कथा :
सम्यक्त्वप्राप्तमित्रश्रिय: कथा इति सम्यक्त्वकारणकथां निरूप्य मित्रश्रियं प्रति श्रेठी भणति-भो भार्ये! त्वयापि किमपि श्रीधर्म-माहात्म्यं दृष्टं श्रुतमनुभूतं भवति तदा निवेदय । ततो मित्रश्री: धर्मफलं कथयति- मगधदेशे राजगृहनगरे राजा संग्रामशूर:- राज्यं करोति । तस्य राज्ञी कनकमाला, तत्रैव नगरे श्रेठी वृषभदासो महासम्यग्दृष्टि: पञ्च-गुणोपेत: परमधार्मिक: सर्व-लक्षण-संपूर्णश्च वसति । तथा चोक्तम्- इस प्रकार सम्यक्त्व को प्राप्त कराने वाली कथा का निरूपण कर सेठ मित्रश्री से कहते हैं कि प्रिये! तुमने भी श्रीधर्म का कुछ माहात्म्य देखा, सुना अथवा अनुभव किया हो तो उसे कहो । तदनन्तर मित्रश्री धर्म का फल कहती है । मगध देश के राजगृह नगर में राजा संग्राम शूर राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम कनकमाला था । उसी नगर में सेठ वृषभदास रहता था, जो महान् सम्यग्दृष्टि था, पञ्च गुणों से सहित था, परम धार्मिक था और संपूर्ण लक्षणों से सहित था । जैसा कि कहा है- पात्रे त्यागी गुणे रागी भोगे परिजनै: सह ।
जो योग्य पात्र में त्याग करने वाला हो, गुण में राग करने वाला हो, भोग में परिजनों के साथ रहता हो, शास्त्र में ज्ञाता हो और युद्ध में योद्धा हो; वही पञ्च लक्षणों, पाँच गुणों को धारण करने वाला पुरुष है ॥223॥शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा पुरुष: पञ्चलक्षण: ॥223॥ तस्य श्रेष्ठिनो भार्या जिनदत्ता । सापि परमधार्मिका सम्यक्त्वादि-गुणोपेता, दक्षत्वादिगुणौघै: मूर्तिमतिश्रीरिव सर्वलक्षणसम्पूर्णा च । तथा चोक्तम्- उस सेठ की स्त्री का नाम जिनदत्ता था । वह जिनदत्ता भी परम धार्मिक सम्यक्त्वादि गुणों से सहित दक्षता आदि गुणों के समूह से मूर्तिमती लक्ष्मी के समान तथा समस्त लक्षणों से युक्त थी । जैसा कि कहा है- आज्ञाविधायिनी तुष्टा दक्षा साध्वी विचक्षणा ।
जो आज्ञाकारिणी हो, संतुष्ट हो, दक्ष हो, साध्वी हो, पतिव्रता हो तथा विदुषी हो इन्हीं गुणों से युक्त स्त्री लक्ष्मी ही है, इसमें संशय नहीं है ॥224॥एभिरेव गुणैर्युक्ता श्रीरेव स्त्रीर्न संशय: ॥224॥ एवं गुणविशिष्टापि सा जिनदत्ता, परन्तु वन्ध्यात्वदूषणेन दूषिता । केनाप्युपायेन तस्या: पुत्रो न भवति । एकस्मिन् दिवसेऽवसरं प्राप्यकरौ कुड्मलीकृत्य निजस्वामिनं प्रति भणितं व्या-भो स्वामिन् पुत्रं बिना कुलं न शोभते, वंशच्छेदोऽपि भविष्यति । अतएव सन्तानवृद्ध्यर्थं द्वितीयो विवाह: कर्तव्य: । तथाचोक्तम्- जिनदत्ता यद्यपि इस प्रकार के गुणों से विशिष्ट थी परन्तु बन्ध्यात्व नामक दोष से दूषित थी । किसी भी उपाय से उसके पुत्र नहीं होता था । एक दिन अवसर पाकर तथा हाथ जोड़कर उसने अपने पति से कहा - हे स्वामिन् । पुत्र के बिना कुल सुशोभित नहीं होता है तथा वंश का विच्छेद भी हो जायेगा इसलिए सन्तान की वृद्धि के लिए दूसरा विवाह करने के योग्य है । जैसा कि कहा है - तारुणं लावणं पि य पेम्मं भूसणाइसंभारो ।
यौवन, सौन्दर्य, प्रेम और आभूषणों का समूह सब कुछ एक पुत्र के बिना भूसी के समान है ॥225॥सव्वो पलाल सरिता एक्केण विणा सुपुत्तेण ॥225॥ नागो भाति मदेन कं जलरुहै: पूर्णेन्दुना शर्वरी । वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैर्नद्य: सभा पण्डितै:॥ शीलेन प्रमदा जवेन तुरगों नित्योत्सवैर्मन्दिरं । सत्पुत्रेण कुलं नृपेण वसुधा लोंकत्रयं धार्मिकै: ॥226॥ शर्वरीदीपकश्चन्द्र: प्रभातो रविदीपक: । त्रैलोंक्यदीपको धर्म: सत्पुत्र: कुलदीपक: ॥227॥ पुनश्च- संसारश्रान्तजीवानां तिस्रौ विश्रामभूमय: । अपत्यं च2कलत्रं च सतां संगतिरमव च ॥228॥ हाथी मद से, पानी कमलों से, रात्रि पूर्ण चन्द्रमा से, वाणी व्याकरण से, नदियाँ हंस हंसिनियों के युगलों से, सभा विद्वानों से, स्त्री शील से, घोड़ा वेग से, मन्दिर नित्य प्रति होने वाले उत्सवों से, कुल सत्पुत्र से, राजा से पृथ्वी और धर्मात्माओं से तीनों लोक सुशोभित होते हैं ॥226॥ रात्रि का दीपक चन्द्रमा है, प्रभात का दीपक सूर्य है, तीन लोक का दीपक धर्म है और कुल का दीपक उत्तम पुत्र है ॥227॥ और भी कहा है-संसरण-पञ्च परावर्तन से थके हुए जीवों के लिए विश्राम की भूमियाँ तीन हैं-पुत्र, स्त्री और सत्संगति ॥228॥ मिथ्यादृष्टयोऽप्येवं वदन्ति-पुत्रं विना गृहस्थस्य गतिर्नास्ति । तथा चोक्तम्- मिथ्यादृष्टि लोग भी ऐसा कहते हैं कि पुत्र के बिना गृहस्थ की गति नहीं है । जैसा कि कहा है - अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
