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अष्टम दिन वार्ता

  कथा 

कथा :

अष्टमदिन वार्ता

अष्टमदिने आस्थानोपविष्टेन क्रोधाग्नि-देदीप्यमानेन राज्ञा यमदण्ड: पृष्ट:-रे यमदण्ड! चोरो दृष्ट:? तेनोक्तम्-हे देव! न कुत्रापि दृष्ट: । ततो कुपितेन राज्ञा समस्त-महाजनमाकार्य भणितम्-भो लोका: मम दोषो नास्ति । अनेन धूर्तेन सप्तदिनेषु कथाकथनेन प्रतारितोऽहम् । इदानीं चौरं वस्तु चासौ नार्पयिष्यति चेदेनं शतखण्डं कृत्वा दिग्वधूनां बलिं निश्चितं दास्यामि । एतद्राज्ञो वचनं श्रुत्वा महाजनेन यमदण्ड: पृष्ट: भो यमदण्ड त्वया स्तेन स्तेनाहृतं वस्तु स्तेनाङ्कवा दृष्टम् । तदा यमदण्डेनाभाणि-गृहाण, यज्ञोपवीतं पादुका मुद्रिकादिकमानीय सभाग्रे निधाय भणितम्-भो न्यायवेदिनो महाजना: । तस्कराङ्के लब्धे तस्करस्य को निग्रह:? राजकुमारादिसभासदैर्भणितम्-शूलिकारोपणां वा निष्कासनं क्रियते । यमदण्डेनोक्तम्- अत्रार्थे निश्चयोऽस्ति वा नास्ति । तैरुक्तम्-यदि राजापि चौरो भविष्यति तदा तस्य निग्रहं करिष्यामोऽन्यस्य का वार्ता? अत्रार्थेऽस्माकं शपथ एव । एवं सभासदां निश्चयं मत्वा यमदण्डेन भणितम्-भो न्यायवेदिनो महाजना: । इदं वस्तु, एते चौरा: (पश्यतोहरा): । यथा भवतां मनसि रोचते तथा कुर्वन्तु इत्येवं निरूप्य पद्यमेकमभाणि तद्यथा-


अष्टमदिन वार्ता


आठवें दिन सभा में बैठे हुए तथा क्रोधरूपी अग्नि से देदीप्यमान राजा ने यमदण्ड से पूछा - रे यमदण्ड चोर देखा?

उसने कहा - हे देव! कहीं भी नहीं दिखा ।

तब क्रोध से युक्त राजा ने सब महाजनों को बुलाकर कहा - हे महाजनों । मेरा दोष नहीं है । यह धूर्त सात दिनों में कथाएँ कहकर मुझे धोखा देता रहा है । अब यदि चोर और चुराई वस्तुओं को नहीं देगा तो मैं इसके सौ टुकड़े कर दिशारूपी स्त्रियों को निश्चित ही बलि प्रदान कर दूँगा ।

राजा के इस वचन को सुनकर महाजनों ने यमदण्ड से पूछा - भो यमदण्ड! तुमने चोर, उसके द्वारा चुराई हुई वस्तुएँ अथवा चोर का कोई अंग देखा है ।

तब यमदण्ड ने कहा - लीजिए यह कहकर उसने यज्ञोपवीत पादुका और मुद्रिका आदि को लाकर सभा के आगे रखते हुए कहा - हे न्याय के जानने वाले महाजनों । यदि चोर का कोई अंग मिल जावे तो चोर को क्या दण्ड दिया जायेगा?

राजकुमारादि सभासदों ने कहा - शूलारोपण अथवा देश निकाला किया जायेगा ।

यमदण्ड ने कहा - इस विषय में दृढ़ता है या नहीं?

महाजनों ने कहा - यदि राजा भी चोर होगा तो, हम लोग उसको भी दण्ड करेंगे दूसरे की बात ही क्या है? इस विषय में हम लोगों की शपथ ही है ।

इस प्रकार सभासदों का निश्चय जानकर यमदण्ड ने कहा - हे न्याय के जानने वाले महाजनों! यह वस्तु है और ये चोर हैं । अब जैसा आप लोगों के मन में रुचे वह करो ।

ऐसा कहकर यमदण्ड ने एक पद्य कहा - जैसे -

जत्थ राया समं चौरो समंती स पुरोहितो ।
वणं वज्जह सव्वेवि जादं सरणदो भयं ॥131॥
जहाँ मन्त्री और पुरोहित से सहित राजा ही चोर है वहाँ रहने वाले सब लोगों को वन में चला जाना चाहिए क्योंकि शरण से ही भय उत्पन्न हो गया है ॥131॥

पुनरपि यमदण्डेनोक्तम् यद्यविचार्यं नरपतिं भवन्ती न त्यजन्ति तर्हि पुण्येन दुराकृता भवन्त इत्येवं ज्ञातव्यं भवद्भि: । तथा चोक्तम्-


यमदण्ड ने फिर से कहा कि - यदि आप लोग विचार किये बिना राजा को नहीं छोड़ते हैं तो आप लोग पुण्य से वञ्चित होंगे, यह सबको जान लेना चाहिए । जैसा कि कहा है-

मित्रं शत्रुगतं कलत्रमसतीं पुत्रं कुलध्वंसिनं-
मूर्खं मन्त्रिणमुत्सुकं नरपतिं वैद्यं प्रमादास्पदम् ।
देवं रागयुतं गुरं विषयिणं धर्मं दयावर्जितं-
यो वा न त्यजति प्रमोहवशत: स त्यज्यते श्रेयसा ॥132॥
शत्रु में मिले हुए मित्र को, व्यभिचारिणी स्त्री को, कुल को नष्ट करने वाले पुत्र को, राग सहित देव को, विषय सेवन करने वाले गुरु को और दया से रहित धर्म को जो प्रमोहवश नहीं छोड़ता है वह कल्याण के द्वारा छोड़ दिया जाता है ॥132॥

ततो महाजनेन पादुकाभ्यां राजा, चौर इति ज्ञातं, मुद्रिकया मन्त्री चौर इति ज्ञातं, यज्ञोपवीतेन पुरोहितश्चौर इति ज्ञातं । तत: सर्वै: सह पर्यालोंच्य पश्चात् राजानं निर्घाट्य राजपुत्रो राजपदे स्थापित:, मन्त्रिणं निर्घाट्य मन्त्रिपुत्रो स्थापित:, पुरोहितं निर्घाट्य पुरोहितपुत्र: पुरोहितपदे स्थापित: । त्रयाणां निर्गमनं समये लोकैर्भणितम्-अहो "विनाशकाले शरीरस्था बुद्धिरपि गच्छतीति" लोकोक्ति: सत्येयम् । तथोक्तम्-


तत्पश्चात् महाजनों ने खड़ाउओं से "राजा चोर है" ऐसा ज्ञात किया, मुद्रिका से "मन्त्री चोर है" ऐसा ज्ञात किया और यज्ञोपवीत से "पुरोहित चोर है" इस प्रकार जान लिया । तदनन्तर सबने एक साथ विचार कर राजा को पदच्युत कर उसके पुत्र को राज्य पद पर बैठाया, मन्त्री को निकाल कर उसके स्थान पर मन्त्री-पुत्र को मन्त्री का पद दिया और पुरोहित को हटाकर उसके पद पर पुरोहित के पुत्र को स्थापित किया । जब तीनों नगर से निकाले जा रहे थे तब लोगों ने कहा - अहो विनाश के समय शरीर में रहने वाली बुद्धि भी चली जाती है । यह जो लोकोक्ति है वह सत्य है । जैसा कि कहा गया है-

रामो हेममृगं न वेत्ति नहुषो याने पुनक्ति द्विजा-
न्विप्रस्यापि सवत्सधेनुहरणे जाता मतिश्चार्जुने ।
द्यूते भ्रातृचतुष्टयं च महिषीं धर्मात्मजो दत्तवान्
प्राय: सत्पुरुषो विनाशसमये बुद्ध्या परित्यज्यते ॥133॥
सोने का मृग नहीं होता है, ऐसा रामचन्द्रजी जानते थे, राजा नहुष ने ब्राह्मणों को यान में जुताया, अर्जुन ने ब्राह्मण, जमदग्नि ने गाय और बछड़े का हरण किया और धर्म-पुत्र युधिठिर ने चार भाईयों तथा द्रौपदी रानी को जुए में दे दिया सो ठीक ही है क्योंकि प्राय: विनाश का अवसर आने पर सत्पुरुष बुद्धि के द्वारा छोड़ दिये जाते हैं ॥133॥

तथा च-


और भी कहा है -

रावणतणे कपाले अठोत्तरसो बुद्धि वसई ।
लंकाभंजनकाले इकइ बुद्धि न संपडी ॥134॥
यद्यपि रावण के कपाल में एक सौ आठ प्रकार की बुद्धि निवास करती थी तथापि लंका के विनाश काल में एक भी बुद्धि काम नहीं आयी ॥134॥

ततो निर्गमनसमये राज्ञोक्तम्-अहो मया चिन्तितं यमदण्डं मरयित्वानेनोपायेन सुखेन राज्यं क्रियेत् । अयं विपाक: कर्मणो मम मध्ये समागमिष्यतीति को जानीते? तथा चोक्तम्-


तदनन्तर नगर से निकलते समय राजा ने कहा - अहो । मैंने विचार किया था कि इस उपाय से यमदण्ड को मारकर सुख से राज्य किया जायेगा परन्तु कर्म का यह विपाक बीच में आ जायेगा, यह कौन जानता था? जैसा कि कहा है -

अयं वारामेको निलय इति रत्नाकर इति
श्रितोऽस्माभिस्तृष्णा तरलित मनोभिर्जलनिधि: ।
क एवं जानीते निजकरपुटीकोटरगतं
क्षणादेनं ताम्यत्तिमिमकरमापास्यति मुनि: ॥133॥
यह जल का अद्वितीय स्थान है तथा रत्नों की खान है, ऐसा मानकर प्यास से चंचल चित्त वाले हम लोगों ने इस जलनिधि समुद्र का आश्रय लिया था । इसके पास आये थे परन्तु यह कौन जानता था कि जिसमें मत्स्य तथा मगरमच्छ छटपटा रहे हैं, ऐसे इस समुद्र को (अगस्त्य) ऋषि अपनी चुल्लु रूपी कोटर में रखकर पी जायेंगे ॥133॥

एवं सर्ववृत्तान्त: सुबुद्धिमन्त्रिणोदितोदयं राजानं प्रति निरूपित: । अतएव हे देव! केनापि सह विरोधो न कर्तव्य: । विरोधे सति स्वस्य नाश एव नान्यत् । तथा चोक्तम्-


यह सब वृत्तान्त सुबुद्धि मन्त्री ने राजा उदितोदय से कहा और अन्त में उसका सारांश प्रकट करते हुए कहा - इसलिए हे देव! किसी के साथ विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि विरोध होने पर अपना नाश ही होता है अन्य कुछ नहीं । जैसा कि कहा है -

पराभवो न कत्र्तव्यो यादृशे तादृशे जने ।
तेन टिट्टिभमात्रेण समुद्रो व्याकुलीकृत: ॥136॥
जिस किसी का भी पराभव नहीं करना चाहिए क्योंकि एक टिड्डी ने समुद्र को व्याकुल कर दिया ॥136॥

एतत्सर्वमाख्यानं श्रुत्वोदितोंदयेन राज्ञोंक्तम्-भो सुबुद्धे । ततों निर्गमनसमये राज्ञा-मन्त्रि-पुरोहितौ प्रति भणितम्-अहो मया यमदण्डमनेनोपायेन मारयित्वा सुखेन राज्यं करिष्ये । एवं मनसि चिन्तितम्, अयं कर्मविपाको मध्ये समागमिष्यतीति को जानीते? तथा चोक्तम्-


यह सब कथा सुनकर उदितोदय राजा ने कहा - हे सुबुद्धे! नगर से निकलते समय राजा ने अपने मन्त्री और पुरोहित से कहा होगा - अहो मैं इस उपाय से यमदण्ड को मारकर सुख से राज्य करँगा । ऐसा उसने मन में विचार किया होगा परन्तु कर्म का यह विपाक बीच में ही आ जायेगा, यह कौन जानता था । जैसा कि कहा है -

निदाघे दाघार्त: प्रचुरतरतृष्णातरलित:
सर: पूर्णं दृष्ट्वा त्वरितमुपयात: करिवर: ।
तथा पङ्के मग्नस्तट-निकट-वर्तिन्यपि यथा ।
न नीरं नो तीरं द्वयमपि विनष्टं विधिवशात् ॥137॥
ग्रीष्म ऋतु में तीव्र गर्मी से पीडि़त और बहुत भारी प्यास से बेचैन किया गया एक गजराज लबालब भरे हुए सरोवर को देखकर शीघ्र ही समीप आया परन्तु तट के निकट विद्यमान कीचड़ में ऐसा फँसा कि न जल ही मिल पाया और न तट ही । कर्मवश दोनों ही नष्ट हो

गये-प्राप्त होने से रह गया ॥137॥

यत् त्वया कथितं तत्सर्वमपि सत्यम् । वने गमने विरुद्धमवगते सति ममापि सुयोधनावस्था भविष्यत्येवात्र संदेहाभाव: ।

सुबुद्धिमन्त्रिणोक्तं - हे राजन् ? मन्त्र्यभावे राज्यनाश एव । स्तब्धस्य नश्यति यशो विषमस्य मैत्री नष्ट-क्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्म: ।


हे सुबुद्धि मन्त्री! तुमने जो कहा है वह सभी सत्य है । वन के लिए जाने पर और उसकी विरुद्धता का ज्ञान होने पर मेरी भी सुयोधन जैसी अवस्था होगी इसमें संशय नहीं है ।

सुबुद्धि मन्त्री ने कहा - हे राजन्! मन्त्री के अभाव में राज्य का नाश ही होता है । जैसा कि कहा है -

विद्याफलं व्यसनिन: कृपणस्य सौख्यं
राज्यं प्रमत्तसचिवस्य नराधिपस्य ॥138॥
अहंकारी मनुष्य का यश, विषम मनुष्य की मित्रता, क्रियाहीन का कुल, अर्थ कमाने में संलग्न मनुष्य का धर्म, व्यसनी का विद्याफल, कंजूस का सुख, प्रमत्त मंत्री से युक्त राजा का राज्य नष्ट हो जाता है ॥138॥

