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सप्तमदिन की कथा

  कथा 

कथा :

सप्तमदिन कथा

सप्तमदिने आस्थानस्थितेन राज्ञा तथैव पृष्ट:-रे यमदण्ड चौरो दृष्ट: तेनोक्तं हे देव! न कुत्रापि दृष्ट: ।

राज्ञोक्तम्-किमर्थं बह्वी वेला लग्ना? तेनोक्तम्-केनचिद्वनपालेन चत्वरस्थाने कथा कथिता, सा मया श्रुता, अतएव वेला लग्ना, राज्ञोक्तम्-सा कथा ममाग्रे निरूपणीया । तेनोक्तम्-तथास्तु । तद्यथा- अवन्तिविषये उज्जयिनी नाम नगर्यस्ति । तत्र सुभद्रनामार्थवाहोऽस्ति । तस्य द्वे भार्ये । एकदा निजमातृहस्ते भार्याद्वयं समप्र्य व्यवहारार्थं सुमुहूर्ते परिवारेण सह नगरीबाह्ये प्रस्थानं कृतम् । इतस्तस्य माता दुश्चारिणी केनचिज्जारेण

सह गृहवाटिकामध्ये स्थिता । रात्रौ कार्यवशात् सुभद्र: स्वगृहमागत: । तेनागत्य भणितम्-भो मात:! कपाटमुद्धाटय । पुत्रवचनं श्रुत्वां कपाटमुद्धाट्योभौ पलाय्य भीतातुरौ गृहकोणे प्रविष्टौ । गृहमध्ये प्रविशता तेन निजमातृवस्त्रमेरण्ड वृक्षोपरि दृष्टम् । ततस्तेन मनस्युक्तम्-अहो इयं सप्ततिवर्षिका कामसेवां न त्यजति । अहो विचित्रमकरध्वजस्य माहात्म्यम्, यतो मृतमपि मारयति । तथा चोक्तम्-


सातवें दिन सभा में बैठे हुए राजा ने उसी प्रकार पूछा-रे यमदण्ड चोर दिखा? उसने कहा - देव! कहीं भी नहीं दिखा । राजा ने कहा - फिर इतना अधिक काल कैसे लगा?

उसने कहा - कोई वनपाल चौराहे पर कथा कह रहा था, मैं उसे सुनता रहा इसलिए समय लग गया ।

राजा ने कहा - वह कथा मेरे आगे कही जाने योग्य है ।

उसने कहा - ठीक है सुनिये-

अवन्ति देश में उज्जयिनी नाम की नगरी है । वहाँ सुभद्र नाम का सेठ रहता था । उसकी दो स्त्रियाँ थी । एक समय वह अपनी माता के हाथ में दोनों स्त्रियों को सौंपकर लेन-देन के लिए अच्छे मुहूर्त में नगरी के बाहर चला गया । इधर उसकी दुश्चरिता माता किसी जार के साथ घर के बगीचे के बीच स्थित थी । रात्रि में कार्यवश सुभद्र अपने घर आया । आकर उसने कहा - हे माता! किवाड़ खोलो पुत्र के वचन सुनकर किवाड़ खोलकर दोनों भागे और भागकर डरते हुए दोनों घर के कोने में घुस गये । घर के भीतर प्रवेश करते हुए सुभद्र ने अपनी माता के वस्त्र एरण्ड के वृक्ष पर देख लिए । तदनन्तर उसने मन में कहा - अहो । यह सत्तर वर्ष की है तो भी कामसेवन को नहीं छोड़ती है । अहो काम की महिमा बड़ी विचित्र है क्योंकि वह मरे हुए को भी मारता है । जैसा कि कहा है-

कृश: काण: खञ्ज: श्रवणरहित: पुच्छविकलो
व्रणी पूयोद्गीर्ण: कृमिकुलशतैरावृततनु: ।
क्षुधाक्षाम: क्षुण्ण: पिठरककपालार्पितगल:
शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदन: ॥122॥
एक ऐसा कुत्ता जो दुबला है, काना है, लंगड़ा है, कानों से रहित है, पूँछ से विकल है, घावों से युक्त है, जिसके पीप निकल रही है, जिसका शरीर सैकड़ों कीड़ों से युक्त है, जो भूख से कृश है, पिटा हुआ है और जिसके गले में फू टे घड़े का घाँघर लटक रहा है, कुत्ती के पीछे लग रहा है । अत: काम मरे हुए को भी मार रहा है ॥122॥

अपूर्वोऽयं धनुर्वेदो मन्मथस्य महात्मन: ।
शरीरमक्षतं कृत्वा भिनक्व्यन्तर्गतं मन: ॥123॥
महात्मा कामदेव का धनुर्वेद अपूर्व ही है क्योंकि शरीर को तो अक्षत-अखण्ड रखता है परन्तु भीतर स्थित मन को भेद देता है-खण्डित कर देता है ॥123॥

अहो स्त्रीचरित्रं न केनापि ज्ञातुं शक्यते लोकोक्तिरियं सत्या । उक्तम् च-


अहो स्त्री का चरित्र किसी के द्वारा नहीं जाना जा सकता, यह जो लोकोक्ति है, वह सत्य है । कहा भी है-

गहचरियं देवचरियं ताराचरियं च राहुचरियं च ।
जाणंति सयलचरियं महिलाचरियं ण जाणंति ॥124॥
ग्रह का चरित्र, देव का चरित्र, तारा का चरित्र और राहु का चरित्र इस प्रकार सबके चरित्र को लोग जानते हैं, परन्तु स्त्री के चरित्र को नहीं जानते ॥124॥