पुत्र रहित मनुष्य की गति नहीं होती, उसे स्वर्ग तो प्राप्त होता ही नहीं है इसलिए पुत्र का मुख देखकर पश्चात् भिक्षुक-संन्यासी हुआ जाता है ॥229॥तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्भवति भिक्षुक: ॥229॥ श्रेष्ठिना भणितम्-भो भद्रे तव कथितं सत्यं परमसत्यं, परमिदं शरीरमपि सर्वमनित्यं दृष्टवा यो भोगानुभवनं करोतु स विवेकशून्य एव । पुनरपि श्रेष्ठिना भणितम्-परिपूर्णसप्ततिवर्षकोऽहम्, अत: पाणिग्रहणं न युज्यते । वृद्धत्वे धर्मं विहायैवं क्रियते चेल्लोके मोहमाहात्म्यं, हास्यं विरुद्धं च भविष्यति । तथा चोक्तम्- सेठ ने कहा - हे भद्रे! तुम्हारा कहना यद्यपि सत्य है तथापि असत्य है । यह शरीर भी पर है, सभी वस्तुओं को अनित्य देखकर जो भोगों का अनुभव करता है वह विवेक से शून्य ही है । फिर भी सेठ ने कहा कि-मेरे सत्तर वर्ष पूर्ण हो चुके हैं अत: विवाह करना उचित नहीं है । वृद्धावस्था में धर्म को छोड़कर यदि ऐसा किया जाता है-विवाह किया जाता है तो लोक में मोह की महिमा हँसी और विरुद्धता होगी । जैसा कि कहा गया है- एषा तनो: कवलनायकृता कृतान्त
शरीर को ग्रसने के लिए यमराज ने यह इच्छा कर रखी है परन्तु वह मोहोदय से अन्तरित हो रही है । जो मनुष्य इस शरीर को नित्य मानते हुए व्यर्थ ही विषयों में मोहित हो रहे हैं वे विवेक से शून्य हैं ॥230॥वाञ्छोदयेन परमन्तरिता समास्ते । नित्यामिमां किल मुधा बहु मन्यमाना मुह्यन्ति हन्त विषयेषु विवेकशून्या: ॥230॥ रोगेप्यङ्गविभूषणद्युतिरियं शोकेऽपि भोगस्थिति- र्दारिद्रयेऽपि गृहे वय:-परिणतावप्यङ्गनासंगम: । येनान्योंन्यविरुद्धमेतदखिलं जानन् जन: कार्यते सोऽयं सर्वजगत्त्रयीं विजयते व्यामोहमल्लो महान् ॥231॥ रोग होने पर भी शरीर को आभूषणों से सजाना, शोक रहते हुए भी भोगों में निमग्न रहना, दरिद्रता होने पर भी घर में रहना और अवस्था पक जाने-वृद्धावस्था आ जाने पर भी स्त्री समागम करना... यह सब परस्पर विरुद्ध बातें हैं । इन्हें जानता हुआ भी मनुष्य जिससे प्रेरित हो इन्हें करता है वह महान् मोहरूपी मल्ल समस्त तीनों लोकों को जीतता है ॥231॥ व्योक्तम्-भो पते! भोगरागवशतो यद्येवमतिक्रम: क्रियते सदा हास्यस्य कारणं भवति, सन्तानवृद्धये न च दोष:, इति महता कष्टेन श्रेष्ठिना प्रतिपन्नम् । तत्रैव नगरे निजपितृबन्धु जिनदत्तबन्धुश्रियो: पुत्री कनकश्रीरस्ति । सा सपत्नभगिनी व्या याचिता । उभाभ्यां भणितम्-सपत्न्युपरि न दीयते । जिनदत्तया भणितम्-भोजनकालं मुक्त्वा कनकश्रीगृहे नागच्छामि । जिनगृहे एवाहं तिष्ठामीति शपथं कृत्वा याचिता, ताभ्यां दत्ता च । शुभमुहूर्ते विवाहो जात: । जिनदत्ता श्रेष्ठिनी तत: शनै: शनै: सर्वगृहभारं सपत्नीकरमध्ये विमुच्य दिवानिशं धर्मपरायणा जाता । गृहचिन्तां कामपि न विदधाति । कालक्रमेण कनकश्रिय: पुत्रोऽभूत् एवं जिनदत्ता जिनगृहस्थिता दम्पती च स्वगृहे सुखेन स्थितौ । एकदा कनकश्रीर्निजमातृगृहं गता । मात्रा पृष्टा-भो पुत्रि! निजभत्र्रा सह सुखानुभव: क्रियते न वा? पुत्र्योक्तम्-हे मात! मम भर्ता मया सह वचनालापमपि न करोति, कामभोगेषु का वार्ता? अन्यच्च, मां सपत्न्युपरि विवाहयितुं दत्त्वा किं सौख्यं पृच्छसि? मुण्डे मुण्डनं कृत्वा पश्चान्नक्षत्रं, पानीयं पीत्वा पश्चाद् गृहं च पृच्छसि । मता तुषमात्रमपि सुखं नास्ति । जिनदत्तया मम भर्ता सर्वप्रकारेण गृहीत: । तौ दम्पती जिनालये सर्वदा तिष्ठत:, तत्रैव सुखानुभवनं कुरुत:, मध्याह्नकाले संध्यासमये च भोजनं कर्तुमागच्छत: । एकाकिनी क्षीणगात्राहं रात्रौ स्वभाग्य-निन्दां करोति । एतत्सर्वमसत्यं मायया स्वमातुरग्रे कनकश्रिया प्रतिपादितम् । ततो बन्धुश्रिया भणितम्-रतिरूपामिमां मत्पुत्रीं परित्यज्य