अन्त:सारैरकुटिलै: सुस्थितै: सुपरीक्षितै: ।
मन्त्रिभिर्धार्यते राज्यं सुस्तम्भभैरिव मन्दिरम् ॥139॥
भीतर से सुदृढ़ सीधे अच्छी तरह खड़े किये हुए और अच्छी तरह परीक्षित खम्भों के द्वारा जिस प्रकार महल धारण किया जाता है, उसी प्रकार भीतर से बलिठ छल रहित अच्छे पद पर स्थित और अच्छी तरह परीक्षित मन्त्रियों के द्वारा राज्य धारण किया जाता है ॥139॥

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च हन्यते ।
सबन्धुराष्ट्रं राजानं हन्त्येको मन्त्रिविप्लव: ॥140॥
विषरस एक को मारता है और शस्त्र के द्वारा एक मारा जाता है परन्तु मन्त्री का विप्लव अकेला व भाईयों तथा राष्ट˛ से सहित राजा को नष्ट कर देता है ॥140॥

राज्ञोक्तम्-योऽनर्थकार्यं निवारयति स परमो हि मन्त्री । तथा चोक्तम्-


राजा ने कहा - जो निरर्थक कार्य को रोकता है वास्तव में वह उत्कृष्ट मन्त्री है । जैसा कि कहा है -

स्थितस्य कार्यस्य समुद्धरार्थ-मागामिनोऽर्थस्य च संभवार्थम् ।
अनर्थ-कार्यस्य विघातनार्थं यन्मन्त्रतेऽसौ परमो हि मन्त्री ॥141॥
जो चालू कार्य को आगे बढ़ाने के लिए आगामी कार्य की उत्पत्ति के लिए और अनर्थक कार्यों का विघात करने के लिए मन्त्रणा करता है, निश्चय से वही उत्कृष्ट मन्त्री है ॥141॥

सुबुद्धि मन्त्रिणोक्तम्-भो राजन् मन्त्रिणा स्वामिहितं कर्म कत्र्तव्यम् । राज्ञोक्तम् त्वमेव सत्पुरुषो लोके, त्वयि सति मदीयापकीर्ति दुर्गतिश्च गता । तथा चोक्तम्-


सुबुद्धि मन्त्री ने कहा - हे राजन्! मन्त्री को स्वामी का हित करने वाला कार्य करना चाहिए ।

राजा ने कहा - लोक में तुम्हीं सत्पुरुष हो, क्योंकि तुम्हारे रहते हुए ही मेरी अपकीर्ति और दुर्गति नष्ट हुई है । जैसा कि कहा है -

वारयति वर्तमानामापदमागामिनी च सत्सेवा ।
तृष्णां च हरति पीतं गाङ्गेयं दुर्गतिं वाम्भ: ॥142॥
सत्पुरुषों की सेवा वर्तमान तथा आगामिनी आपत्ति को उस प्रकार दूर करती है, जिस प्रकार पिया गया गंगाजल तृषा और दुर्गति-दोनों का दूर करता है ॥142॥

गुण जाई णिगुणस्स गोठई, धण जाई पाणिणी दिठ्ठी ।
तप जाई तरुणि नेसंगि, मतिपरा जाई णीचनेसंगि ॥143॥
निर्गुण मनुष्यों की गोठी से गुण नष्ट होता है, पापपूर्ण दृष्टि से धन चला जाता है, तरुण स्त्री की संगति से तप नष्ट हो जाता है और नीच मनुष्यों की संगति से उत्तम बुद्धि चली जाती है ॥143॥

त्वमेव परमो बन्धुस्त्वमेव परम: सखा ।
त्वं मे माता गुरुत्वं मे सुबुद्धिदानत: पिता ॥144॥
तुम्हीं उत्कृष्ट बंधु हो, तुम्हीं परम मित्र हो, तुम्हीं मेरी माता हो, तुम्हीं मेरे गुरु हो और सुबुद्धि के देने से तुम्हीं मेरे पिता हो ॥144॥

इस तरह नाना प्रकार से मंत्री की स्तुति कर राजा ने कहा -

एवं नाना प्रकारैर्मन्त्रिणं स्तुत्वा राज्ञा कथितम्-भो मन्त्रिन् रात्रिनिर्गमनार्थं, विनोदार्थं च नगरमध्ये भ्रमणं क्रियते, तत्र किंचिदाश्चर्यं दृश्यते । यत:


हे मन्त्री! रात्रि निकालने तथा विनोद के लिए नगर के मध्य ही भ्रमण किया जाये, वहाँ भी कोई आश्चर्य दिखाई दे सकता है, क्योंकि

धर्मशास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
इतरेषां मनुष्याणां निद्रया कलहेन च ॥145॥
बुद्धिमानों का काल धर्मशास्त्र के विनोद से व्यतीत होता है और अन्य मनुष्यों का काल निद्रा तथा कलह के द्वारा व्यतीत होता है ॥145॥

मन्त्रिणोक्तम् एवमस्तु । एवं पर्यालोच्यालक्ष्यभूतौ द्वौ चलितौ नगराभ्यन्तर आश्चर्यमवलोकयत: । एकस्मिन् प्रदेशे गतौ तत्र राज्ञा छायापुरुषों दृष्ट: तां मनुष्यछायां दृष्ट्वा राज्ञा भणितम्-भो मन्त्रिन्! कोऽयं दृश्यते? तेनोक्तम्-हे देव! अञ्जनगुटिकाप्रसिद्ध: सुवर्णखुरनाम चोरोऽयम् । अञ्जनबलेनादृश्य-तामङ्गीकृत्यसर्वजन- गृहाणि मुष्णाति । कोऽप्यस्य प्रतिकारं कर्तुं न समर्थ: ।

राज्ञोक्तम्-असौ साम्प्रतं य गच्छतीति ज्ञानार्थमनेन सह गन्तव्यम् । एवं पर्यालोच्य चौरपृठतो लग्नौ द्वौ । स चौर: क्रमेणार्हद्दास-श्रेष्ठि-गृहप्राकारस्योपरिस्थित-वटवृक्षस्योपरि अलक्ष्यीभूय स्थित: । राजा मन्त्री चालक्ष्यौ भूत्वा तद्वृक्षमूले स्थितौ । अस्मिन्प्रस्तावे अष्टोपवासिनार्हद्दास-श्रेष्ठिना स्वकीया अष्टौ भार्या: प्रति भणितम्-भो भार्या: अद्य नगरमध्ये पुरुषान्विहाय स्त्रिय: सर्वा अपि राजादेशेन वनक्रीडार्थं गता । भवत्योऽपि व्रजन्तु, अहं धम्र्यध्यानेन गृहे तिष्ठामि । अन्यथा आज्ञाभङ्गेन सर्पवत् विषमो राजा सर्वमनिष्टं करिष्यति । तथा चोक्तम्-


मन्त्री ने कहा - ऐसा हो । ऐसा विचार कर वे दोनों अलक्ष्य होकर-पहचान में न आ सके, इस प्रकार चले और नगर के भीतर आश्चर्य को देखने लगे-खोजने लगे । दोनों ही एक स्थान पर गये, वहाँ राजा ने एक छाया पुरुष देखा अर्थात् उसकी छाया तो पड़ रही थी परन्तु छाया वाला पुरुष नहीं दिख रहा था । उसे देख राजा ने कहा - हे मन्त्रीजी! यह क्या दिखायी देता है?

उसने कहा - हे देव! यह अंजनगुटिका को सिद्ध करने वाला सुवर्णखुर नाम का चोर है, अंजन के बल से यह अदृश्यता को प्राप्त होकर सब मनुष्यों को लूटता है, कोई भी इसका प्रतिकार करने में समर्थ नहीं है ।

राजा ने कहा - यह इस समय कहाँ जा रहा है? यह जानने के लिए इसके साथ चलना चाहिए ।

ऐसा विचार कर दोनों चोर के पीछे लग गये । वह चोर क्रम से अर्हद्दास श्रेठी के घर के कोट के ऊपर स्थित वटवृक्ष के ऊपर छिपकर बैठ गया । राजा और मन्त्री भी छिपकर उस वृक्ष के नीचे बैठ गये । इसी अवसर पर आठ उपवास करने वाले अर्हद्दास सेठ ने अपनी आठ स्त्रियों से कहा - हे पत्नियो! आज नगर के बीच पुरुषों को छोड़ सभी स्त्रियाँ राजा की आज्ञा से वन क्रीड़ा के लिए गयी

हैं । आप भी जाइये, मैं धर्मध्यान से घर में रहता हूँ, अन्यथा आज्ञा भग्न होने से साँप के समान विषम

राजा सब अनिष्ट कर देगा । जैसा कि कहा है-

ये वेष्टयन्ति पार्श्वस्थं निर्दहन्ति पुर: स्थितम् ।
चिन्व्यन्ति स्थितं पश्चाद् भोगिन: कुटिलानृपा: ॥146॥
कुटिल-टेढ़ी चाल चलने वाले (पक्ष में मायावी) भोगी-साँप (पक्ष में भोगों से युक्त) तथा राजा, पास में रखी हुई वस्तु को लपेट लेते हैं, सामने स्थित को जलाते हैं और पीछे स्थित का चिन्तन करते हैं । भावार्थ-राजा साँप के समान होते हैं ॥146॥

मणिमन्त्रौषधिस्वस्थ: सर्पदष्टो विलोकित: ।
नृपैर्दृष्टिविषैर्दष्टो न दृष्ट: पुनरुत्थित: ॥147॥
साँप का डसा हुआ मनुष्य तो मणि, मंत्र, औषध के द्वारा स्वस्थ होता देखा गया है परन्तु राजा रूपी साँपों के द्वारा डसा हुआ मनुष्य फिर खड़ा होता नहीं देखा गया है ॥147॥

तथा चोक्तम्-


जैसा कि कहा है -

अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदा: ।
सेव्या मध्यमभावेन राजावह्निगुरुस्त्रिय: ॥148॥
राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री; ये चार पदार्थ अत्यन्त निकटवर्ती हों तो विनाश के लिए होते हैं दूरवर्ती हो तो फल देने वाले नहीं होते, अत: मध्यम भाव से इनकी उपासना करना चाहिए ॥148॥

ताभिरक्तं-भो स्वामिन् अस्माकमष्टोपवासा अद्य संजाता: । उपवासदिने धर्मं विहाय वनक्रीडार्थं कथं गम्यते? इत्येवं भवन्तो विचारयन्तु । ततस्तेन राजादेशेन किं प्रयोजनम्? यदस्माभिरुपार्जित तद् भविष्यत्येव, न वयं वने गच्छाम: । तथा चोक्तम्-


उन स्त्रियों ने कहा - भो स्वामिन् । हम लोगों के आज आठ उपवास हो चुके हैं । उपवास के दिन धर्म छोड़कर वन क्रीड़ा के लिए कैसे जाया जावे? इस प्रकार आप विचार कीजिए । इसलिए उस राजाज्ञा से क्या प्रयोजन है? हम लोगों ने जो उपार्जन किया है वह होगा ही । हम वन में नहीं जावेगी । जैसा कि कहा गया है -

मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रुं जयत्वाहवे
वाणिज्यं कृषिसेवनादिसकला: पुण्या: कला: शिक्षतु ।
आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं
नाभव्यं भवतीह कर्मवशतों भावस्य नाश: कुत: ॥149॥
जल में डूबों, मेरु की चोटी पर जाओ, युद्ध में शत्रु को जीतो, वाणिज्य तथा खेती और नौकरी आदि की समस्त पुण्य कलाएँ सीखो तथा अत्यधिक प्रयत्न कर पक्षियों के समान विस्तृत आकाश में गमन करो तो भी इस जगत् में न होने योग्य कार्य नहीं हो सकता । ठीक ही है क्रियावश पदार्थ का नाश कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता ॥149॥

र्कि, कृतोपवासानां कर्तव्याकर्तव्यनिर्णयोऽयमवधार्यताम् । तथा चोक्तम्-


दूसरी बात यह है कि उपवास करने वालों को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए इसका भी निश्चय करने योग्य है ।

पञ्चानां पापानामलं-क्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् ।
स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात् ॥150॥
हिंसादि पाँच पापों का, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, ऋान, अंजन और सूंघनी आदि का उपवास के दिन परित्याग करना चाहिए ॥150॥

धर्मामृतं सतृष्ण: श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् ।
ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालु: ॥151॥
तृष्णा से सहित होता हुआ कानों से धर्मरूपी अमृत को स्वयं पीवे, दूसरों को पिलावे और आलस्य को छोड़कर ज्ञान और ध्यान में तत्पर होवे ॥151॥

श्रेष्ठिनोक्तम्-भवतीभिर्यदुक्तंतत्सत्यमेव । उपवासदिने जिनागमादिश्रवणं कर्तव्यम् । तदेव कर्मक्षयस्य कारणं भवति, न तु क्रीडार्थं वनगमनम् ।


अर्हद्दास सेठ ने कहा - आप लोगों ने जो कहा है, सत्य ही है । उपवास के दिन जैनागम का श्रवण आदि करना चाहिए । वही कर्मक्षय का कारण है न कि क्रीड़ा के लिए वन को जाना ।

धरण्यां स्वपितु त्यागं करोतु चिरमन्धसो
मज्जत्वप्सु दिवा नक्तं गिरे: पततु मस्तकात् ।
विधत्तां पञ्चतायोग्यां क्रियां विग्रहशोषिणीं
पुण्यैर्विरहितो जन्तुस्तथापि न कृती भवेत् ॥152॥
यद्यपि पृथ्वी पर सोंओ, चिरकाल तक भोजन का त्याग करो, रात-दिन पानी में डूबे रहो, पर्वत के मस्तक से नीचे पड़ों और मृत्यु के योग्य तथा शरीर को सुखाने वाली क्रियाएँ करो तो भी पुण्य के बिना प्राणी कृतकृत्य नहीं हो सकता ॥152॥

(यदज्ञानेन जीवेन कृतं कर्मशुभाशुभम् ।

उपवासेन तत्सर्वं दहत्यग्निरिवेन्धनम् ॥153॥

इस जीव ने अज्ञान से जो शुभ-अशुभ कर्म किये हैं उन सबको यह उपवास के द्वारा उस तरह भस्म कर देता है जिस तरह कि अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है ॥153॥

तथा चोक्तम्-


जैसा कि कहा है -

एकाग्रचित्तस्य दृढव्रत्तस्य पञ्चेन्द्रिय-प्रीतिनिवर्तकस्य ।
अध्यात्मयोगे गतमानसस्य मोक्षो ध्रुवं नित्यमहिंसकस्य ॥154॥
जिसका चित्त एकाग्र है, जो दृढ़ व्रत का धारक है, जो पञ्चेन्द्रियों की प्रीति को दूर करने वाला है, जिसका मन अध्यात्म योग में लगा हुआ है और जो निरन्तर अहिंसक रहता है उसे निश्चित ही मोक्ष प्राप्त होता है ॥154॥

