेन राज्ञा पृष्ट:-रे यमदण्ड चौरो दृष्ट:? तेनोक्तं हे देव! न कुत्रापि दृष्ट:

राज्ञोक्तम् - तर्हि किमर्थं बह्वीवेला लग्ना

तेनोक्तम्-आपणमध्ये केनचिद्वनपालेन कथा कथिता, सा मया श्रुता, अतएव महती वेला लग्ना ।

राज्ञोक्तम् - सा ममाग्रे निरूपणीया, तेनोक्तम्-तथास्तु, श्रूयतां दत्तावधानै: श्रीपूज्यै: । तद्यथा-अस्ति कुरुजाङ्गलदेशे नागपुरनगरे राजा सुभद्र:; राज्ञीसुभद्रया सह राजा सुखेन राज्यं करोति । तस्य राज्ञो बहवो विनोदवानरा: सन्ति । तेषां राजमान्यनामुपद्रवं कुर्वतामपि कोऽपि किमपि न कथयति राजभयात् । ते सर्वेऽत्र नगरमध्ये निर्भया विचरन्ति । एकदा तेन राज्ञा क्रीडार्थं नूतनमुद्यानं कारितम् तदपूर्वं संजातम् तत्कथम्?


छठवें दिन सभा में स्थित राजा ने पूछा - रे यमदण्ड! चोर दिखा?

उसने कहा - हे देव । कहीं भी नहीं दिखा ।

राजा ने कहा - तो इतना अधिक समय किसलिए लगा?

उसने कहा - बाजार के बीच किसी वनपाल ने कथा कही थी, वह मैंने सुनी थी इसीलिए बहुत समय लग गया ।

राजा ने कहा - वह कथा मेरे आगे कही जानी चाहिए ।

यमदण्ड ने कहा - तथास्तु-ऐसा ही हो, पूज्यवर सावधान होकर वह कथा सुनिये, कथा इस प्रकार हैं-

कुरुजांगल देश के नागपुर नगर में राजा सुभद्र रहता था, उसकी रानी का नाम सुभद्रा था । इस प्रकार राजा सुख से राज्य करता था । उस राजा के बहुत से क्रीड़ा करने वाले वानर थे । वे राजमान्य वानर उपद्रव भी करते थे परन्तु राजा के भय से कोई भी कुछ नहीं कहता था । वे सब वानर इस नगर के बीच निर्भय होकर विचरते थे ।

एक समय उस राजा ने क्रीड़ा के लिए नवीन बगीचा बनवाया । वह बगीचा अपूर्व बन गया क्योंकि-

नाना - पाक - प्रकार - प्रकटितकदलीजात - चूतेक्षु - कक्षा
निर्यन्निर्यास - सार - प्रसररससरित्क्रोंड - सक्रीडहंसा: ।
कीडच्चक्राङ्गचक्रा: - परिमल - कुलित - भ्रान्तभृङ्गी - प्रसङ्गा:
पञ्चेषो: केलिरङ्गा पतत्किलिकिलि - ध्वानकान्ता वनान्ता: ॥119॥
उसमें ऐसे वन खण्ड थे कि जिनमें नाना प्रकार के परिपाक से प्रकटित केलों के अनेक भेद, अनेक आम और अनेक प्रकार के इक्षुओं की कक्षाएँ थीं, निकलते हुए श्रेठ निर्यास समूह के रस की नदियों के बीच हंस क्रीड़ा कर रहे थे, हंस और चक्रवाक पक्षी जिनमें क्रीड़ा कर रहे थे, सुगन्धि से व्याकुल भ्रमरियों के समूह जिनमें इधर-उधर घूम रहे थे, जिनमें कामदेव की क्रीड़ा के मनोहर प्रदेश थे और जो पक्षियों की किलिकिलि ध्वनि से सुन्दर थे ॥119॥

आम्र-जम्बू-निम्ब-कदम्ब-सरल-तरल-दल-ताल-तमाल-हिन्ताल-मुख्यवृक्ष सहिते तत्र वनेऽन्यस्मात् पर्वताद् वनाद्वागत्य मर्कटा: तालवृक्षसुरां पीत्वोद्यानस्योपद्रवं कुर्वन्ति, उन्मत्ता वनपालेभ्योऽपि न बिभ्यति । तथा चोक्तम्-