जिनालये जराजर्जरितां वृद्धां सेवते । अतएव काम्युचितानुचितं न जानाति । तथा चोक्तम्- स्त्री ने कहा - हे स्वामिन् यदि भोगों के राग के वशीभूत हो ऐसा अपराध किया जाता है तो वह हँसी का कारण होता है परन्तु सन्तान वृद्धि के लिए ऐसा करना दोष नहीं है, इस प्रकार स्त्री के कहने पर सेठ ने बड़ी कठिनाई से दूसरा विवाह करना स्वीकृत कर लिया । उसी नगर में अपने पिता के भाई जिनदत्त और उनकी स्त्री बन्धुश्री की कनकश्री नामक पुत्री थी । सेठानी ने उसे अपनी सपत्नी बनाने के लिए याचना की । परन्तु दोनों ने कह दिया कि सौत के ऊपर पुत्री नहीं दी जाती है । जिनदत्ता ने कहा - भोजन का समय छोड़कर मैं कनकश्री के घर नहीं आऊँगी जिनमन्दिर में ही रहूँगी, ऐसी शपथ कर उसने कनकश्री की याचना की । उसके माता-पिता ने उसे दे दिया और शुभ मुहूर्त में विवाह हो गया । तदनन्तर जिनदत्ता सेठानी धीरे-धीरे घर का सब भार सपत्नी के हाथ में छोड़कर दिन-रात धर्म में तत्पर रहने लगी । वह घर की कुछ भी चिन्ता नहीं करती थी । कालक्रम से कनकश्री के पुत्र हो गया । इस प्रकार जिनदत्ता जिनमन्दिर में और दम्पत्ति अपने घर में सुख से रहने लगे । एक दिन कनकश्री अपनी माता के घर गयी । माता ने उससे पूछा कि हे पुत्री! अपने पति के साथ सुख का अनुभव करती हो या नहीं? पुत्री ने कहा - हे मात! मेरा पति मेरे साथ वार्तालाप भी नहीं करता है कामभोग की तो बात ही क्या है, दूसरी बात यह है कि मुझे सपत्नी के ऊपर विवाह कर सुख की बात क्यों पूछती हो? शिर पर मुण्डन कराकर पीछे नक्षत्र और पानी पीकर पीछे घर पूछती हो । मुझे तुषमात्र भी सुख नहीं है । जिनदत्ता ने मेरे पति को सब प्रकार से वश में कर रखा है । वे दोनों दम्पत्ति सदा जिनमन्दिर में रहते हैं वहीं सुख का अनुभव करते हैं, मध्याह्नकाल तथा संध्या समय भोजन करने के लिए आते हैं । मैं अकेली दुर्बल शरीर होकर रात्रि में भाग्य की निन्दा करती रहती हूँ । यह सब मिथ्या समाचार कनकश्री ने मायाचार से अपनी माता के आगे कहा । तदनन्तर बंधुश्री ने कहा कि-रति स्वरूप मेरी इस पुत्री को छोड़कर मन्दिर में जरा जर्जरित क्या स्त्री का सेवन करता है? इसीलिए कामी मनुष्य उचित कार्य को नहीं जानता है । जैसा कि कहा गया है - किमु कुवलयनेत्रा: सन्ति नो नाकनार्य-
क्या कुवलय नील-कमल के समान नेत्रों वाली देवांगनाएँ थी, जिससे इन्द्र ने अहिल्या नामक तापसी का सेवन किया । ठीक ही है क्योंकि हृदयरूपी कुटी में कामाग्नि के प्रज्ज्वलित रहते हुए विद्वान् होकर भी उचित और अनुचित को कौन जानता है? ॥232॥स्त्रिदशपतिरहिल्यां तापसीं यत्सिषेवे । हृदयतृण-कुटीरम दह्यमाने स्मराग्ना- वुचितमनुचितं वा वेत्ति क: पण्डितोऽपि ॥232॥ तस्य लज्जापि नास्ति । तथा चोक्तम्- उसे लज्जा भी नहीं है । जैसा कि कहा है- कामी न लज्जति न पश्यति नो श्रृणोति
संसार से विरक्त हो दीक्षा लेने के लिए विंध्याटवी की ओर जाने वाले किसी पुरुष की ओर उसकी पूर्व प्रेमिका काम-विह्वल दृष्टि से देख रही है, उसे सम्बोधित करने के लिए विरक्त पुरुष कहता है कि कामीजन न लज्जित होता है, न किसी को देखता है, न हित की बात सुनता है और न गुरुजन, आत्मीयजन अथवा अन्यजनों की अपेक्षा करता है । हे कमल पत्र के समान विशाल नेत्रों को धारण करने वाली भद्रे! तुम आगे जाओ, मेरे नेत्रों का राजमार्ग तो विंध्याटवी की ओर जा रहा है-मैं संसार की मोह-ममता से विरक्त हो दीक्षा लेने के लिए विंध्याटवी की ओर जा रहा हूँ ॥233॥नापेक्षते गुरुजनं स्वजनं परं वा । गच्छाग्रत: कमलपत्र - विशालनेत्रे! विन्ध्याटवीं प्रति दृशोर्मम राजमार्ग: ॥233॥ अहो मकरध्वजस्य माहात्म्यम्, गुरुतरं पण्डितमपि विडम्बयति स: । तथा चोक्तम्- अहो! कामदेव की महिमा आश्चर्यकारक है । वह महान् विद्वान् को भी विडम्बित कर देता है । जैसा कि कहा है- विकलयति कलाकुशलं हसति शुचिं पण्डितं विडम्बयति ।