ताभिरुक्तम्-हे देव! अस्माभिस्त्वया च स्वगृहमध्यस्थे सहस्रकूटचैत्यालये जागरणं कर्तव्यम् । श्रेष्ठिना भणितं-तथास्तु ततोऽनेकमङ्गलद्रव्यसंगत: श्रेठी ताश्च सहस्रकूटचैत्यालयं गतास्तत्र मङ्गलधवल-शब्दादिना भगवत: परमेश्वरस्य पूजां कृत्वा धर्मानन्दविनोदेन परस्परं स्थिता: । ततो भार्याभिर्भणितम्-भो श्रेष्ठिन्! भो दयित! भो कृपासागर ! भो प्राणवस्लभ ! तव दृढतरसम्यक्त्वं कथं जातं? तन्निरूपणीयम् । श्रेष्ठिना भणितम्-पूर्वं युष्माभिर्निरूपणीयं सम्यक्त्वकारणम् । ताभिरुक्तम्-भो श्रेष्ठिन् त्वमस्माकं पूज्य:, त्वयात: पूर्वं निरूपणीयं पश्चादस्माभिर्निरूप्यते । तथा चोक्तम्-


स्त्रियों ने कहा - हे देव! हमें और आपको अपने घर के मध्य में स्थित सहस्रकूट चैत्यालय में जागरण करना चाहिए । सेठ ने कहा - ऐसा ही हो । तदनन्तर अनेक मंगल द्रव्यों से सहित सेठ और उसकी स्त्रियाँ सहस्रकूट चैत्यालय गयीं । वहाँ मंगलमय निर्मल शब्दों आदि के द्वारा भगवान् अरहंत परमेश्वर की पूजाकर परस्पर धर्म सम्बन्धी हर्ष से विनोद करते हुए सब बैठ गये ।

तदनन्तर स्त्रियों ने कहा - हे प्रिय, हे दयासिन्धो, हे प्राणप्रिय! आपको दृढ़ सम्यग्दर्शन कैसे हुआ यह कहिये ।

सेठ ने कहा - पहले तुम सबको अपने सम्यक्त्व का कारण कहना चाहिए ।

स्त्रियों ने कहा - हे सेठजी! आप हमारे पूज्य हैं अत: आपको पहले कहना चाहिए पीछे हम निरूपण करेंगे । जैसा कि कहा है-

गुरुरग्निद्र्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरु: ।
पतिरेव गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरु: ॥155॥
द्विजों का गुरु अग्नि है वर्णों का गुरु ब्राह्मण है स्त्रियों का गुरु पति ही है अतिथि सबका गुरु है ॥155॥

अत्रान्तरेऽर्हद्दास श्रेष्ठिनो या कुन्दलता लघ्वी भार्यास्ति तथा भणितम्-हे स्वामिन्! किमर्थमेवं विधं कौमुद्युत्सवं सर्वजनानन्दजननं मुक्त्वा देवपूजातपश्चरणादिकं विधीयते युष्माभि: सकलत्रै:? श्रेष्ठिनाऽभाणि-हे भद्रे! यत्पुण्यं विधीयतेऽस्माभिस्तत्परलोकार्थमेव । व्या जल्पितम्-हे स्वामिन्! परलोकं दृष्ट्वा कोऽप्यागत:, वेह लोके केन धर्मफलं दृष्टम् । यदीह लोके परलोकाश्रितं फलं दृष्टं भवति तदा युक्तं देवपूजादिकम्, अन्यथा निरर्थकमेव तत् केवलं शरीरशोषणमेव ।

तत: श्रेष्ठिना भणितम्-हे महानुभावे परलोकफलं दूरेऽस्तु, मया यथा प्रत्यक्षं धर्मफलं दृष्टं तत् श्रृणु । व्योक्तम्-हे स्वामिन्! कथय, श्रेष्ठिना भणितम्-तथास्तु । तथा सावधानो भूत्वा तत: श्रेठी निजसम्यक्त्वप्रापणकथां कथयति । तद्यथा-इहैव नगरे उत्तरमथुरायां राजा पद्मोदयो भूत:, तस्य राज्ञी यशोमति:, व्यो: पुत्र उदितोदय: । स उदितोदय: साम्प्रतं राजाधिराजो वर्तते । अत्रैव राजमन्त्री संभिन्नमति: भार्या सुप्रभा, व्यो: पुत्र: सुबुद्धि:, सम्प्रति मन्त्रीभूत्वा वर्तते ।

अत्रैवाञ्जन-गुटिकादि-विद्या प्रसिद्धो रौप्यखुरनामा चौर: तस्य भार्या रूपखुरा व्यो: पुत्र: स्वर्णखुर: सम्प्रति चौरो वर्तते । अत्रैव राजश्रेठी जिनदत्तो, भार्या जिनमति:, व्यो: पुत्रोऽर्हद्दासोऽहं संप्रति श्रेठीभूत्वा तिष्ठामि । एतत् सर्वं चौरेण राज्ञा मन्त्रिणा च श्रुतम् । चौरेण मनस्युक्तम्-अहो मम चौरव्यापारो नित्यमस्ति, अधुनासौ किं किं निरूपयति? इति श्रूयतेऽतो निश्चलचित्तो भूत्वा श्रृणोति । राज्ञा मन्त्रिणा च भणितम्-एतत्कौतुकमावाभ्यां श्रूयते, इति कृत्वा सावधानौ स्थितौ तौ । तत: श्रेठी कथयति-भो भार्या:? दृष्टा श्रुतानुभूता या कथा मया कथ्यते तां दत्तावधानेनाकर्णयन्तु । ताभिरुक्तम्-महाप्रसाद इति । श्रेठी निरूपयति-

स प्रसिद्धो रूपखुरनामा चौरो नगरमध्ये प्रचण्डचोरिकां कुर्वन् राजादीनां दु:साध्यो जज्ञे । तं तस्करं दु:साध्यं मत्वा स्वनगररक्षार्थं तस्य वृत्तिर्विहिता । तत: स पश्यतोहरश्चौरव्यापारं मुक्त्वा सप्तव्यसनाभिभूतो द्यूतक्रीडां करोति नित्यं, राजवृत्त्यागतं द्युम्नं व्ययीकरोति । व्यसनादितो जीवो दोषजालं न पश्यति । यदुक्तम्-


इसी बीच में अर्हद्दास सेठ की जो कुन्दलता नाम की छोटी स्त्री थी उसने कहा - हे नाथ! समस्त मनुष्यों को हर्ष उत्पन्न करने वाले ऐसे कौमुदी-महोत्सव को छोड़कर आप अपनी स्त्रियों के साथ देवपूजा तथा तपश्चरण आदि किसलिए कर रहे हैं?

सेठ ने कहा - हे भद्रे! हम लोगों के द्वारा जो पुण्य किया जाता है वह परलोक के लिए ही किया जाता है । कुन्दलता ने कहा - हे स्वामिन्! परलोक को देखकर कोई आया भी है? अथवा इहलोक में धर्म का फल किसने देखा है? यदि इहलोक में परलोक से सम्बन्ध रखने वाला फल दिखायी देता तो देवपूजादि करना ठीक है अन्यथा वह सब निरर्थक और मात्र शरीर को सुखाने वाला है ।

इस प्रकार अष्टमदिन की कथा पूर्ण हुई ।

पश्चात् सेठ ने कहा - हे महानुभावे । परलोक का फल तो दूर रहे मैंने धर्म का जो फल प्रत्यक्ष देखा है उसे सुनो कुन्दलता ने कहा - हे नाथ! कहिए, सेठ ने कहा - तथास्तु । तदनन्तर सेठ सावधान होकर अपनी सम्यक्त्व प्राप्ति की कथा कहने लगा - कथा इस प्रकार है-

इसी उत्तर मथुरा नगर में राजा पद्मोदय हो गये हैं, उनकी रानी का नाम यशोमति था और उन दोनों के उदितोदय नाम का पुत्र था । वह उदितोदय इस समय राजाधिराज है । इसी नगर में संभिन्नमति नाम का राजमन्त्री था, उसकी स्त्री का नाम सुप्रभा था और दोनों के सुबुद्धि नाम का पुत्र था । वही सुबुद्धि, इस समय राजाधिराज उदितोदय का मन्त्री है ।

इसी मथुरा नगर में अंजनगुटिका आदि की विद्या में प्रसिद्ध रौप्यखुर नाम का चोर था, उसकी स्त्री का नाम रूपखुरा था और उन दोनों के स्वर्णखुर नाम का पुत्र था । वह इस समय चोर है । इसी नगर में जिनदत्त नाम का राजसेठ था, उसकी स्त्री का नाम जिनमति था और उन दोनों का मैं अर्हद्दास नाम का पुत्र हूँ, जो इस समय राजसेठ होकर रह रहा हूँ ।

यह सब चोर ने राजा ने और मंत्री ने सुना । चोर ने मन में कहा - मेरा चोर-व्यापार नित्य का है इस समय यह क्या-क्या कहता है, यह सुना जावे, इसलिए निश्चल चित्त होकर सुनने लगा ।

राजा और मन्त्री ने कहा - यह कौतुक हम दोनों अवश्य सुनें, ऐसा विचार कर दोनों सावधान होकर स्थित हो गये । तत्पश्चात् सेठ कहता है-हे प्रियाओ देखी, सुनी और अनुभूत कथा मैं कह रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सावधानी से सुनो ।

स्त्रियों ने कहा - यह आपका महाप्रसाद है ।

सेठ कहता है -

वह रूपखुर नामक प्रसिद्ध चोर नगर में भारी चोरी करता हुआ राजा आदि को दु:साध्य हो गया । उसको दु:साध्य मान कर अपने नगर की रक्षा के लिए उसे वृत्ति बाँध दी । तदनन्तर वह चोर, चोर का कार्य छोड़कर सप्त व्यसनों में आसक्त होकर नित्य ही जुआ खेलने लगा । राजा की ओर से मिलने वाली वृत्ति से जो धन आता था उसे वह जुआ में खर्च कर देता था । ठीक ही है व्यसनों से पीडि़त जीव दोष समूह को नहीं देखता है । जैसा कि कहा है -

द्यूतं च मासं च सुरा च वेश्या, पापर्धिचौर्यं परदारसेवा ।
एतानि सप्तव्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥156॥
जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्रीसेवन लोक में ये सात व्यसन कहलाते हैं, ये व्यसन जीव को अत्यन्त भयंकर नरक में ले जाते हैं ॥156॥

सप्तव्यसनदूषणानि कथ्यन्ते क्रमेण-द्यूतम्-


अब क्रम से सात व्यसनों के दोष कहे जाते हैं-सर्वप्रथम जुआ के दोष देखिये -

द्यूते दश प्रणश्यन्ति धर्म: श्री: सुमति: सुखम् ।
सत्यं शौचं प्रतिष्ठा च निठा विश्वाससद्गता ॥157॥
जुआ में, 1. धर्म, 2. लक्ष्मी, 3. सुबुद्धि, 4. सुख, 5. सत्य, 6. शौच, 7. प्रतिष्ठा, 8. श्रद्धा, 9. विश्वास और 10. सद्गति ये दस बातें नष्ट हो जाती हैं ॥157॥

विषाद: कलहो रारि: कोपो मानो मतिभ्रम: ।
पैशून्यं मत्सर: शोको दश द्यूतस्य बान्धवा: ॥158॥
विषाद, कलह, झगड़ा, क्रोध, मान, बुद्धिभ्रम, चुगली, मत्सर और शोक ये दश जुआ के भाई हैं-सहायक हैं ॥158॥

कुले कलङ्कोऽपयश: पृथिव्यां, मनोऽनुताप: स्वमहत्त्व-नाश: ।
जन्मन्यमुस्मिन्न परत्र सौख्यं, द्यूताच्चतुर्वर्गविनाश एव ॥159॥
जुआ से कुल में कलंक लगता है, पृथ्वी पर अपयश फैलता है, मन में पश्चाताप होता है, अपने महत्त्व-बड़प्पन का नाश होता है, न इस जन्म में सुख होता है और न पर जन्म में सुख मिलता है । यथार्थ में उससे चतुवर्ग-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विनाश ही होता है ॥159॥

परोपकाराय न कीर्तये न, न प्रीव्ये नो स्वहिताय लक्ष्मी: ।
सुखाय न स्वस्य न बान्धवानां, द्यूताद् गता केवलं पातकाय ॥160॥
जुआरी की लक्ष्मी न परोपकार के लिए होती है, न कीर्ति के लिए होती है, न प्रीति के लिए होती है, न अपने हित के लिए होती है, न अपने सुख के लिए होती है और न भाई-बान्धवों के सुख के लिए होती है । जुआ से गयी हुई लक्ष्मी केवल पाप के लिए होती है ॥160॥

कौपीनं वसनं कदन्नमशनं शय्या धरा पांसुला
जल्पोऽश्लीलगिर: कुटुम्ब कुजनो वेश्या सहाया विटा: ।
व्यापारा: परवञ्चनानि सुहृदश्चोरा महान्तो द्विष:
प्राय: सैष दुरोदर-व्यसनिन: संसारवासक्रम: ॥161॥
जुआरी मनुष्य का लंगोट ही वस्त्र होता है, खराब अन्न भोजन होता है, धूलि-धूसरित पृथ्वी ही शय्या होती है, भद्दा वचन ही वार्तालाप होता है, वेश्या कुटुम्ब के खोटे जन हैं, विट सहायक है, दूसरों को धोखा देना व्यापार है, चोर मित्र है और बड़े पुरुष शत्रु हैं, जुआ व्यसन में आसक्त मनुष्य का प्राय: यही संसारवास का क्रम है । भावार्थ-जुआरी सदा दुखी रहता है ॥161॥

अब मांस व्यसन के दोष देखिए-

सद्य: संमूचि्र्छतानामन्तु जन्तुसंतानदूषितम् ।
नरकाध्वनि पाथेयं कोऽश्नीयात् पिशितं सुधी: ॥162॥
स्थावरा जङ्गमाश्चैव प्राणिनो द्विविधा: स्मृता: ।
जङ्गमेषु भवेन्मांसं फलं च स्थावरं स्मृतम् ॥163॥
जीवत्वेनेह तुल्या वै यद्येते च भवन्ति तु ।
स्त्रीत्वे सति यथा माता अभक्ष्यं जङ्गमं तथा ॥164॥
सर्वशुक्रं भवेद्ब्रह्मा विष्णुर्मांसं प्रवर्तते ।
ईश्वरश्चास्थिसंघातस्तस्मान्मांसं न भक्षयेत् ॥165॥
मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् ।
यद्वन्निम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्ब: ॥166॥
जो शीघ्र ही उत्पन्न होने वाले सम्मूर्च्छन जीवों की संतति से दूषित है तथा नरक के मार्ग का संबल है, ऐसे मांस को कौन खावेगा? ॥162॥