बहिर्वृत्त्या सुजनभावं प्रकटयति । तथा चोक्तम्-


स्त्री बाह्य वृत्ति-बाहरी चेष्टा से अपनी सज्जनता प्रकट करती है । जैसा कि कहा है-

चक्रवाकसमवृत्तजीवितं वल्लभं पितरमात्मजं गुरुम् ।
मृत्युमानयति दुष्टकामिनी कोपितान्यमनुजेषु का कथा ॥125॥
चक्रवाक पक्षी के समान वृत्ति वाला जिसका जीवन है अर्थात् जो पृथक् होने पर दु:खी होता है ऐसे वल्लभ-प्रिय पति को, पुत्र को और गुरु को भी दुष्ट स्त्री क्रुद्ध होने पर मृत्यु को प्राप्त करा देती है फिर अन्य पुरुषों की बात ही क्या है? ॥125॥

आलिङ्गत्यन्यमन्यं रमयति वचसा वीक्षते चान्यमन्यं-
रोदित्यन्यस्य हेतो: कथयति शपथैरन्यमन्यं वृणीते ।
शेते चान्येन सार्धं शयनमुपगता चिन्व्यत्यन्यमन्यं-
स्त्री वामेयं प्रसिद्धा जगति बहुमता केन धृष्टेन सृष्टा ॥126॥
स्त्री किसी अन्य पुरुष का आलिंगन करती है, वचन से किसी अन्य को रमण कराती है-बहलाती है, किसी अन्य को देखती है, किसी अन्य के कारण रोती है, किसी अन्य को शपथों द्वारा अभिप्राय प्रकट करती है, किसी को वरती है किसी अन्य के साथ शयन करती है, शयन को

प्राप्त होकर भी किसी का चिन्तन करती है, यह वामा नाम से प्रसिद्ध है तथा जगत् में बहुत प्रिय है, न जाने यह स्त्री किस धृष्ट के द्वारा बनायी गयी है ॥126॥

मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितं
स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावुपमितौ ।
स्रवन्मूत्रक्लिन्नं करिवरशिर:स्पर्धिजघनं
मुहुर्निन्द्यं रूपं कविजनविशेषैर्गुरु कृतम् ॥127॥
स्त्री का मुख यद्यपि कफ का घर है तो भी चन्द्रमा के साथ इसकी तुलना करते हैं, स्तन मांस की गाँठ हैं तो भी इन्हें सुवर्णकलश की उपमा दी जाती है, जघन भाग झरते हुए मूत्र से गीला है फिर भी उसे गजराज के गंडस्थल के साथ स्पर्धा करने वाला कहा जाता है और रूप बार-बार निन्दनीय है फिर भी कवि लोग उसे बढ़ावा देते हैं ॥127॥

यत्रेयं वार्धकेऽत्येवं करोति तत्र तरुण्योर्मम भार्ययो: का वार्ता? तथा चोक्तम्-


जबकि यह वृद्धावस्था में भी ऐसा करती है, तब मेरी जवान स्त्रियों की बात ही क्या है । जैसा कि कहा है-

वायुना यत्र नीयन्ते कुञ्जरा: षष्टिहायना: ।
गावस्तत्र न गण्यन्ते शशकेषु च का कथा ॥128॥
जहाँ वायु के द्वारा साठ वर्ष के हाथी भी उड़ा दिये जाते हैं वहाँ गायों की क्या गिनती है? और खरगोशों की क्या कथा है? ॥128॥

एवं मनसि विचार्य भार्ययो: शिक्षां प्रयच्छति । तद्यथा-


इस प्रकार मन में विचारकर दोनों स्त्रियों को शिक्षा देता है ।

हायिदी हराइ सुणेदो दो दीसंति वंसपत्ताई ।
अच्चा भणामि भणिए तुम्हाणाय पिण्डरा पिट्टी ॥129॥
मूलविणठ्ठा वल्ली जं जाणह तं करेहु सुण्णावो ।
अंवाए पंगुरणं दिठ्ठ एरंड मूलम्हि ॥130॥
हृदय को हरण करने वाली मेरी बात सुनों । तुम दोंनों वंश चलाने वाले पुत्र को देने वाली दिखती हों । यथार्थ कहता हूँ । कहिए तुम्हारे ये पुत्र-पुत्री नहीं क्योंकि जैसे जड़ नष्ट होंने से लता की जैसी दशा होती है अर्थात् लता दूषित हों सूख जाती है । उसी प्रकार तुम अच्छी तरह सुनकर कहों, क्योंकि जब अम्मा के अधोंवस्त्र एरण्ड के नीचे पड़े मिले हैं अर्थात् जहाँ तुम्हारी बूढ़ी सास दूषित हों वहाँ जवान बहुएँ सुरक्षित कैसे रह सकती हैं, ऐसी शंका मन में कर सुभद्र सेठ ने अपनी पत्नियों से कहा ॥129-130॥

एवं हि सूचितमभिप्रायं राजा न जानाति, कदाग्रहग्रस्तत्वान्निर्विवेकत्वाच्च यस्य हि विवेकचक्षुरमलं न, तस्यान्यायमार्गान्धकारपतने कोऽपराध:? इत्याख्यानं निरूप्य निजगृहं गतो यमदण्ड: ।


इस प्रकार सूचित अभिप्राय को राजा नहीं जानता है क्योंकि वह दुराग्रह से ग्रस्त तथा निर्विवेक था । जिसके पास विवेकरूपी निर्मल चक्षु नहीं है, उसका अन्याय मार्गरूप अन्धकार में यदि पतन होता है तो उसका क्या अपराध है? यह कथा कहकर यमदण्ड अपने घर चला गया ।

॥ इति सप्तमदिनकथा॥


॥इस प्रकार सप्तमदिन की कथा पूर्ण हुई॥