कामदेव कलाकुशल मनुष्य को क्षणभर में विकल कर देता है, पवित्र मनुष्य की हँसी उड़ाता है, विद्वान् की विडम्बना करता है और धीर वीर पुरुष को नीचा कर देता है ॥234॥अधरमति धीरपुरुषं क्षणेन मकरध्वजो देव: ॥234॥ हे पुत्रि । किं बहुनोक्तेन, येनोपायेनेयं पापिठा जिनदत्ता म्रियते तदुपायं न करोमि । एवं पुत्री मनसि संतोषमुत्पाद्य पतिगृहे प्रस्थापिता । व्या कनकश्रिया तथा दोषोद्घाटनं कृतं यथा मातुमनसि जिनदत्ताया उपरि मत्सरो जात: । सेयं मनसि वैरं कृत्वा स्थिता- एकदानेकावधूतसहितोऽस्थ्याभरणभूषित-विग्रह: त्रिशूलडमरुनूपुराद्युपेतो महारौद्रमूर्ति: कापालिकनामा योगी भिक्षार्थं बन्धुश्रीगृहमागत: । बन्धुश्रिया च एवंविधं योगिनं दृष्ट्वा मनसि चिन्तितमहो मयानेककापालिका दृष्टा: अस्येव माहात्म्यं न कुत्रापि दृश्यते । अस्य पार्श्वे मम कार्यसिद्धिर्भविष्यतीति निश्चित्य स्वकार्यं करणायानेक-रसवती-सहिता भिक्षा दत्ता व्या । "" तावत्कीर्तिर्भवेल्लोके यावद् दानं प्रयच्छतिङ्घ" इति सुठूक्तम् । पुनर्बन्धुश्रिया भणिता कापालिक:-हे योगिन्! त्वया मम गृहे नित्यमेव भिक्षार्थमागन्तव्यम् । तेन कापालिकेनापि प्रतिपन्नं तद्वचनम् । एवं स योगी सदैव बन्धुश्रियो गृहमागच्छति । तथा चोक्तम्- हे पुत्रि! बहुत कहने से क्या? यह पापिनी जिनदत्ता जिस उपाय से मरेगी वह उपाय मैं करती हूँ । इस प्रकार पुत्री के मन में सन्तोष उत्पन्न कराकर उसे पति के घर भेज दिया । उस कनकश्री ने उस ढंग से दोषों का उद्घाटन किया कि जिससे माता के मन में जिनदत्ता के ऊपर ईर्ष्या का भाव उत्पन्न हो गया । यह मन में वैर बाँधकर रह गयी । एक समय, जो अनेक अवधूतों से सहित था, जिसका शरीर हड्डियों के आभूषणों से विभूषित था, जो त्रिशूल, डमरू तथा नूपुर आदि से युक्त था तथा जिसकी आकृति अत्यन्त भयंकर थी ऐसा एक कापालिक नाम का योगी भिक्षा के लिए बंधुश्री के घर आया । बंधुश्री ने ऐसे योगी को देखकर मन में विचार किया कि अहो! मैंने अनेक कापालिक देखे परन्तु इसका जैसा महात्म्य है वैसा नहीं दिखाई देता । इसके पास मेरे कार्य की सिद्धि हो जायेगी, ऐसा निश्चय कर उसने अपना कार्य कराने के लिए उसे अनेक जलेबियों सहित भिक्षा दी । यह ठीक ही कहा गया है कि - लोक में तभी तक किसी की कीर्ति होती है जब तक दान देता है । पश्चात् बंधुश्री ने कापालिक से कहा कि-हे योगिन्! तुम मेरे घर भिक्षा के लिए नित्य ही आया करो । कापालिक ने भी बंधुश्री का कहना स्वीकृत कर लिया । इस तरह वह योगी सदा बंधुश्री के घर आने लगा । जैसा कि कहा है - कार्यार्थं भजते लोके न कश्चित् कस्यचित्प्रिय: ।
संसार में कार्य के लिए ही कोई किसी की सेवा करता है, परमार्थ से कोई किसी का प्रिय नहीं है । दूध का क्षय देखकर बछड़ा स्वयं ही माता को छोड़ देता है ॥233॥वत्स: क्षीरक्षयं दृष्ट्वा स्वयं त्यजति मातरम् ॥233॥ एवमनुदिनं सा बन्धुश्रीर्योगिने भिक्षां ददाति । एकदा तस्या भकि्ं निरीक्ष्य योगिना मनसि चिन्तितमहो मातेयमस्या: कमप्युपकारं करिष्यामि । तथा चोक्तम्- इस प्रकार प्रतिदिन वह बंधुश्री योगी के लिए भिक्षा देने लगी । एक दिन उसकी भक्ति देखकर योगी ने मन में विचार किया कि-अहो यह तो माता है इसका कुछ उपकार करँगा । जैसा कि कहा है- जनकश्चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति ।
पिता, यज्ञोपवीत करने वाला, विद्या देने वाला, अन्न देने वाला और भय से रक्षा करने वाला ये पाँच पिता माने गये हैं ॥236॥अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितर: स्मृता: ॥236॥ किञ्च और भी कहा है- राजपत्नी गुरो: पत्नी मित्रपत्नी तथैव च ।
राजपत्नी, गुरुपत्नी, मित्रपत्नी, पत्नी की माता और अपनी माता; ये पाँच मातायें मानी गयी हैं ॥237॥पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैता: मातर: स्मृता: ॥237॥ ततो योगिना भणितम्-हे मात: मम महाविद्यासिद्धिरस्ति । यत्प्रयोजनं भवति ते तत्कथय, तथाहं करोमि । ततो रुदन्त्या बन्धुश्रिया सगद्गद्कण्ठं सर्वोऽपि वृतान्त: कथित: । किं बहुना! इयं पापिठा जिनदत्ता त्वया मारयितव्या । तव भगिन्या यथा गृहवासो भवति तथा कत्र्तव्यम् । ततो योगिना भणितम्-भो मातस्त्वं स्थिरीभव । मम जीवमारणे शङ्का नास्ति । अद्याहं कृष्णचतुर्दशीदिने श्मशानमध्ये विद्यासाधनं कृत्वा ध्रुवं जिनदत्तां मारयामि, मद्भगिनीं कनकश्रियं सुखिनीं करोमि, नोचेत्तह्र्यग्निप्रवेशं करोम्यहम् ततों बन्धुश्रीर्दृष्टा जाता स्वकार्यसिद्धित: । कापालिकोऽप्येवं प्रतिज्ञाय भणित्वा च चतुर्दशीदिने पूजाद्रव्यं गृहीत्वा श्मशाने गत: । तत्र स्वस्थान-समागतेन मृतकमेकमानीय पूजयित्वा तस्य हस्ते खङ्गं बद्धवोपवेश्य तस्य महतीं पूजां विधाय मन्त्रजपेन तेन वेताली- महाविद्याराधिता आह्वानिता च । मन्त्रप्रभावेण झटिति मृतकशरीरे वेताली विद्या प्रत्यक्षीभूता । भणति स्मच-हे कापालिक! यत्कार्यवशत: समाराधिताहं तत्कार्यं समादिश । योगिना भणितम्-भो महामाये! जिनालयस्थितां कनकश्री सपत्नीं जिनदत्तां मारय । तद्वच: श्रुत्वा तथोक्तम्-" तथास्तु" इति । किलकिलायमाना सा विद्या जिनदत्तासमीपे गता, यावद्विलोकयति तावत्तां जिनदत्तां गृहीतप्रोषधव्रतां सम्यक्त्वभावितचित्तां कायोत्सर्गस्थितां श्रीपञ्चपरमेठिपदपरिवर्तनोद्यतां पश्यति । सा वेताली विद्या प्रचण्डापि तस्या धर्ममाहात्म्येन किंचिद् विरूपकं कर्तुं समर्था नाभूत् । यदुक्तम्- तदनन्तर योगी ने कहा - हे मात! मुझे महा विद्या की सिद्धि है, तुम्हारा जो प्रयोजन हो, कहो, मैं वैसा करँगा । पश्चात् रोती हुई बंधुश्री ने गद्गद्कण्ठ से सभी हाल कह दिया । अधिक क्या कहा जाये? उसने यहाँ तक कह दिया कि यह पापिनी जिनदत्ता तेरे द्वारा मारने योग्य है । तुम्हारी बहिन का घर में निवास जिस तरह हो सके उस तरह तुम्हें करना चाहिए । तब योगी ने कहा - हे माता । तुम स्थिर होओ-निशि्ंचत रहो, मुझे जीवों को मारने में कोई शंका नहीं है । आज मैं कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन श्मशान में विद्या सिद्ध कर निश्चित ही जिनदत्ता को मार डालूँगा और अपनी बहिन कनकश्री को सुखी करँगा । यदि ऐसा नहीं कर सका तो अग्नि में प्रवेश करँगा । योगी के ऐसा कहने से बंधुश्री अपने कार्य की सिद्धि समझ हर्षित हुई । कापालिक भी ऐसी प्रतिज्ञा कर तथा कहकर चतुर्दशी के दिन पूजा की सामग्री लेकर श्मशान गया । वहाँ अपने स्थान पर पहुँचकर वह एक मुर्दा ले आया तथा पूजाकर उसके हाथ में तलवार बाँध कर बैठ गया । बैठकर उसने उस मुर्दे की बड़ी पूजा की, मन्त्र का जाप किया, पश्चात् बेताली महाविद्या की आराधना कर उसका आह्वान किया । मंत्र के प्रभाव से वह बेताली विद्या शीघ्र ही मृतक के शरीर में प्रत्यक्ष हो गयी-दिखायी देने लगी । उसने कहा - हे कापालिक । जिस कार्य के वश मेरी आराधना की है वह कार्य कहो । योगी ने कहा - हे महामाये! जिनमन्दिर में स्थित, कनकश्री की सौत जिनदत्ता को मार डालो । कापालिक के वचन सुनकर विद्या ने कहा - " तथास्तु" जैसा आपने आदेश दिया है वैसा ही करँगी । तदनन्तर हर्ष से किल-किल शब्द करती हुई वह विद्या जिनदत्ता के पास गयी । ज्योंही वह देखती है त्योंही उसने उस जिनदत्ता को देखा जो कि प्रोषध व्रत लिए हुए थी, जिसका चित्त सम्यक्त्व की भावना से युक्त था, जो कायोत्सर्ग से खड़ी थी तथा पञ्चपरमेठी के पदों का-नमस्कार मंत्र का उच्चारण करने में उद्यत थी । वह बेताली विद्या यद्यपि अत्यन्त शक्तिशालिनी थी तथा धर्म के माहात्म्य से उसका कुछ भी कर सकने के लिए समर्थ नहीं हो सकी । जैसा कि कहा है- सिंह: फेरुरिभस्तमोऽग्निरुदकं भीष्म: फणी भू-लता
जिसके हृदय में सम्यक्त्वरूपी देव निवास करता है उसके नाम से सिंह, श्रृगाल, हाथी, अग्नि, पानी, भयंकर सर्प, विष, समुद्र स्थल, गर्त, मणिधारी सर्प, चौर, दास, ग्रह, शाकिनी, रोग और शत्रु तुल्य उत्कृष्ट आपत्तियाँ विलीन हो जाती हैं ॥238॥पाथोधि: स्थलमन्दुको मणिशिराश्चौरश्च दासोऽञ्जसा । तस्य स्याद् ग्रहशाकिनीगद रिपुप्राया: पराश्चापद- स्तन्नाम्ना विलयन्ति यस्य वसते सम्यक्त्वदेवो हृदि ॥238॥ तत: सा विद्या त्रिप्रदक्षिणीकृत्य व्याघुट्य प्रेतवने गता । तां विकरालां दृष्ट्वा योगी पलाप्य गत: । पुनरपि तस्मिन् मृतक-शरीरस्थितां विद्यां दृष्ट्वा योगिनागत्य च प्रेरिता विद्या तेन प्रेरिता तत्र गता तदा सापि पूर्ववत् तस्या किंचिदपि कर्तुमसमर्था सती अट्टहासं समुच्यागता । एवं वारत्रयमभूत्, चतुर्थवेलायां निजमरणभयेन योगिना निरूपितम् । भो महाभैरवि कनकश्री जिनदत्तयोर्मध्ये या दुष्टा तां मारय शीघ्रम् । तत: सा वेताली भीषण-शब्दान् र्मुन्ती गृहप्रदेशेनागता यावत्तावत्काय-शुद्धि-चिन्तार्थमुत्थितां कनकश्रियं पश्यति स्म । कापालिकादेशं स्मृत्वा शुद्ध-सम्यक्त्वतप: शीलादिगुणयुक्तां देवगुरुभक्तां जिनदत्तां पराभवितुमसमर्थां स्वां ज्ञात्वा प्रमादिनीकनकश्रियं खड्गेन विनाश्य रक्तलिप्तगात्रा कापालिकाग्रे पितृवने समायाता विद्या योगिना विसर्जिता स्वस्थानं गता । कपालिकोऽपि निजस्थानं गत: । प्रारब्धं केनापि लङ्घयितुं न शक्यते । तथा चोक्तम्- तदनन्तर वह विद्या तीन प्रदक्षिणाएँ देकर तथा लौटकर श्मशान में चली गयी । उस भयंकर विद्या को देखकर योगी भाग गया । पश्चात् उस मृतक शरीर में स्थित विद्या को देखकर योगी ने पुन: उसे प्रेरित किया । उसके द्वारा प्रेरित विद्या जिनदत्ता के पास गयी परन्तु पहले के समान जब कुछ भी करने में समर्थ नहीं हो सकी, तब अट्टहास करके वापस आ गयी । ऐसा तीन बार हुआ, चौथी बार अपने मरण के भय से योगी ने कहा - हे महा भैरवि कनकश्री और जिनदत्ता के बीच जो दुष्टा हो उसे शीघ्र मार डालो । तदनन्तर वह बेताली भयंकर शब्द करती हुई जब घर में आयी तब उसने शरीर शुद्धि की चिन्ता के लिए उठी हुई कनकश्री को देखा । पश्चात् कापालिक की आज्ञा का स्मरण कर तथा शुद्ध सम्यक्त्व तप और शील आदि गुणों से युक्त, देव और गुरु की भक्त जिनदत्ता का पराभव करने में अपने आपको असमर्थ जानकर उस विद्या ने प्रमाद युक्त कनकश्री को तलवार से मार डाला और खून से लिप्त शरीर को धारण करने वाली वह विद्या श्मशान में कापालिक के आगे आकर खड़ी हो गयी । योगी ने उसका विसर्जन किया जिससे वह अपने स्थान पर चली गयी । कापालिक भी अपने स्थान पर चला गया । ठीक है-होनहार का कोई उल्लंघन नहीं पर सकता । जैसा कि कहा है- पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकर: किङ्कर इव
जिनके गर्भ में आने के छह माह पहले से इंद्र किंकर के समान हाथ जोड़े फिरता था, जो स्वयं सृष्टि के सृष्टा थे और जिनका पुत्र भरत निधियों का स्वामी था वे भगवान् वृषभदेव भी क्षुधातुर होकर लगातार छह माह तक पृथ्वी पर भ्रमण करते रहे, सो ठीक है क्योंकि दुष्टविधि दुर्दैव की चेष्टा का उल्लंघन इस जगत् में कोई नहीं कर सकता ॥239॥स्वयं स्रष्टा सृष्टे: पतिरथ निधीनां निजसुत: । क्षुधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगती- महो केनाप्यस्मिन् विलसितमलङ्घयं हतविधे: ॥239॥ प्रभातसमये संतुष्टचित्ता बन्धुश्रीर्निज-पुत्री-गृहं गता । शय्योपरि छिन्न-शरीरां तां दृष्टवा पूत्कारं कृत्वा राजपार्श्वं गता । राज्ञा सा पृष्टा-भो भद्रे! त्वं किमिति पूत्कारं करोषि? व्या जल्पितम्-हे देव! मम पुत्री कनकश्रीर्जिनदत्तया सपत्न्या मारिता । इमां वार्तां श्रुत्वा कोपपरायणेन राज्ञा दम्पतीधारणार्थं गृहरक्षणार्थं च भटा: प्रेषिता: । ते च सर्वेऽपि पुण्यदेव्या स्तम्भिता: । एतद्वृत्तान्तं जिनालय-प्रस्थिताभ्यां दम्पतीभ्यां श्रुत्वा जिनदत्तया भणितम्-उपार्जितं न केनापि लङ्घयितुं शक्यते । तथा चोक्तम्- प्रात:काल संतुष्टचित्त से युक्त बंधुश्री अपनी पुत्री के घर गयी । शय्या पर खण्डित शरीर वाली पुत्री को देखकर रोती हुई राजा के पास गयी । राजा ने उससे पूछा कि-हे भद्रे! तुम इस प्रकार क्यों रो रही हो? उसने कहा - हे देव! मेरी पुत्री कनकश्री को उसकी सौत जिनदत्ता ने मार डाला है । यह बात सुनकर राजा ने कुपित होकर दम्पत्ति को पकड़ने और घर की रक्षा करने के लिए सैनिक भेजे । परन्तु वे सभी सैनिक पुण्य देवी के द्वारा कील दिये गये । मन्दिर जाने वाले स्त्री-पुरुषों से यह वृत्तान्त सुनकर जिनदत्ता ने कहा कि-उपार्जित कर्म किसी के द्वारा नहीं लांघे जा सकते । जैसा कि कहा है- यस्मिन्देशे यदा काले यन्मुहूर्ते च यद्दिने ।