स्थावर और त्रस के भेद से प्राणी दो प्रकार के माने गये हैं, उनमें से त्रस जीवों में मांस होता है और फल स्थावर कहलाते हैं ॥163॥

यद्यपि त्रस और स्थावर जीवत्व सामान्य की अपेक्षा निश्चय से समान होंते हैं तथापि त्रस अभक्ष्य ही रहते हैं । जैसे माता और स्त्री दोनों स्त्रीत्व सामान्य से यद्यपि तुल्य हैं तथापि माता स्त्री के समान सेवनीय नहीं हैं ॥164॥

त्रस के शरीर में जो समस्त वीर्य है वह ब्रह्मा है, मांस विष्णु है और अस्थियों-हड्डियों का समूह ईश्वर है इसलिए ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूप त्रस का मांस कैसे खाया जा सकता है? ॥165॥

जीव का शरीर मांस है परन्तु जीव का शरीर मांसरूप नहीं है-त्रस जीव का शरीर तो मांस रूप ही है परन्तु स्थावर जीवों का शरीर मांसरूप नहीं है, जैसे नीम वृक्ष तो है परन्तु वृक्ष नीम ही हो यह नियम नहीं है ॥166॥

मद्यम्-


वैरूप्यं व्याधिपीडा स्वजनपरिभव: कार्यकालातिपातो-
विद्वेषो ज्ञाननाश: स्मृतिमतिहरणे विप्रयोगश्च सद्भि:
पारुष्यं नीचसेवा कुलगिरि-चलना, धर्मकामार्थहानि:
कष्टं भो षोडशैते निरूपचयकरा मद्यपानस्य दोषा: ॥167॥
लज्जा-द्रव्यहरं कुलस्य निधनं चित्तस्य संतापनं-
नीचैर्नीचभरं प्रमाद-जननं शीलस्य विध्वंसनम् ।
शिल्पज्ञानविनाशनं स्मृतिहरं शौचस्य निर्नाशनम्॥
मद्यं दोष-सहस्रमार्गकुटिलं केनापि मद्यं पिबेत् ॥168॥
दोषाणां प्रमुखं ह्यधर्मजननं लज्जास्मृतिध्वंसनम्
अर्थस्यापि विनाशि विह्वलकरं मूर्खै: सदासेवितम् ।
यं पीत्वा परदारचौर्यगमनं हिंसानृतं जल्पनं
आयान्ति स्वयमेव दोषनिचया मा कोऽपि मद्यं पिबेत् ॥169॥
चिन्तावर्धनमङ्गदुर्बलकरं विघ्नादयोत्पादनं-
स्नेहच्छेदनमर्थनाशनमतिक्लेशावहं निर्गुणम् ।
ते धन्या धरणीतले, प्रतिदिनं ते वन्दनीया नरा:
यैरेतैर्वधबन्ध-दोंष-बहुलं मद्यं सदा वर्जितम् ॥170॥
अब मदिरा व्यसन के दोष देखिये-

विरूपता, बीमारी, पीड़ा, आत्मीयजनों के द्वारा तिरस्कार, कार्य के समय का उल्लंघन, द्वेष, ज्ञाननाश, स्मृतिहरण, बुद्धिहरण, सत्पुरुषों के साथ वियोग, कठोरता नीचों का सेवन, कुचालकों का विचलित होना, धर्म, अर्थ और मोक्ष का विनाश ये सोलह मदिरा-पान के दोष हैं ॥167॥

मद्य, लज्जा, रूप, धन को हरने वाला है, कुल का अंत करने वाला है, चित्त को संताप देने वाला है, अत्यन्त नीच जनों को प्रसन्न करने वाला है, प्रमाद को उत्पन्न करने वाला है, शील का विध्वंस करने वाला है, शिल्पज्ञान का विनाशक है, स्मृति को हरने वाला है और पवित्रता का सर्वथा नाश करने वाला है । इस प्रकार दोषों के हजारों मार्ग से कुटिल है, फिर किस कारण मद्य को पीना चाहिए? अर्थात् किसी कारण नहीं पीना चाहिए ॥168॥

मद्य सब दोषों में प्रमुख है, अधर्म को उत्पन्न करने वाला है, लज्जा और स्मृति का विध्वंस करने वाला है, धन का भी नाश करने वाला है, विह्वल बनाने वाला है, मूर्ख मनुष्य ही सदा जिसका सेवन करते है, जिसे पीकर परस्त्री सेवन और चोरी करने के लिए गमन होता है, हिंसा, झूठ और व्यर्थ का बकवाद आदि दोषों के समूह स्वयं आ जाते हैं, उस मदिरा को कोई भी न पीवें ॥169॥

मद्य चिन्ता को बढ़ाने वाला है, शरीर को दुर्बल करने वाला है, विघ्न और अदयाक्रूरता को उत्पन्न करने वाला है, स्नेह को छेदने वाला है, अर्थ का नाश करने वाला है, अत्यधिक क्लेश को प्राप्त करने वाला है और गुणों से रहित है । पृथ्वीतल पर वे मनुष्य "धन्य" हैं और वे ही प्रतिदिन वन्दनीय हैं जिन्होंने वध-बन्धनरूप दोषों से भरे हुए मद्य का सदा के लिए त्याग कर दिया ॥170॥

वेश्या-


नट-विट-भटभुक्तां सत्यशौचादिमुक्तां
कपटशतनिधानं शिष्टनिन्दा-निदानम् ।
परिभवपदमेकं क: पणस्त्रीं भजेत
धननिधन-विधानं सद्गुणानां पिधानम् ॥171॥
रजकशिलासदृशीभि: कुक्कुरकर्प्पर-समानचरिताभि: ।
गणिकाभिर्यदि सङ्ग: कृतमिह परलोकवार्ताभि: ॥172॥
अब वेश्या व्यसन के दोष कहते हैं-

जो नट-विट और सैनिक-जनों के द्वारा भोगी गयी है, सत्य, शौच आदि गुणों से जो रहित है, सैकड़ों कपटों का भण्डार है, शिष्टजनों की निन्दा का प्रमुख कारण है, अनादर का अद्वितीय स्थान है, धन की समाप्ति करने वाली है और सद्गुणों को छिपाने वाली है ऐसी वेश्या का सेवन कौन करेगा? अर्थात् कोई नहीं ॥171॥

धोबी की शिला के समान अथवा कुत्ते के कर्प्पर के समान चरित्र वाली वेश्याओं के साथ यदि संगम है तो संसार में परलोक की वार्ता करना व्यर्थ है ॥172॥

आखेटकम्-


अब शिकार व्यसन के दोष कहते हैं -

नरके च महाघोरे वारं-वारं च पीडघते ।
बहु दु:खान्यवाप्नोति पापद्ध्र्यासक्तिमान्नर: ॥173॥
यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भारत ।
तावद्वर्षसहस्राणि पच्यन्ते पशुघातका: ॥174॥ मनुस्मृति॥
शिकार में आसक्ति रखने वाला मनुष्य महाभयंकर नरक में बार-बार पीडि़त होता है और बहुत दु:खों को प्राप्त करता है ॥173॥

हे पाण्डव! पशुओं के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने हजार वर्ष तक पशुओं का घात करने वाले मनुष्य पकाये जाते हैं ॥174॥

चौर्यम्-


अब चोरी के दोष कहते हैं -

चौर्यपापद्रुमस्येह वध-बन्धादिकं फलम् ।
जायते परलोके तु फलं नरकवेदना ॥173॥
चोरीरूप पाप वृक्ष के फल इहलोक में वध-बन्धन आदि होते हैं और परलोक में नरक की वेदना प्राप्त होती है ॥173॥

परस्त्री-


अब परस्त्री सेवन के दोष कहते हैं -

आत्मा दुर्नरके धनं नरपतौ प्राणास्तुलायां कुलं
वाच्यत्वे हृदि दीनता त्रिभुवने तेनायश: स्थापितम् ।
येनेदं बहुदु:खदायि सुहृदां हास्यं खलानां प्रियं
शोच्यं साधुजनस्य निन्दितपरस्त्रीसङ्गसेवासुखम् ॥176॥
दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोत्रे मषीकूर्चक-
श्चारित्रस्य जलाञ्जलिर्गुणगणग्रामस्य दावानल: ।
संकेतस्सकलापदां शिवपुर-द्वारे कपाटो दृढ:
कामार्तेन नरेण येन कुधिया भुक्त: परस्त्रीगण: ॥177॥
जो बहुत दु:खों को देने वाला है, मित्रों के बीच हँसी कराने वाला है, दुर्जनों को प्रिय है और सज्जन पुरुषों के लिए शोचनीय है, ऐसी निन्दित परस्त्री समागम का सुख जिसने प्राप्त किया है उसने अपनी आत्मा को दु:खदायक नरक में, धन को राजा में, प्राण तराजू पर, कुल निन्दा में, दीनता हृदय में और अपकीर्ति तीनों लोकों में स्थापित की है ॥176॥

काम से पीडि़त जिस दुर्बुद्धि मनुष्य ने परस्त्री समूह का उपभोग किया है, उसने संसार में अपनी अकीर्ति की भेरी दी है, गोत्र पर स्याही का ब्रुश फमरा है, चारित्र को जलांजलि दी है, गुणसमूहरूपी ग्राम में दावानल लगाया है, समस्त आपत्तियों के लिए संकेत दिया है और मोक्ष नगर के द्वार पर मजबूत किवाड़ लगाया है ॥177॥

स सप्तव्यसनी भूत्वैकस्मिन् दिने द्यूतक्रीडां कृत्वा जितं द्रव्यं याचकानां दत्वा क्षुधाक्रान्तो निजगृहं प्रति प्रहरद्वये भोजनार्थं चलित: । राजमन्दिर-समीपतो गच्छता चौरेण सरसरसवत्या: सुगन्धपरिमलं नासिकायामाघ्राय मनसि चिन्तितम्-अहो नानारसयुक्तस्य भक्तस्य कीदृगामोद: स्फुरति? ममाञ्जनसिद्धविद्यया किमपि गहनं नास्ति । इदृग्विधा रसवती अञ्जनबलेन किमर्थं न भुज्यते? इत्येवं मनसि विचार्य नयनयोरञ्जनं चटाप्य राजमन्दिरं प्रविश्य च राज्ञा सह एकस्मिन् स्थाले भोजनं कृत्वागत: । एवं प्रतिदिनं रसालं राज्ञा सह भोजनं करोति तस्कर: तृप्तिं प्राप्त: स्वस्थानं गच्छति । एवं क्रमेण बहुदिने गते स राजा दुर्बलो जात: एकदा संभिन्नमतिमन्त्रिणा राजशरीरं दुर्बलं दृष्ट्वा । विमृशितं किमस्यान्नं नास्ति, अन्यथा कथं दुर्बलो भवतीति । तस्य रसगृद्ध्यभिधान व्यसनं सर्वव्यसनमध्यादाधिक्यं जातम् । तथा चोक्तम्-


वह चोर सप्त व्यसनों से युक्त होकर एक दिन जुआ खेलकर तथा जीता हुआ धन याचकों को देकर भूख से युक्त हो दोपहर के समय भोजन करने के लिए अपने घर की ओर चला । राजमहल के पास से जाते हुए उस चोर ने सरस रसवती (जलेबी) की दूर तक फैलने वाली सुगन्ध नाक से सूँघकर मन में विचार किया-अहो! नानारसों से युक्त भोजन की कैसी गन्ध फैल रही है?

अंजनसिद्ध विद्या के द्वारा मुझे कुछ भी कठिन नहीं है । अंजन के बल से ऐसी रसवती क्यों न खायी जावे? ऐसा मन में विचार कर, नेत्रों में अंजन चढ़ा कर वह राजमहल में घुस गया और राजा के साथ एक थाली में भोजन कर आ गया । इस प्रकार वह चोर प्रतिदिन राजा के साथ रसीला भोजन करता और तृप्ति को प्राप्त कर अपने स्थान पर चला जाता ।

इस प्रकार क्रम से बहुत दिन व्यतीत होने पर वह राजा दुर्बल हो गया । एक दिन संभिन्नमति मन्त्री ने राजा का शरीर दुर्बल देखकर विचार किया कि क्या इनके पास अन्न नहीं है? अन्यथा दुर्बल क्यों होंगे? उसका रसगृद्धि नाम का व्यसन सब व्यसनों के मध्य अधिक हो गया । जैसा कि कहा है -

अन्नेन गात्रं नयनेन वक्त्रं न्यायेन राज्यं लवणेन भोज्यम् ।
धर्मेण हीनं वत जीवितव्यं न राजते चन्द्रमसा निशीथम् ॥178॥
जिस प्रकार अन्न से रहित शरीर, नेत्र से रहित मुख, न्याय से रहित राज्य, नमक से रहित भोजन और चन्द्रमा से रहित रात्रि सुशोभित नहीं होती, उसी प्रकार धर्म से रहित जीवन सुशोभित नहीं होता ॥178॥

अक्खाणं रसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभवयं ।
गुत्तीण य मणगुत्ती चउरो दुक्खेण जीयंति ॥179॥
इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय कर्मों में मोहनीय कर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत और गुप्तियों से मनोगुप्ति ये चारों बड़ी कठिनाई से जीते जाते हैं ॥179॥

वैरं वैश्वानर-व्याधि-वाद-व्यसनलक्षणा: ।
महानर्थाय जायन्ते वकारा: पञ्च वर्जिता: ॥180॥
वैर, वैश्नावर (अग्नि), व्याधि (बीमारी), वाद (वाचनिक संघर्ष) और व्यसन (जुआ आदि) ये पाँच वकार महान् अनर्थ के लिए हैं इसीलिए इन्हें वर्जित किया है ॥180॥

मन्त्रिणा विमृशितम्-किमन्नेऽरुचिर्जातास्ति येन राजा दुर्बलो भवति । ततो मन्त्रिणा राजा पृष्ट:- हे स्वामिन् । तव शरीरे दौर्बल्यं जातं, तत्कारणं कथय, यदि कापि चिन्ता विद्यते तर्हि सापि निरूपणीया यया कृशत्व-माकलमाकलयति यदुक्तम्-


मंत्री ने विचार किया-क्या अन्न में अरुचि हों गयी है, जिससे राजा दुर्बल होता जा रहा है । पश्चात् मंत्री ने राजा से पूछा-हे स्वामिन्! आपके शरीर में दुर्बलता हुई है? उसका कारण कहिए - यदि कोई चिन्ता है तों बतलाइए । जिसके द्वारा आप प्रति समय दुर्बलता को प्राप्त हों रहे हैं । जैसा कि कहा है -