आम, जामुन, नींबू, कदम्ब, देवदारु, पीपल, ताल, तमाल और हिन्ताल के मुख्य वृक्षों से सहित उस वन में अन्य पर्वत अथवा अन्य वन से आकर वानर ताड़ वृक्ष की मदिरा पीकर उपद्रव करते थे । वे उन्मत्त वानर वनपालों से नहीं डरते थे । जैसा कि कहा है -

कपिरपि च कापिशयेन परिपोतो वृश्चिकेन संदष्ट: ।
सोऽपि पिशाचगृहीत: किं बू्रते चेष्टितं तस्य ॥120॥
ऐसा वानर हो कि जिसने अत्यधिक मदिरा पी ली है, ऊपर से जिसे बिच्छू ने काटा है और उतने पर भी जिसे पिशाच-भूत लग रहा है तो उसकी चेष्टा का क्या कहना है? ॥120॥

वनपालेन महावने मर्कटोपद्रवं दृष्ट्वा राज्ञोऽग्रे निरूपितम् हे राजन्! मर्कटैर्वनं विध्वस्तम् । एतद्वनपालकवचनं श्रुत्वा राज्ञा, वनरक्षणाय स्वमन्दिरस्थिता विनोदवृद्धवानरा: प्रस्थापिता: । ते मर्कटास्तत्र गत्वा स्वजातीयै: सह संमिलिता मदिरामदविह्वला विप्लवं तन्वन्ति । वनपालेन मनस्युक्तम्-मूलविनष्टं कार्यमिति वनरक्षणे मर्कटा: । वनपालकेन भणितं स्वमनसि-विवेक-चक्षुभ्र्यां विना न्याय मार्गान्धकारपतने कोऽपराध:? वनस्य दशां दृष्ट्वा वनपालेनेति पठितम् ।

एवं सूचिताभिप्रायं राजा न जानाति, इत्याख्यानं निरूप्य निजमन्दिरं गतो यमदण्ड: ।


वनपाल ने महावन में वानरों का उपद्रव देख राजा के आगे कहा - हे राजन्! वानरों ने महावन को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है । वनपाल के यह वचन सुन राजा ने वन की रक्षा के लिए अपने भवन में रहने वाले वृद्ध क्रीड़ा वानर भेज दिये । वे वानर वहाँ जाकर अपनी जाति के वानरों से मिल गये और मदिरा के मद से विह्वल होकर उपद्रव करने लगे । वनपाल ने मन में कहा कार्य, जड़ से ही नष्ट हो गया है क्योंकि वन की रक्षा में वानर नियुक्त किये गये हैं । वनपाल ने अपने मन में यह भी कहा कि - विवेक और नेत्र के बिना यदि अन्यथा कार्यरूपी अन्धकार में यदि कोई पड़ता है तो इसमें क्या अपराध है? वन की अवस्था देख वनपाल ने यह पद्य पढ़ा -

एकं हि चक्षूरमलं सहजो विवेक-स्तद्वद्भिरेव गमनं सहजं द्वितीयम् ।
पुंसो न यस्य तदिह द्वयमस्य सोऽन्धस्तस्यापमार्ग-चलने खलु कोऽपराध: ॥121॥
मनुष्य का एक निर्मल चक्षु तो सहज विवेक है और दूसरा जन्म से ही उत्पन्न नेत्र है । इन दोनों नेत्रों से युक्त मनुष्य का ही गमन होता है । जिस पुरुष के ये दोनों नेत्र नहीं हैं, उसके कुमार्ग में चलने में निश्चय से क्या अपराध है? कुछ भी नहीं ॥121॥

इस प्रकार सूचित अभिप्राय को राजा नहीं जान सका । यह कथा कहकर यमदण्ड अपने घर चला गया ।

॥ इति षठ दिन कथा॥


॥इस प्रकार षठ दिन की कथा हुई॥