जिस देश में, जिस काल में, जिस मुहूर्त में और जिस दिन में जो हानि, वृद्धि, यश तथा लाभ लिखा है, वह अन्यथा नहीं होता ॥240॥हानिवृद्धियशोलाभस्तथा भवति नान्यथा ॥240॥ कायोत्सर्गं धारयित्वा चिन्व्यति स्म-अहो मह्यमेष कलङ्क समायात: । पूर्वभवे यत्कृतं तदन्यथा न भवति । पुनरेवं चिन्तयित्वोपसर्गनिवारणार्थं शासनदेवी-निमित्तं कायोत्सर्गमकार्षीत् । तथा द्विविधं संन्यासं गृहीत्वा चैत्यालये स्थिता । तत्कायोत्सर्गाकृष्टया देवव्याऽभाणि । हे बाले! त्वं स्थिरा भव, तवोपसर्गो विलयं यास्यति । श्री जैनधर्मस्य स्फूर्तिर्भाविनीति मत्वा धर्मध्यान-परा सुतिष्ठ इति गदित्वा देवता गता । जिनदत्तापि नमस्कारान् गुणयन्ती समाधिना तस्थौ । तावद् देवव्या प्रेर्यमाणो योगी नगरमध्ये वदत्येवम् । भो भो लोका: श्रूयताम् बन्धुश्रिया उपरोध्य मम प्रेरित-बेतालीविद्यया निजपुत्री मारितेति निश्चय: कार्य: । तथा कनकश्री: समत्सरा दुष्टाभिप्रायेति मारिता अत्रार्थे विकल्पो न कार्य: । देवतायोगिनोर्वच: श्रुत्वा राज्ञा लोकैश्च भणितम्-जिनदत्ता निरपराधा साध्वी च । ततो देवव्या जिनदत्ता सुवर्णरत्नवस्त्रपुष्पादिभि: पूजिता जयजयरवंचक्रे । सर्वै: शुद्धतालाप लपिता । एतस्मिन् प्रस्तावे देवै: पञ्चाश्चर्यं कृतं नगरमध्ये । एतत्सर्वं दृष्ट्वा राज्ञा भणितं-बन्धुश्रीर्दुष्टा खरोपरि चाटयित्वा निर्घाटनीया । व्योक्तम्-देव अज्ञानतस्तथा कृतं मया । मम प्रायश्चित्तं दापयितव्यम् । राज्ञोक्तम्-अस्य दोषस्य प्रायश्चित्तं न कुत्रापि श्रुतमस्ति । तथा चोक्तम्- कायोत्सर्ग को पूरा कर वह विचार करने लगी कि अहो यह कलंक मेरे लिए ही आया है । पूर्वभव में जो किया है, वह अन्यथा नहीं हो सकता । ऐसा विचार कर उसने उपसर्ग दूर करने के लिए शासन देवी के निमित्त फिर से कायोत्सर्ग किया तथा दोनों प्रकार का संन्यास लेकर वह मन्दिर में खड़ी हो गयी । उसके कायोत्सर्ग में आकृष्ट होकर शासन देवी ने कहा कि-हे बेटी! तुम स्थिर रहो, तुम्हारा उपसर्ग विलीन हो जायेगा और श्रीजैनधर्म की प्रभावना होगी । ऐसा मानकर तुम धर्मध्यान में तत्पर रहती हुई स्थित रहो । ऐसा कहकर शासन देवी चली गयी । जिनदत्ता भी नमस्कार-मंत्र का बार-बार उच्चारण करती हुई समाधि का नियम लेकर खड़ी रही । इधर यह हो रहा था, उधर शासन देवी के द्वारा प्रेरित योगी नगर के मध्य कह रहा था कि-हे नगरवासी लोगो! सुनो, बंधुश्री ने आग्रह कर मेरे द्वारा प्रेरित बेताली विद्या के द्वारा अपनी पुत्री को मरवा डाला है-ऐसा निश्चय करना चाहिए । कनकश्री मात्सर्य से सहित तथा दुष्ट अभिप्राय से युक्त थी, इसलिए मार डाल गयी है, इस विषय में विकल्प नहीं करना चाहिए । देवता और योगी के वचन सुनकर राजा तथा लोगों ने कहा - जिनदत्ता निरपराध साध्वी स्त्री है । तदनन्तर शासन देवी ने सुवर्ण, रत्न तथा वस्त्र आदि के द्वारा जिनदत्ता की पूजा की तथा उसका जय-जयकार किया । सब लोगों से शुद्धता की बात कही । इसी अवसर पर देवों ने नगर के मध्य पञ्चाश्चर्य किये । यह सब देखकर राजा ने कहा - बंधुश्री दुष्टा है अत: उसे गधे पर चढ़ाकर निकाल देना चाहिए । बंधुश्री ने कहा - मैंने अज्ञान से ऐसा किया है मुझे प्रायश्चित्त दिलाया जावे । राजा ने कहा - इस दोष का प्रायश्चित्त कहीं सुना नहीं है । जैसा कि कहा है - मित्रद्रुह: कृतघ्नस्य स्त्रीघ्नस्य पिशुनस्य च ।
मित्रद्रोही, कृतघ्नी, स्त्री की हत्या क रने वाला और चुगलखोर इन चारों का प्रायश्चित्त हमने नहीं सुना है ॥241॥चतुर्णां वयमेतेषां निष्कृतिं नैव शुश्रुम: ॥241॥ ततो निर्घाटिता सा । व्योक्तम्-अहो, उत्कृष्टपुण्यपापयो: फलमत्रैव झटिति दृश्यते । तथा चोक्तम्- तदनन्तर बन्धुश्री निकाल दी गयी । उसने कहा - अहो । अत्यधिक पुण्य और पाप का फल इसी लोक में शीघ्र ही दिख जाता है । जैसा कि कहा है - त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिमासैस्त्रिभि: पक्षैस्त्रिभिर्दिनै: ।