चिन्ता दहति शरीरं शरीरस्था सदापि हि ।
रुधिरामिषौ ग्रसति नित्य दुष्टा पिशाचीव ॥181॥
शरीर में रहने वाली चिन्ता सदा शरीर को जलाती रहती है, वह दुष्ट पिशाची के समान नित्य ही रक्त और मांस को ग्रसती रहती है ॥181॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

बिन्दुनाप्यधिकं मन्ये चिताया इति मे मति: ।
चिता दहति निर्जीवं चिन्ता जीवितमप्यहो ॥182॥
मैं चिता से चिंता में एक बिन्दु ही अधिक मानता हूँ वैसे चिता निर्जीव को जलाती है और चिंता जीवित को भी जलाती है ॥182॥

वा कश्चिद् देवतादीनां दोषोऽस्ति, काश्र्यं येन भजति । ततो मन्त्रिणा (राजपार्श्वे गत्वा) पृष्टम् हे स्वामिन्! तव कायो निरपाय आधि-व्याधिपीडितो वा येन प्रतिदिनं दुर्बलत्वं भजते । अथान्यचिन्तादिकमस्ति यद्यकथ्यं न तर्हि प्रसद्य निवेद्यताम् । तत: नरपतिनाभाणि भो मन्त्रिन् तव ममानन्यशरीरस्य किमकथ्यं चिन्तादिकं किमपि नास्ति परं कौतुककारकं वच: श्रूयताम् । अहं प्रतिदिवसं द्विगुणं त्रिगुणं भोजनं करोमि परं शुन्न शाम्यति, जठरं तृप्तिं न भजते, एतन्नर्मकारि कस्याप्यग्रे कथयितुं न शक्यते, परमेतज्जानामि कोऽप्यञ्जनसिद्धो मया सह नित्यं भुङ्क्ते तेन कारणेनोदराग्निर्न शाम्यति ।

एतद्वचनं श्रुत्वा मन्त्री चेतसि चिन्व्यति-अञ्जनसिद्ध: कोऽपि राज्ञा सह भोजनं करोति तेन कारणेन राजा दुर्बलो जात: । एवं ज्ञात्वा मन्त्रिणोपायो रचित: । तन्निमित्तं प्रथमदिनभोजनकाले रसवतीसमीपे सर्वत्र शुष्कार्ककुसुमान्यानय्य क्षिप्तानि, स्वयं प्रच्छन्नवृत्या स्थित: चतु:कोणेषु रौद्रधूपधूमपर्रिपूर्णा मुखबद्धा:-घटा निक्षिप्ता । एकत्र मन्त्रवादिनो निक्षिप्य आचतुर्दिक्षु सायुधभटा निक्षिप्ता: एकत्र प्रछन्न पुरुषमल्लाश्च निक्षिप्ता: । अस्मिन् प्रस्तावे स तस्कर: पूर्ववददृष्ट: समायात: । शुष्कार्ककुसुमोपरि चरणपातेन तानि चूर्णभूतानि दृष्ट्वा मन्त्रिणा चिन्तितम्, अहो! अयं कोऽप्यञ्जनसिद्धो मनुष्यो न तु देव विद्याधर:, अद्य तावदस्तु, कल्पे बुद्धि-बलेन प्रतीकारमस्य करिष्ये । इति निश्चय द्वितीयदिवसे तथैव क्षिप्तानि शुष्कसूर्यकुसुमानि । एवं कृत्वा यावत्तिष्ठति तावत् स चौर: समागत: भोजनगृहे प्रविष्टश्च । अर्ककलिकोपारि पाद संघटन-संचूर्यमाणध्वनिना चौरं समागतं ज्ञात्वा द्वारे गाढतरामर्गलां दत्त्वा तीव्रघूम-परिपूर्ण-घटमुखबद्ध-वस्त्राणि स्फोटितानि, ततो धूम व्याकुललोचनाश्रुपातेन नयनस्थमञ्जनं गतम् । ततो भटै: स प्रत्यक्षो दृष्ट: । बद्ध्वा राज्ञाग्रे नीत: । एतस्मिन् प्रस्तावे चोरेण मनस्युक्तम्-अहो भोजनं गृहं च द्वयमपि विधिवशाद् गतम् ।


अथवा किसी देवता आदि का दोष है, जिससे दुर्बलता हों रही है । तदनन्तर मंत्री ने राजा के पास जाकर पूछा - हे नाथ! आपका शरीर नीरोंग है या शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा से पीडि़त है, जिससे प्रतिदिन दुर्बलता को प्राप्त हों रहा है? अथवा अन्य कोई चिन्ता आदि है ? यदि अकथनीय नहीं है तों प्रसन्न होकर बताइए ।

पश्चात् राजा ने कहा - हे मंत्रिन्! आप तों मेरे अभिन्न शरीर हैं अत: आपसे अकथनीय क्या हों सकता है ? चिन्ता आदिक भी कुछ नहीं है परन्तु कौतुक उत्पन्न करने वाली एक बात सुनों । मैं प्रतिदिन दुगुना और तिगुना भोजन करता हूँ परन्तु क्षुधा शान्त नहीं होती है । उदय तृप्ति को प्राप्त नहीं होता है यह हँसी की बात किसी के आगे कही भी नहीं जा सकती । परन्तु यह जानता हूँ कि अंजन सिद्ध मनुष्य मेरे साथ नित्य भोजन करता है, इस कारण उदराग्नि शान्त नहीं होती है ।

यह वचन सुन मंत्री मन में विचार करता है कि कोई अंजन सिद्ध मनुष्य राजा के साथ भोजन करता है इस कारण राजा दुर्बल हों गया है । ऐसा जानकर मंत्री ने उपाय किया उसके निमित्त मंत्री ने प्रथम दिन भोजन के समय रसवती के समीप सब ओर आक के सूखे फूल लाकर डाल दिये और स्वयं छिप कर खड़ा हों गया । चारों कोनों में भयंकर धूप के धूम्र से परिपूर्ण घट मुख बाँधकर रख दिये । एक ओर मंत्रवादियों को बैठाकर चारों दिशाओं में हथियार बंद सैनिक बैठा दिये और एक स्थान पर छिपा कर पहलवान पुरुष बैठा दिये ।

इसी अवसर पर वह चोर पहले की तरह छिपे रूप से आया । आक के सूखे फूलों पर पैर पड़ने से वे चूर-चूर हों गये, उन्हें देख मंत्री महोंदय ने विचार किया-अहों! यह तों कोई अंजन सिद्ध मनुष्य है न कि देव या विद्याधर । आज रहने दिया जाये प्रात:काल बुद्धिबल से इसका प्रतिकार करँगा । ऐसा निश्चय कर दूसरे दिन भी पहले के समान आकके सूखे फूल बिखेर दिये । ऐसा कर चुकने के बाद ज्योंही वह चोर आकर भोजन ग्रह में प्रविष्ट हुआ त्योंही आक के फूलों के ऊपर पैर पड़ने से उनके चूर-चूर होने का शब्द हुआ । उस शब्द से जान लिया गया कि चोर आ चुका है ।

तदनन्तर द्वार पर अत्यन्त दृढ़ आगल देकर अत्यधिक धूम से परिपूर्ण घड़ों के मुख पर बंधे हुए वस्त्र निकाल दिये ।

तदनन्तर धूम से व्याकुल नेत्रों से अश्रुपात हुआ और उसके कारण चोर के नेत्रों में लगा हुआ अंजन निकल गया । अंजन के निकलते ही सैनिकों ने उसे प्रत्यक्ष देख लिया और बाँधकर राजा के आगे उपस्थित कर दिया । इस अवसर पर चोर ने मन में कहा - अहो! भाग्य के वश से भोजन और घर दोनों ही गये?

शमेन नीतिर्विनयेन विद्या, शौचेन कीर्तिस्तपसा सपर्या ।
विना नरत्वेन न धर्म-सिद्धि:, प्रजायते जातु जनस्य पन्था: ॥183॥
शान्ति के बिना नीति नहीं होती, विनय के बिना विद्या नहीं होती । शौच-निर्लोभ दशा के बिना कीर्ति नहीं होती, तप के बिना पूजा नहीं होती और मनुष्य पर्याय के बिना कभी धर्म की सिद्धि नहीं होती । यह मनुष्य का मार्ग है ॥183॥

अयं कर्मविपाको मध्ये समागमिष्यतीति मम भोजनं गृहं च द्वयमपि गतम् । तथा चोक्तम्-


यह कर्म का उदय बीच में आ गया इसलिए मेरा भोजन और घर दोनों गये । जैसा कि कहा है-

निदाघे दाघार्तस्तरलतर तृष्णा तरलित:
सर: पूर्णं दृष्ट्वा त्वरितमुपयात: करिवर: ।
तथा पङ्के मग्नस्तटनिकटवर्तिन्यपि यथा
न नीरं नो तीरं द्वयमपि विनष्टं विधिवशात् ॥184॥
ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से पीडि़त और बहुत भारी तृषा से चंचल गजराज जल से भरे हुए सरोवर को देखकर शीघ्रता से समीप आया परन्तु तट के निकटवर्ती कीचड़ में उस प्रकार फँस गया कि न तो पानी ही पा सका और न तट ही । भाग्यवश दोनों ही नष्ट हो गये ॥184॥

पुनरपि चौरेण मनसि भणितम्-ममान्यच्चिन्तितं विधिनान्यथा कृतम् । तथा चोक्तम्-


फिर भी चोर ने मन में कहा - मैंने विचार कुछ अन्य किया था, परन्तु भाग्य ने उसे अन्यथा कर दिया । जैसा कि कहा है -

अन्यथा चिन्तितं कार्य दैवेन कृतमन्यथा ।
राजकन्याप्रसादेन भिक्षुको व्याघ्रभक्षित: ॥185॥
अन्य प्रकार से विचारा हुआ कार्य भाग्य के द्वारा अन्यथा कर दिया गया, जैसे राजकन्या के प्रसाद से भिक्षुक व्याघ्र के द्वारा खा लिया गया ॥185॥

अघटितघटितान् घटयति, सुघटितघटितान् जर्जरी कुरुते ।
विधिरेष तानि घटयति, यानि पुमान्नैव चिन्व्यति ॥186॥
यह दैव अघटित कार्यों को घटित-सिद्ध कर देता है और सुघटित-सुसिद्ध कार्यों को जर्जर कर देता है-विघटित कर देता है । यह दैव उन कार्यों को भी घटित कर देता है, जिसका मनुष्य विचार भी नहीं करता है ॥186॥

पुनश्च-


और कहा है -

अन्यथा चिन्तितं कार्यं दैवात्संपद्यतेऽन्यथा ।
यथा वारिजमध्यस्थ : षट्पद: करिणा हत: ॥187॥
अन्य प्रकार से चिन्तित कार्य भाग्यवश अन्य प्रकार का हो जाता है, जैसे कमल के भीतर स्थित भौंरा हाथी के द्वारा मारा गया ॥187॥

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्री: ।
एवं विचिन्व्यति कोष-गते द्विरेफे
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्ज्हार ॥188॥
रात बीतेगी प्रभात होगी सूर्य उगेगा और कमल की शोभा विकसित होगी, ऐसा कमल के भीतर बंद भौंरा विचार करता रहा परन्तु अत्यन्त खेद है कि हाथी ने कमलिनी को उखाड़ कर चबा लिया ॥188॥

अथवा, किमर्थं कातरत्वमङ्गीक्रियते, यदुपार्जितं तद्भविष्यति । यदुक्तम्-


अथवा कातरता-भय क्यों स्वीकृत किया जाये? क्योंकि जो उपार्जन किया है वह अवश्य होगा । जैसा कि कहा है-

उदयति यदि भानु: पश्चिमायां दिशायां
विकसति यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायाम् ।
प्रचलति यदि मेरु: शान्ततां याति द्धद्यह्नि-
स्तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा ॥189॥
भवितव्यं भवत्येव नारिकेलफलाम्बुवत् ।
गन्तव्यं गमयत्येव गजभुक्तकपित्थवत् ॥190॥
यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उदित हो जाये, यदि कमल पर्वत के अग्रभाग सम्बन्धी शिला पर विकसित हो जाये, यदि मेरुपर्वत चंचल हो उठे और अग्नि शान्तता-शीतलता को प्राप्त हो जाये तो हो जाये परन्तु होनहार कर्म रेखा टलती नहीं ॥189॥

जिस प्रकार नारियल के भीतर पानी होकर रहता है उसी प्रकार होनहार होकर रहती है और जिस प्रकार गज के द्वारा कैथ का सार निकल जाता है उसी प्रकार जाने वाली वस्तु निकल जाती है ॥190॥

राज्ञोक्तम्-अहो भो सुभटा:! एनं तस्करं शूलोपरि स्थापयन्तु । ततो राजादेशं प्राप्य ते भटास्तं चौरं यष्टिमुष्ट्यादिभि: प्रपीड्य रासभे चटाप्य शूलिकोन्मुखाश्चेलु: । मार्गे राजकिङ्करैर्बहुधा विडम्ब्यमानं तं, पश्यतोहरं दृष्ट्वा लोकै: परस्परं भणितम्-इन्द्रियविषयासक्त: को न नश्यति? उक्तञ्च-


राजा ने कहा - अहो! हे सुभटो! इस चोर को शूली पर चढ़ा दो । तदनन्तर राजा की आज्ञा पाकर वे सुभट उस चोर को लाठी तथा मुक्के आदि से पीटकर तथा गधे पर चढ़ाकर शूली की ओर ले चले । मार्ग में राजा के किंकरों के द्वारा अनेक प्रकार से विडम्बना को प्राप्त हुए उस चोर को देखकर लोग परस्पर में कह रहे थे-इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हुआ कौन मनुष्य नष्ट नहीं होता? जैसा कि कहा है -

कुरङ्ग - मातङ्ग - पतङ्ग - भृङ्गमीना हता: पञ्चभिरेव पञ्च ।
एक: प्रमादी स कथं न हन्यते य: सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ॥191॥
हरिण, हाथी, शलभ, भ्रमर और मछली ये पाँच स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों में से एक-एक इंद्रिय के द्वारा प्रमादी होकर नष्ट हुए हैं, फिर जो पाँचों इन्द्रियों के द्वारा पाँचों विषयों का सेवन करता है, वह क्यों न नष्ट हो? अवश्य ही नष्ट होता है ॥191॥

तथा च-


और भी कहा है -

सुवर्णमेकं ग्राममेकं भूमेरप्येकमङ्ग्वलम् ।
हरन्नरकमाप्नोति यावदाभूमि-संप्लव: ॥192॥
जो एक सुवर्ण एक ग्राम अथवा पृथ्वी का एक अंगुल भी बिना दिये हरण करता है, वह जब तक पृथ्वी का नाश नहीं होता-प्रलय नहीं पड़ता तब तक नरक को प्राप्त होता है ॥192॥

अत्रावसरे कश्चित्परस्परं भणितम्-अहो एक व्यसनाभिभूतौ मनुष्यो नियमेन म्रियते किं पुन: सप्त-व्यसनाभिभूत:? तथा चोक्तम्-


इसी अवसर पर किन्हीं लोगों ने परस्पर कहा कि-जब एक व्यसन से दबा हुआ मनुष्य नियम से मृत्यु को प्राप्त होता है, तब जो सातों व्यसनों से दबा हुआ है उसका क्या कहना है? जैसा कि कहा है-

द्यूताद्धर्मसुत: पलादिह वको मद्याद्यदोर्नन्दना-
श्चारु: कामिव्या मृगान्तकव्या स ब्रह्मदत्तो नृप: ।
चौर्यत्वाच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाद्दशास्यो हठा-
देकैकव्यसनोद्धता इति जना सर्वैर्न को नश्यति ॥193॥
जुआ से युधिठिर, मांससेवन से बक राजा, मदिरा से यदुपुत्र, वेश्या-सेवन से चारुदत्त, शिकार से ब्रह्मदत्त राजा, चोरी से शिवभूति पुरोहित और पर-स्त्री के दोष से रावण; इस प्रकार हठपूर्वक एक-एक व्यसन का सेवन करने वाले लोग नष्ट हुए हैं, फिर जो सभी विषयों से नष्ट हो रहा है वह क्या नष्ट नहीं होगा? अवश्य ही नष्ट होगा ॥193॥

ततश्चौरो नगरमध्ये भ्रामयित्वा राजादेशेन शूलोंपरि निक्षिप्त: । राज्ञा चतुर्दिक्षु प्रच्छन्न वृत्त्या किङ्करा धृता: पुनराजादेशेन प्रच्छन्नवृत्त्या विलोकयन्त्येवं-क: पुमाननेन सह वार्तां करोति, य एनं वार्तयिष्यति स राजद्रोही राज्ञा निग्राह्य:, तस्य पार्श्वे चौर्यद्रव्यं शोधनीयमिति परस्परं प्रवदन्ति स्थिता: । अस्मिन् प्रस्तावे जिनदासश्रेठी मां गृहीत्वा वनस्थचैत्यसाधुवन्दनां कृत्वा तस्मिन्मार्गे समागतो यत्र चौर: शूलिकोपरि चटापित: । अर्हद्दासेन पितरं प्रत्यभाणि-भो तात! किमेतत्? पित्रा निगदित: चौरोऽयम् । पुत्रेण प्रोक्तम्-कथमेतेनेदं प्राप्तम् पित्रोक्तम्-भो सुत! पूर्वं यदुपार्जितं तत् कथमुदयं विहाय गच्छति? अथवा पुत्रपौत्रादिषु सत्स्वपि पूर्वं कृतं शुभाशुभं कर्म तत्कर्तारमेवाटीकते । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर वह चोर नगर के बीच घुमाकर राजा की आज्ञा से शूली पर चढ़ा दिया गया । राजा ने चारों दिशाओं में प्रच्छन्न रूप से अपने किंकर रख छोड़े थे । वे किंकर राजा की आज्ञा से गुप्त-रूप में यह देखते थे कि कौन पुरुष इस चोर के साथ बात करता है । जो पुरुष इससे बात करेगा वह राजद्रोही तथा दण्ड के योग्य होगा । उसके पास चोरी के द्रव्य की तलाशी ली जायेगी ऐसा लोग कह रहे थे । इसी अवसर पर जिनदास सेठ मुझ अर्हद्दास को साथ लेकर वन में स्थित प्रतिमाओं तथा साधुओं की वन्दना कर उसी मार्ग से निकले जिस मार्ग में चोर शूली पर चढ़ाया गया था ।

अर्हद्दास ने पिता से कहा - हे तात! यह क्या है?

पिता ने कहा - यह चोर है?

पुत्र ने कहा - इसने यह अवस्था क्यों प्राप्त की?

पिता ने कहा - हे पुत्र! पहले जो उपार्जित किया है वह उदय में आये बिना कैसे जा सकता है अथवा पुत्र-पौत्र आदि के रहते हुए भी पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्म उस कर्म के करने वाले के पास ही पहुँचते हैं । जैसा कि कहा है -

यथा धेनुसहस्रेषु वत्सा विन्दन्ति मातरम् ।
तथा पुराकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥194॥
जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़े अपनी माँ के पास पहुँच जाते हैं उसी प्रकार पूर्वकृत कर्म अपने कत्र्ता-करने वाले के पास पहुँच जाते हैं ॥194॥

अन्यच्च-


और भी कहा है -

पातालमाविशतु यातु सुरेन्द्रहम्र्य-
मारोहतु क्षितिधराधिपतिं च मेरुम् ।
मन्त्रौषधिप्रहरणैश्च करोतु रक्षां
यद्भावि तद्भवति नात्र विचारहेतु: ॥195॥
चाहे पाताल में प्रवेश कर आओ, चाहे स्वर्ग चले जाओ, चाहे गिरिराज सुमेरु पर्वत पर चढ़ जाओ और चाहे मन्त्र, औषधि तथा शस्त्रों के द्वारा रक्षा कर लो परन्तु जो होने वाला है वह होता है - इसमें विचार का कोई कारण नहीं है ॥195॥

एतत् सर्वं चौरेण श्रुत्वा भणितम्-भो श्रेष्ठिन् तृतीयं दिनं गतं, प्राणा न गच्छन्ति, किं करोमि? तथा चोक्तम्-


यह सब सुनकर चोर ने कहा - हे सेठजी! तृतीय दिन निकल गया परन्तु प्राण नहीं जाते हैं । क्या करँ? जैसा कि कहा है-

शृगालभक्षितौ पादौ काकैर्जर्जरितं शिर: ।
पूर्वकर्म समायातं साम्प्रतं किं करोम्यहम् ॥196॥
श्रृगालों ने दोनों पैर खा लिए हैं और कौओं ने शिर जर्जर कर दिया है । पूर्व कर्म ऐसा ही आया है इस समय क्या करँ? ॥196॥

भो श्रेष्ठिन्! त्वं कृपासागर: परम धार्मिको महाद्रुमवज्जगदुपकारी, यत् त्वया क्रियते तत सर्वमपि लोकोपकारार्थम् । अतएव पिपासितस्य मम पानीयं पायय । तथा चोक्तम्-


हे सेठजी! तुम दया के सागर, परम धार्मिक और महावृक्ष के समान जगत् के उपकारी हो । आपके द्वारा जो किया जाता है, वह सभी लोकोपकार के लिए किया जाता है । इसलिए आप मुझ प्यासे को पानी पिला दीजिये । जैसा कि कहा है -

पुरे च राष्ट्रे गिरौ च महीतले महोदधौ वा सुहृदां च सन्निधौ ।
नभ:स्थले वा वरगर्भ वेश्मनि न र्मुति प्राक्तनकर्म सर्वथा ॥197॥
यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु ।
तस्य ज्ञानं च मोक्षश्च किं जटाभस्म चीवरै: ॥198॥
छायामन्यस्य कुर्वन्ति स्वयं तिष्ठन्ति चातपे ।
फलन्ति च परार्थेषु नात्महेतोर्महाद्रुमा: ॥199॥
परोपकाराय ददाति गौ: पय:, परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: ।
परोपकाराय वहन्ति नद्य:, परोपकाराय सतां प्रवृत्ति: ॥200॥
पूर्वकृत कर्म नगर में, देश में, पर्वत पर, भूतल पर, समुद्र में, मित्रों के सन्निधान में आकाश-तल में और मध्य ग्रह में सब प्रकार से पीछा नहीं छोड़ता है ॥197॥

जिसका चित्त सब जीवों पर दया से द्रवीभूत रहता है उसी को ज्ञान और मोक्ष प्राप्त होता है, जटा रखने, भस्म रमाने और चीवर पहनने से क्या होता है? ॥198॥

और भी कहा है-बड़े वृक्ष दूसरों को छाया करते हैं और स्वयं धूप में खड़े रहते हैं । वे दूसरों के लिए ही फलते हैं; अपने लिए नहीं ॥199॥

गाय परोपकार के लिए दूध देती है, वृक्ष परोपकार के लिए फलते हैं, नदियाँ परोपकार के लिए बहती हैं और सत्पुरुष की प्रवृत्ति परोपकार के लिए होती है ॥200॥

किञ्च-


और भी कहा है -

क्षुद्रा: सन्ति सहस्रश: स्वभरण-व्यापारमात्रोद्यमा:-
स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेक: सतामग्रणी: ।
दुष्पूरोदर-पूरणाय पिबति स्रोत:-पतिं वाडवो
जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापविच्छित्तये ॥201॥
मात्र अपना पेट भरने में उद्यम करने वाले क्षुद्र मनुष्य हजारों हैं परन्तु परोपकार करना ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सज्जनों में अग्रसर एक-विरला ही होता है । दु:ख से भरने योग्य उदर को पूर्ण करने के लिए बड़वानल समुद्र को पीता है परन्तु मेघ, गर्मी परिपूर्ण जगत्

का संताप दूर करने के लिए पीता है ॥201॥

भो श्रेष्ठिन्! मन्ये त्वं परोपकारायैव सृष्ट: । एवं बहुधा प्रकारै: श्रेठी स्तुत: । एतच्चौरवचनं श्रुत्वापि राज-विरुद्धं ज्ञात्वा तथाप्याद्र्रचित्तेन तेन श्रेष्ठिना परोपकाराय भणितम्-रे वत्स! मया द्वादशवर्षपर्यन्तं गुरुसेवा कृता अद्य प्रसन्नेन गुरुणा मन्त्रोपदेशो दत्त: । अद्याहं जलार्थं गच्छामि चेन्मंत्रोऽपि विस्मर्यते, अतएव न गच्छामि । चौरेणोक्तम्-यावत्कालपर्यन्तं त्वया जलमानीयते तावत्कालपर्यन्तमिमं मन्त्रमहमुद्घोंषयामीति । चौरेणोक्तम्-अनेन मन्त्रेण किं साध्यते? श्रेष्ठिना भणितम्-पञ्चनमस्कारनामा मन्त्रोऽयं समस्तं सुखं ददाति । यथा-


हे सेठजी! मैं मानता है कि तुम परोपकार के लिए रचे गये हो । इस तरह अनेक प्रकार से सेठ की स्तुति की । चोर के यह वचन सुनकर यद्यपि सेठ ने कुछ करना राजाज्ञा के विरुद्ध समझा तथापि आद्र्रचित्त से युक्त होने के कारण परोपकार के लिए सेठ ने कहा - हे वत्स! मैंने बारह वर्ष तक गुरु की सेवा की । आज प्रसन्न होकर उन्होंने मन्त्र का उपदेश दिया है । यदि इस समय मैं पानी के लिए जाता हूँ तो वह मन्त्र भूल जाऊँगा इसलिए नहीं जाता हूँ ।

चोर ने कहा - जब तक आप पानी लाते हैं तब तक मैं इस मन्त्र का उच्चारण करता रहूँगा । इस मन्त्र से क्या सिद्ध होता है?

सेठ ने कहा - यह पञ्च-नमस्कार नाम का मन्त्र सब सुख देता है । जैसे -

संग्रामसागरकरीन्द्रभुजङ्गसिंह-
दुर्व्याधिवारिरिपुबन्धनसंभवानि ।
चौरग्रहभ्रमनिशाचरशाकिनीनां
नश्यन्ति पञ्च परमेठिपदैर्भयानि ॥202॥
पञ्च परमेष्ठियों के पदों से, संग्राम, समुद्र, गजेन्द्र, सर्प, सिंह, दुष्ट, बीमारी, जल, शत्रु और बन्धन से होने वाले तथा चोर, ग्रह, भ्रम, राक्षस और शाकनियों से उत्पन्न भय नष्ट हो जाते हैं ॥202॥

तथा चोक्तम्-


जैसा कि कहा है-

आकृष्टिं सुरसम्पदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यता-
मुच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् ।
स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रपततां मोहस्य संमोहनम्
पायात्पञ्चनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥203॥
पञ्चनमस्कार मन्त्र के अक्षरों से तन्मय वह आराधनारूपी देवता देवों की संपत्ति का आकर्षण करती है, मुक्ति लक्ष्मी का वशीकरण करती है, चतुर्गति सम्बन्धी विपत्तियों का उच्चाटन करती है अपने पापों के साथ द्वेष करती है दुर्गति की ओर जाने वालों का स्तम्भन करती है - उन्हें रोकती है और मोह का संमोहन करती है ॥203॥

कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तु-शतानि च ।
अमुं मन्त्रं समाराध्य तिर्यांचोऽपि शिवं गता: ॥204॥
हजारों पाप करके और सैकड़ों जीवों का घातकर इस मन्त्र की आराधना से तिर्यंच भी कल्याण को प्राप्त हुए हैं ॥204॥

अत: ममोपदेशं दत्त्वा झटिति जलार्थं गच्छ । श्रेष्ठिनोक्तम्-तथास्तु । इति मन्त्रोपदेशं दत्त्वा मां च तत्र मुक्त्वा स्वयं जलार्थं गत: । तत एकाग्रचित्तेन पञ्चपरमेठिमन्त्रमुच्चारयता चौरेण प्राणा विसर्जिता: । पञ्चपरमेठिमन्त्रमाहात्म्येन स चौर: सौधर्मस्वर्गे षोडशाभरणभूषितोऽनेकपरिजनसहितो देवो जात: । श्रेठी कियत्कालं विलम्ब्य चौरसमीप आगतों जलं गृहीत्वा । अविकारकृताञ्जलिं चौरं दृष्ट्वा श्रेष्ठिनाऽभाणि-अहो उत्तमसमाधिनासौ स्वर्गं गत: । तत: पुत्रेणोक्तम्-भो तात! सत्संगति: कस्य पापं न हरति, अपि तु सर्वस्यापि । तथा चोक्तम्-


इसलिए मुझे उपदेश देकर पानी के लिए शीघ्र जाइये । सेठ ने कहा - " तथास्तु" । इस प्रकार मन्त्र का उपदेश देकर और मुझे वहीं छोड़कर सेठ स्वयं पानी के लिए चला गया । तदनन्तर एकाग्रचित से पंचपरमेठी मंत्र का उच्चारण करते हुए चोर ने प्राण छोड़ दिये । पंचपरमेठी मंत्र के माहात्म्य से वह चोर सौधर्म स्वर्ग में सोलह आभरणों से विभूषित तथा अनेक परिजनों से सहित देव हुआ । जिनदत्त सेठ कुछ समय बाद पानी लेकर चोर के समीप आया तब निर्विकार भाव से हाथ जोड़े हुए चोर को देखकर सेठ ने कहा - अहो । यह तो उत्तम समाधि से स्वर्ग चला गया ।

पश्चात् पुत्र ने कहा - हे पिताजी! सत्संगति किस का पाप नहीं हरती किन्तु सभी का हरती है । जैसा कि कहा है -

जाड्यं धियो हरति र्सिति वाचि सत्यं
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेत: प्रकाशयति दिक्षु तनोति कीर्तिं
सत्संगति: कथय किं न करोति पुंसाम् ॥205॥
सत्संगति बुद्धि की जड़ता को हरती है वाणी में सत्य का सेचन करती है मान की उन्नति करती है पाप को दूर करती है चित्त को प्रकाशित करती है और कीर्ति को दिशाओं में विस्तृत करती है । कहो सत्संगति पुरुषों का क्या-क्या नहीं करती है? ॥205॥

तत: श्रेष्ठिना व्याघुट्य परमगुरूणां वन्दनं कृत्वा वृत्तान्तं निरूप्योपवासं गृहीत्वा च तत्रैव जिनालये स्थितम् । गुरुणोक्तम्-महत्संसर्गेण कस्योन्न्तिर्न भवति । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर सेठ ने वापस लौटकर परम गुरुओं की वंदना की उन्हें सब समाचार कहा और स्वयं उपवास का नियम लेकर उसी जिनालय में स्थित हो गया । गुरु ने कहा - महापुरुषों की संगति से किसकी उन्नति नहीं होती? अर्थात् सभी की होती है । जैसा कि कहा -

संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न श्रूयते
मुक्ताकारव्या तदेव नलिनीपत्र-स्थितं दृश्यते ।
अन्त:सागरशुक्तिसंपुटगतं तन्मौक्तिकं जायते
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणा: संवासतो देहिनाम् ॥206॥
महानुभाव-संसर्ग: कस्य नोंन्नतिकारणम् ।
गङ्गाप्रविष्टं रथ्याम्बु त्रिदशैरपि वन्द्यते ॥207॥
संतप्त लोहे पर पड़े हुए पानी का नाम भी सुनाई नहीं पड़ता वही पानी कमलिनी के पत्ते पर स्थित होकर मोती के समान दिखाई देता है और समुद्र के भीतर सीप के पुट में जाकर मोती बन जाता है । ठीक ही है संगति से ही मनुष्यों के गुण प्राय: अधम, मध्यम और उत्तम हो जाते हैं ॥206॥

महान् पुरुषों की संगति किसकी उन्नति का कारण नहीं है किन्तु सभी की उन्नति का कारण है । क्योंकि गंगा में प्रविष्ट हुआ गलियारे का पानी देवों के द्वारा भी वन्दनीय हो जाता है ॥207॥

हेरकेण (गुप्तचरेण) राज्ञोऽग्रे निरूपितम् देव! जिनदत्तश्रेष्ठिना चौरेण सह गोठी कृता । राज्ञोक्तम् स राजद्रोही । तत्पार्श्वे चौरद्रव्यं तिष्ठति । एवं कुपित्वा तद्धारणार्थं भटा: प्रेषिता: । यावदेवं वर्तते, तावत्सौधर्मस्वर्गोत्पन्नेन चौरेण भणितम्-पुण्यं विनेयं सर्वसामग्री न प्राप्यते । तथा चोक्तम्-


गुप्तचर ने राजा को आगे कहा कि - हे देव! जिनदत्त सेठ ने चोर के साथ वार्तालाप किया है ।

राजा ने कहा - वह राजद्रोही है उसके पास चोरी का धन है । इस प्रकार क्रुद्ध होकर राजा ने उसे पकड़ने के लिए योद्धा भेजे । जब तक यहाँ ऐसा होता है तब तक सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए चोर ने कहा - पुण्य के बिना यह सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती । जैसा कि कहा है -

मिष्टान्न-पानशयनासनगन्धमाल्य-
वस्त्राङ्गनाभरणवाहनयान-गेहा: ।
वस्तूनि पूर्वकृतपुष्पविपाककाले-
यत्नाद्विनापि पुरुषं समुपाश्रयन्ते ॥208॥
मिष्ट, अन्नपान, शयन, आसन, गन्ध, माला, वस्त्र, स्त्री, आभूषण, वाहन, यान और महल आदि सभी वस्तुएँ पूर्वकृत पुण्य के उदयकाल में प्रयत्न के बिना ही पुरुष के पास पहुँच जाती हैं ॥208॥

"भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्" इत्यवधिज्ञानेन सर्ववृत्तान्तं ज्ञात्वा भणितम्-स जिनदत्तो मम धर्मोप- देशदाता, तस्योपकारं कदापि न विस्मरामि । अन्यथा मां विहाय कोऽप्यन्यो नास्ति पापी । तथा चोक्तम्-


"भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्" इस सूत्र के अनुसार कहे हुए अवधिज्ञान के द्वारा समस्त वृत्तान्त जानकर उसने कहा कि-वह जिनदत्त मुझे धर्मोपदेश को देने वाला है । मैं उसका उपकार कभी नहीं भूलूँगा अन्यथा मुझे छोड़ दूसरा पापी नहीं होगा । कहा भी है-

य: प्रत्युपकृतिं मत्र्य: प्रकुरुते न मन्दधी: ।
दधाति स वृथा जन्म लोके जनविनिन्दितम् ॥209॥
अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्थस्योपदेशकम् ।
दातारं विस्मरन्पापी किं पुनर्धर्मदेशिनम् ॥210॥
जो मन्दबुद्धि मनुष्य प्रत्युपकार नहीं करता है, वह लोक में मनुष्यों के द्वारा निन्दित जन्म को व्यर्थ ही धारण करता है ॥209॥

जो एक ही अक्षर के उपदेशक अथवा एक ही पदार्थ के दाता को भूल जाता है, वह पापी है फिर धर्मोपदेशक को भूलने वाले की क्या बात है? ॥210॥

इत्येवं सर्वं विचार्य निजगुरूपसर्गनिवारणार्थं दण्डधरो भूत्वा श्रेष्ठिगृहद्वारेऽतिष्ठत । आगतान् राज-किङ्करान्प्रति भणितं तेन-रे वराका:! किमर्थमागच्छथ । तैरुक्तम्-रे रङ्क अस्माकं हस्तेन किं मरणं वाञ्छसि । तेनोक्तम्-रे युष्माभिर्बहुभि: स्थूलै: किं प्रयोजनम्? यस्य तेजो विराजते स एव बलवान् । तथा चोक्तम्-


इस प्रकार सब कुछ विचार कर वह देव अपने गुरु का उपसर्ग निवारण करने के लिए दण्डधारी होकर श्रेठी के गृह द्वार पर बैठ गया और आये हुए राज सेवकों से उसने कहा - अरे क्षुद्र पुरुषों! किस लिए आये हो?

उन्होंने कहा - रे रंक! हमारे हाथ से क्या मरना चाहता है?

उसने कहा - अरे! तुम लोग अनेक तथा स्थूल हो सही पर उससे क्या प्रयोजन? जिसका तेज सुशोभित होता है वही बलवान होता है । जैसा कि कहा है -

हस्ती स्थूलतनु: स चाङ्क्वशवश: किं हस्तिमात्राङ्क्वशो-
वज्रेणापि हता: पतन्ति गिरय: किं वज्रमात्रो गिरि: ।
दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तम: किं दीपमात्रं तम:
तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु क: प्रत्यय: ॥211॥
हाथी स्थूल होता है वह भी अंकुश के वश होता है सो क्या वह अंकुश हाथी के बराबर होता है? वज्र से भी ताडि़त हुए पहाड़ गिर जाते हैं सो क्या पहाड़ वज्र के बराबर होते हैं और दीपक के प्रज्वलित होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है सो क्या अन्धकार दीपक के बराबर होता है? परमार्थ यह है कि जिसके तेज होता है वही बलवान होता है । स्थूल लोगों में क्या विश्वास किया जाये? ॥211॥

तथा च-


और भी कहा है-

कृशोऽपि सिंहो न समो गजेन्द्रै: सत्त्वं प्रधानं न च मांसराशि ।
अनेकवृन्दानि वने गजानां सिंहस्य नादेन मदं त्यजन्ति ॥212॥
सिंह दुबला होकर भी गजराजों के समान नहीं होता । बल प्रधान है, मांस की राशि नहीं । वन में सिंह की गर्जना से हाथियों के अनेक झुण्ड मद छोड़ने लगते हैं ॥212॥

जीर्ण ततो दण्डेन केचन भूमौ पातिता:, केचन मारिता:, केचन प्रचण्डदण्डिनो मोहिताश्च । एतद्वृत्तान्तं केनचिद् राज्ञोऽग्रे निरूपितम् । ततो राज्ञाऽन्येऽपि तद्वधार्थं प्रेषिता: । तेऽपि तथैव मारिता: । तत: कुपितो राजा चतुरङ्गबलेन सह समागत: । महति संग्रामे जाते सति सर्वेऽपि मारिता: । राजा एक एव स्थित: । देवेन महाभयंकरं राक्षसरूपं धृतम् । सर्वानागतान् राजानं च भयभ्रान्तचित्तानकरोत् । राजा भयाद्भीत: भयाक्रान्तेन राज्ञा पलयतां कृर्त । पृठे स देवो लग्न: । भणितं च तेन-रे पापिठ! अधुना यत्र व्रजसि तत्र मारयामि । यदिग्रामबहि:स्थ सहस्रकूटजिनालयनिवासि-श्रेष्ठिजिनदत्तस्य शरणं गच्छसि चेद् रक्षयामि, नान्यथा ।

एतद्वचनं श्रुत्वा श्रेष्ठिशरणं प्रविष्टो राजा । भणिर्त तेन-भोश्रेष्ठिन् रक्ष रक्ष तव" शरणं प्रविष्टोऽस्मि । रक्षिते सति पुन: प्रतिष्ठा कृता भवतीति । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर उसने कितने ही राजकिंकरों को दण्ड से पृथ्वी पर गिरा दिया कितनों को मार डाला और प्रचण्ड दण्ड को धारण करने वाले कितने ही लोगों को मोह में डाल दिया-मूचि्र्छत कर दिया ।

यह सब समाचार किसी ने राजा के आगे कह दिया । जिससे राजा ने उसे मारने के लिए और भी सेवक भेजे परन्तु वे भी उसी तरह मारे गये । तब राजा कुपित होकर चतुरंग सेना के साथ स्वयं आया । बहुत भारी युद्ध होने पर सभी मारे गये । एक राजा ही रह गया । देव ने महाभयंकर राक्षस का रूप रख लिया और आये हुए सब लोगों तथा राजा को भय से भ्रान्तचित्त कर दिया । राजा भयभीत हो गया । भय से युक्त हो उसने भागना शुरू किया परन्तु वह देव पीछे लग गया । उसने कहा - अरे पापी! इस समय तू जहाँ जायेगा वहीं मारँगा । यदि गाँव के बाहर स्थित सहस्रकूट जिनालय में निवास करने वाले जिनदत्त सेठ की शरण में जाओगे तों बचाऊँगा अन्यथा नहीं । यह वचन सुन राजा सेठ की शरण में प्रविष्ट हुआ ।

राजा ने कहा - हे सेठ बचाओ, बचाओ तुम्हारी शरण में प्रविष्ट आया हूँ । रक्षा करने पर पुन: प्रतिष्ठा होती है । जैसा कि कहा है -

जीर्णं जिनगृहं बिम्बं पुस्तकं श्राद्धमेव वा ।
उद्धार्य स्थापनं पूर्वं पुण्यतोऽधिकमुच्यते ॥213॥
नष्टं कुलं कूपतडागवापी: प्रभ्रष्टराज्यं शरणागतञ्च ।
गां ब्राह्मणं जीर्णसुरालर्य य उद्धरेत्पुण्यचतुर्गुणं स्यात् ॥214॥
जीर्ण जिनमन्दिर, जिनबिम्ब, पुस्तक और श्राद्ध का उद्धार कर फिर से स्थापित करना पूर्व पुण्य से अधिक कहलाता है ॥213॥

नष्ट हुए कुल, कुँआ, तालाब, बावड़ी, राज्यभ्रष्ट तथा शरणागत राजा, गाय, ब्राह्मण, देवमन्दिर का जो उद्धार करता है उसे चौगुना पुण्य होता है ॥214॥

एवं श्रुत्वा श्रेष्ठिना मनसि चिन्तितम्-अयं राक्षश: कोऽपि विक्रियावान् । अन्यस्यैतन्माहात्म्यं न दृश्यते । ततो भणितम्-हे देव! प्रपलायमानस्य पृठतो न लग्यते । तथा चोक्तम्-


ऐसा सुनकर सेठ ने मन में विचार किया यह राक्षस कोई विक्रियाधारी है । अन्य दूसरे का ऐसा माहात्म्य नहीं दिखाई देता । इसके पश्चात् कहा - हे देव! भागते हुए के पीछे नहीं लगा जाता है । जैसा कि कहा है -

भीरु चलायमानोऽपि नान्वेष्टव्यो बलीयसा ।
कदाचिच्छूरतामेति मरणे कृतनिश्चय: ॥215॥
भागते हुए भयभीत मनुष्य का बलवान् को पीछा नहीं करना चाहिए क्योंकि कदाचित् यह हो सकता है कि मरने का निश्चय कर वह शूरवीरता को प्राप्त हो जाये ॥215॥

एतच्छ्रेठिवचनं श्रुत्वा राक्षसरूपं परित्यज्य देवो जात: । श्रेष्ठिनं त्रि:प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृतवान् । पश्चाद्देवं गुरं च नमस्कृत्योपविष्टो देव: । राज्ञा भणितं-हे देव । स्वर्गे विवेको नास्ति, यतो देवं गुरं च त्यक्त्वा प्रथमं गृहस्थवन्दना कृता त्वया । अपक्रमोऽयम् । तथा चोक्तम्-


सेठ के यह वचन सुनकर वह राक्षस का रूप छोड़कर देव हो गया । उसने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर सेठ को नमस्कार किया । तदनन्तर देव और गुरु को नमस्कार कर वह देव बैठ गया । राजा ने कहा - हे देव! स्वर्ग में विवेक नहीं है क्योंकि देव और गुरु को छोड़कर तुमने पहले गृहस्थ को नमस्कार किया है । यह क्रमभंग है जैसा कि कहा है -

अपक्रमं भवेद्यत्र प्रसिद्धक्रमलङ्घनम् ।
यथा भुक्त्वा कृतस्नानो गुरून् देवांश्च वन्दते ॥216॥
जहाँ प्रसिद्ध क्रम का उल्लंघन होता है वह अपक्रम कहलाता है जैसे भोजन करके स्नान करता है और उसके बाद गुरु तथा देव की

वन्दना करता है ॥216॥

देवेनोक्तम्-हे राजन् समस्तमपि विवेकं जानामि । पूर्वं देवस्य नति:, पश्चाद्गुरोर्नतिस्तदनन्तरं श्रावकस्येच्छाकारो यथायोग्यं जानामि । किन्त्वत्र कारणमस्ति । एवं श्रेठी मम मुख्यगुरुस्तेन कारणेन प्रथमं वन्दनां करोमि । राज्ञा देव: पृष्ट:-केन सम्बन्धेन तव मुख्यगुरुर्जात: श्रेठी? ततस्तेन देवेन स्वकीयचोरभवस्य साम्प्रतं पूर्व: समस्तो वृत्तान्तो निरूपितो राज्ञोऽग्रे । तत्र केनचिद्भणितमहो सत्पुरुषोऽयम् । सन्त: कृतमुपकारं न विस्मरन्ति । तथा चोक्तम्-


देव ने कहा - हे राजन्! मैं सभी विवेक जानता हूँ कि पहले देव को नमस्कार किया जाता है तदनन्तर गुरु को और उसके पश्चात् श्रावक को यथायोग्य इच्छाकार किया जाता है; किन्तु यहाँ कारण है, यह सेठ मेरा मुख्य गुरु है, इस कारण इन्हें पहले नमस्कार करता हूँ । राजा ने देव से पूछा कि किस सम्बन्ध से यह सेठ तुम्हारा मुख्य गुरु हुआ है? तब उस देव ने अपने चोर के भव का और वर्तमान भव का समस्त पूर्व वृतान्त राजा के सामने कह दिया । वहाँ किसी ने कहा - अहो यह तो सत्पुरुष है-सज्जन है, सज्जन किए हुए उपकार को नहीं भूलते हैं । जैसा कि कहा है-

प्रथमवयसि पीतं तोयमल्पं स्मरन्त:
शिरसि निहितभारा नालिकेरा नराणाम् ।
उदकममृततुल्यं दद्यु राजीवितान्तं
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥217॥
नारियल के वृक्षों ने अपनी प्रथम अवस्था में थोड़ा-सा पानी पिया था इसलिए पानी का उपकार मानते हुए वे अपने शिर पर जल सहित फलों का बहुत भारी भार धारण करते हैं और मनुष्यों को जीवन पर्यन्त अमृत के तुल्य पानी देते हैं, सो उचित ही है क्योंकि सत्पुरुष किये हुए उपकार को भूलते नहीं हैं ॥217॥

राज्ञोक्तम्-केन प्रेर्यमाण: सन्नेव श्रेठी कृतवानेवम् देवेनोक्तम्-भो राजन्! महापुरुषस्वभावोऽ-यम्-ये केचन सज्जना: स्युस्ते प्रार्थनां बिनापि सर्वेषामुपकारं कुर्वन्ति । तथा चोक्तम्-


राजा ने कहा - किससे प्रेरित होते हुए इस सेठ ने ऐसा किया?

देव ने कहा - हे राजन्! महापुरुष का यह स्वभाव है कि जो सज्जन होते हैं, वे प्रार्थना के बिना ही सबका उपकार करते हैं । जैसा कि कहा है -

कस्यादेशात्प्रहरति तम: सप्तसप्ति: प्रजानां
छायाहेतो: पथि विटपिनामञ्जलि: केन बद्धा ।
अभ्यथ्र्यन्ते जललवमुच: केन वा वृष्टिहेतो-
र्जात्या चैते परहित-विधौ साधवो बद्धकक्षा: ॥218॥
किसकी आज्ञा से सूर्य लोगों के अन्धकार को नष्ट करता है? मार्ग में छाया के लिए वृक्षों के हाथ किसने जोड़े हैं? अथवा वृष्टि के लिए मेघों से कौन प्रार्थना करते हैं? किसी ने नहीं, परमार्थ यह है कि वे साधु जन स्वभाव से ही पर का हित करने के लिए उद्यत रहते हैं । सज्जन और दुर्जनों का यह महान् स्वभाव भेद है ॥218॥

तदसतोरयं महान् स्वभावभेद: । यतश्च-


छिनत्यम्बुज-पत्राणि हंस: सन्नवसन्नपि ।
सन्तोषयति तान्येव दूरस्थोऽपि दिवाकर: ॥219॥
हंस निकट में रहता हुआ भी कमल के पत्तों को छिन्न-भिन्न करता है और सूर्य दूर स्थित होकर भी उन्हें संतुष्ट करता है ॥219॥

पश्चात् सर्वेषामग्रे राज्ञोक्तम्-सर्वेषां धर्माणां मध्ये महान् धर्मोऽयं जैनधर्मो महता सुकृतेन लभ्यते ।

श्रेष्ठिनोक्तम् - भो राजन्! त्वयोक्तं सत्यमेव चूडामणीयते । अल्पपुण्यैर्नलभ्यतेऽयं धर्मं: । तथा चोक्तम्-


पश्चात् सबके आगे राजा ने कहा - सब धर्मों के मध्य में यह जैनधर्म महान् पुण्य से प्राप्त होता है ।

सेठ ने कहा - हे राजन्! आपका कहना सचमुच ही चूड़ामणि के समान है । हीन पुण्यात्मा जनों के द्वारा यह कर्म प्राप्त नहीं किया जा सकता । जैसा कि कहा है -

जैनोधर्म: प्रकटविभव: संगति: साधु-लौकै-
र्विद्वद्गोठी वचनपटुता कौशलं सर्वशास्त्रे ।
साध्वी रामा, चरणकमलोपासनं सद्गुरूणां
शुद्धं शीलं मतिरमलिना प्राप्यते नाल्पपुण्यै: ॥220॥
प्रकट महिमा से युक्त जैनधर्म सज्जनों के साथ संगति, विद्वानों की गोठी, वचनों की चतुराई समस्त शास्त्रों में कुशलता, पतिव्रता स्त्री, सद्गुरुओं के चरण-कमलों की सेवा, शुद्ध शील और निर्मल बुद्धि अल्प पुण्यशाली जीवों को प्राप्त नहीं होती है ॥220॥

लोकोत्तरं हि पुण्यस्य माहात्म्यम् । तथा चोक्तम्-


सचमुच ही पुण्य की महिमा लोक में सर्वश्रेठ है । जैसा कि कहा है-

पुण्यादिष्ट-समागमोमतिमतां हानिर्भवेत्कर्मणां-
लब्धि: पावनतीर्थभूतवपुष: साधो शुभाचारिण: ।
उत्पथ्यं सुपथं यत: परमधी: कान्ति: कला कौशलं
सौभाग्यं सकलं त्रिलोकपतिगं तत्संख्यलोकार्चितम् ॥221॥
पुण्य से बुद्धिमान् जनों को इष्ट का समागम होता है, कर्मों की हानि होती है पवित्र तीर्थ-स्वरूप शरीर को धारण करने वाले शुभाचारी साधु की प्राप्ति होती है, कुमार्ग-सुमार्ग हो जाता है उत्कृष्ट बुद्धि कान्ति, कला-कौशल और तीनलोक के द्वारा पूजित त्रिलोकीनाथ का समस्त सौभाग्य पुण्य से ही प्राप्त होता है ॥221॥

ततस्तेन देवेन पञ्चाश्चर्येण जिनदत्तश्रेठी प्रपूजित: प्रशंसितश्च । अहं चौरोऽपि तव प्रसादेन देवो जात: । निष्कारणेन परोपकारित्वंते । एतत्सर्वं प्रत्यक्षेण दृष्ट्वा वैराग्यसम्पन्नो भूत्वा भणति च राजा- अहो! विचित्रं धर्मस्य माहात्म्यम् । देवा अपि धर्मस्य दासत्वं कुर्वन्ति । एवं सर्वेऽप्यबला बालादयो जानन्ति । तथा चोक्तम्-


तदनन्तर उस देव ने पञ्चाश्चर्यों के द्वारा जिनदत्त सेठ की बहुत भारी पूजा की और अत्यधिक प्रशंसा की । मैं चोर होकर भी आपके प्रसाद से देव हो गया हूँ । आपका परोपकारीपन अकारण है अर्थात् आप किसी स्वार्थ के बिना ही परोपकार करते हैं ।

यह सब प्रत्यक्ष देखकर तथा वैराग्य से युक्त होकर राजा ने कहा - अहो! धर्म की महिमा विचित्र है । देव भी धर्म का दासपना करते हैं । इस प्रकार सभी स्त्री तथा बालक आदि जानते हैं । जैसा कि कहा है-

सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्प-दामायते
सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपु: ।
देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनस: किं वा बहु ब्रूमहे
धर्मो यस्य नभोंऽपि तस्य सततं रत्नै: परैर्वर्षति ॥222॥
धर्म के प्रभाव से साँप हार बन जाता है, तलवार उत्तम फूलों की माला के समान आचरण करने लगती है, विष भी रसायन हो जाता है, शत्रु प्रीति करने लगता है, देव प्रसन्नचित्त होकर वश में हो जाते हैं अधिक क्या कहें? जिसके धर्म है उसके लिए आकाश भी निरन्तर उत्तम रत्नों की वर्षा करता है ॥222॥

ततो राज्ञा पुत्रं स्वपदे संस्थाप्य दीक्षा गृहीता । तथैव मन्त्रिणा तथैव श्रेष्ठिनाऽन्यैश्च वैराग्याचित्त- चित्तैर्बहुभिर्दीक्षा गृहीता जिनचन्द्र-मुनीश्वर-समीपे । केचनाणुव्रतधारिण: श्रावका, केचन भद्रपरिणामिनश्च संजाता: । सर्वेषां जिनधर्मस्थिरताभूत् । देवोऽपि दर्शनं गृहीत्वा स्वर्गं गत: । ततोऽर्हद्दासेनोक्तं-भो भार्या:! एतत्सर्वं मया प्रत्यक्षेण दृष्टम्, अतएव सम्यग्दृष्टिर्जातोऽहम् । भार्याभि-र्भणितम्-भो स्वामिन्! यत्त्वया बाल्यत्वे दृढतरं दृष्टं श्रुतमनुभूतं च तत्सर्वं वयं सर्वा अपि श्रद्दध्म:, इच्छामो, रोचामहे । एतद्धर्मफलानुमोदनव्याऽस्माकमपि पुण्यं भवतु । ततो लब्ध्या भार्यया कुन्दलव्या भणितम्-एतत्सर्वं व्यलीकमतएवाहं न श्रद्धामि, नेच्छामि न रोचे । एवं कुन्दलताया: वचनं श्रुत्वा राजा मन्त्री चौरश्च कुपित: चिन्व्यति । राज्ञोक्तम्-एतन्मया प्रत्यक्षेण दृष्टम्, मत्पिता मम राज्यं दत्त्वा तपस्वी जात: । मन्त्रिणापि तथैव भणितम्-एतत्सर्वं मया प्रत्यक्षेण दृष्टम् । मत्पित्रा चौर: शूले निक्षिप्त: । श्रेष्ठिनापि निगदितम्-पञ्चनमस्कारमन्त्रप्रभावेण चौर: स्वर्गे देवो जातस्तस्मादागत्य श्रेष्ठिन उपसर्गो निवारितस्तेन । राजा कथयति-सर्वेऽपि जना: जानन्ति । कथमियं पापिठा न मानयति, श्रेष्ठिवचनं व्यलीकं निरूपयति । साम्प्रतं सभामध्ये गत्वा किमपि कथयितुं न शक्यते, प्रभात समयेऽस्या निग्रहं करिष्यामि । पुनरपि चौरेणोक्तम्-नीचस्वभावेयं यत्प्रसादाज्जीवति तस्यैव निरूपकं करोंति ।

॥ इति प्रथम कथा ॥


तदनन्तर राजा ने पुत्र को अपने पद पर बैठाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । इसी प्रकार जिनके चित्त वैराग्य से व्याप्त हैं, ऐसे मंत्री सेठ तथा अन्य लोगों ने भी दीक्षा धारण कर ली । कई अणुव्रतों को धारण करने वाले श्रावक हुए और कई भद्रपरिणामी हुए । सबकी जैनधर्म में स्थिरता हुई । देव भी दर्शन कर स्वर्ग चला गया ।

तदनन्तर अर्हद्दास ने कहा - हे पत्नियों । यह सब मैंने प्रत्यक्ष देखा है सुना है और अनुभव किया है । अत: मैं सम्यग्दर्शन का धारी हुआ हूँ । भार्याओं ने कहा - हे स्वामिन् । जो आपने बाल्यावस्था में अच्छी तरह देखा, सुना और अनुभव किया है, उस सबकी हम लोग श्रद्धा करती हैं, इच्छा करती हैं उसकी रुचि करती हैं । इस धर्मफल की अनुमोदना का मुझे भी पुण्य हो ।

तदनन्तर छोटी स्त्री कुन्दलता ने कहा कि - यह सब झूठ है इसलिए मैं इसकी न श्रद्धा करती हूँ, न इच्छा करती हूँ और न इसकी रुचि करती हूँ । कुन्दलता का ऐसा कहना सुनकर राजा, मंत्री और चोर कुपित होकर विचार करते हैं ।

राजा ने कहा कि-यह मैंने प्रत्यक्ष देखा है । मेरे पिता मुझे राज्य देकर तपस्वी हुए थे ।

मन्त्री ने भी ऐसा ही कहा कि - यह सब मैंने प्रत्यक्ष देखा है । मेरे पिता ने चोर को शूली पर चढ़ाया था ।

सेठ ने भी कहा कि - पञ्च नमस्कारमन्त्र के प्रभाव से चोर स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर उसने सेठ का उपसर्ग दूर किया ।

राजा कहता है कि सभी लोग जानते हैं फिर यह पापिनी क्यों नहीं मानती है, सेठ के वचन को झूठा बतलाती है । इस समय सभा के बीच जाकर कुछ भी कहा नहीं जा सकता परन्तु प्रात:काल इसका निग्रह करँगा ।

फिर भी चोर ने कहा कि - यह नीच स्वभाव वाली है जिसके प्रसाद से जीवित है उसी की बुराई करती है ।

॥ इस प्रकार प्रथम कथा पूर्ण हुई॥