तीन वर्ष, तीन माह, तीन पक्ष अथवा तीन दिन में अत्यन्त उग्र पुण्य और पाप का फल इसी लोक में प्राप्त हो जाता है ॥242॥अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते ॥242॥ अनया बंधुश्रियात्युग्रपापस्य फलं तत्कालमेव दृष्टम् इति सभासदै: कथितम् । तदनन्तरं राज्ञा मनसि विचारितम्-श्रीजिनधर्मं विहायेतरधर्मस्येयान् महिमा न दृश्यते । इत्येवं निश्चित्य स जिनालये गत: । तत्र समाधिगुप्तमुनेर्दम्पत्योश्च नमस्कारं कृत्वोपविष्ट: । तदनन्तरमभाणि राज्ञा-भो मुनिनाथ दम्पत्योरनयोर्महोपसर्गो धर्मेणाद्य निवारित: । मुनिनोंक्तम्-भो राजन्! यदिष्टं तत्सर्वं धर्मेण भवति । पुनरपि- यतिनोक्तम्-राजन् अस्मिन् संसारे धर्मं विहाय सर्वमप्यनित्यम् । अतएव धर्म: कर्तव्य: । तथा चोक्तम्- इस बन्धुश्री ने अत्यन्त उग्र पाप का फल तत्काल देख लिया, ऐसा सभासदों ने कहा । तदनन्तर राजा ने मन में विचार किया-श्रीजैनधर्म को छोड़कर अन्य धर्म की इतनी महिमा दिखाई नहीं देती । ऐसा निश्चय कर वह जिनमन्दिर में गया और समाधिगुप्त मुनि तथा सेठ और सेठानी को नमस्कार कर बैठ गया । तदनन्तर राजा ने कहा - हे मुनिराज! आज धर्म के द्वारा इन दंपत्तियों-सेठ और सेठानी का उपसर्ग दूर हुआ है । मुनिराज ने कहा - हे राजन्! जो कुछ इष्ट है, वह सब धर्म से प्राप्त होता है । मुनिराज ने फिर भी कहा - हे राजन्! इस संसार में धर्म को छोड़कर सभी कुछ अनित्य है अतएव धर्म करना चाहिए । जैसा कि कहा - सकुलजन्म विभूतिरनेकधा प्रियसमागम-सौख्य-परम्परा ।
उत्तम कुल में जन्म, नाना प्रकार की विभूति, प्रियजनों के समागम से होने वाली सुख की परम्परा, राजवंश में गौरव और निर्मल यश...ऐसा धर्मरूपी वृक्ष का फल होता है ॥243॥नृपकुले गुरुता विमलं यशो भवति धर्मतरो: फलमीदृशम् ॥243॥ किञ्च- और भी कहा है - अर्था: पादरज:-समा गिरिनदीवेगोपमं यौवनं
धन पैर की धूलि के समान है, यौवन पहाड़ी नदी के वेग के तुल्य है, मनुष्य पर्याय पानी की बूँद के समान चंचल है और जीवन फमन के सदृश है...ऐसा जानकर जो दृढ़ बुद्धि होता हुआ स्वर्ग के आगल को खोलने वाला धर्म नहीं करता है वह वृद्धावस्था में पश्चाताप से पीडि़त होता हुआ शोकरूपी अग्नि द्वारा जलता है ॥244॥मानुष्यं जलबिन्दुलोलचपलं फेनोपमं जीवितम् । धर्मं यो न करोति निश्चलमति: स्वर्गार्गलोद्धाटनं पश्चात्तापहतो जरापरिगत: शोकाग्निना दह्यते ॥244॥ ततो राज्ञा पृष्टम्-भगवन् स धर्म: कीदृग्विध: । तत: साधुना कथितम्-हिंसादिरहित: । तथा चोक्तम्- तदनन्तर राजा ने पूछा-हे भगवन्! वह धर्म किस प्रकार का है? पश्चात् मुनिराज ने कहा - हिंसादि से रहित है? जैसा कि कहा है - हिंसामङ्गिषु मा कृथा वद गिरं सत्यामपापावहां
हे भव्य! यदि तुझे सुख की इच्छा है तो प्राणियों की हिंसा मत कर, पुण्य को धारण करने वाली सत्य वाणी बोल, चोरी का सर्वथा त्याग कर, आदरपूर्वक परस्त्री का संग छोड़, इष्ट सामग्री में इच्छा का परिमाण कर, क्रोधादि दोषों का त्यागकर और जैनमत में अत्यधिक प्रीति कर ॥245॥स्तेयं वर्जय सर्वथा पर-वधूसङ्गं विमुञ्चादरात् । कुर्विच्छापरिमाणमिष्टविभवे क्रोधादिदोषांस्त्यज प्रीतिं जैनमते विधेहि नितरां सौख्ये यदीच्छास्ति ते ॥245॥ तत: संग्रामशूरेण राज्ञा स्वपुत्रसिंहशूराय राज्यं दत्वा समाधिगुप्तसूरिपार्श्वे दीक्षा गृहीता । वृषभदासश्रेष्ठिना जातवैराग्यैर्बहुभिश्च जनै: स्वस्वपदे स्वस्वसुतान् स्थापयित्वा दीक्षा गृहीता । राह्या कनकमालया जिनदत्तया अन्याभि: बहुभिश्च जिनमतिपार्श्वे दीक्षा गृहीता केचित्सम्यक्त्वे केचित् श्रावकत्वे स्थिता: केचिद् भद्रपरिणामिनश्चजज्ञिरे । मुनिनोक्तम्-भो पुत्र! चारु कृतम् सर्वेषां पदार्थानां भयमस्ति, वैराग्यमेवाभयं वस्तु गृहीतं भवद्भि: । तथा चोक्तम्- तदनन्तर संग्रामशूर राजा ने अपने पुत्र सिंहशूर के लिए राज्य देकर समाधिगुप्त आचार्य के पास दीक्षा ले ली । वृषभदास सेठ ने विरक्तचित्त अन्य अनेक लोगों के साथ अपने-अपने पदों पर अपने पुत्रों को रख दीक्षा ग्रहण कर ली । रानी कनकमाला, जिनदत्ता सेठानी तथा अन्य अनेक स्त्रियों ने जिनमति आर्यिका के समीप दीक्षा ले ली । कोई सम्यग्दर्शन में कोई श्रावक के व्रत में स्थित हुए और कोई भद्र परिणामी मन्दकषायी हुए । मुनि ने कहा - हे पुत्र! तुमने अच्छा किया, सब वस्तुओं में भय है, एक वैराग्य ही भय रहित है जिसे आपने ग्रहण किया है । जैसा कि कहा है - भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भयं-
भोग में रोग का भय है, सुख में क्षय का भय है,धन में अग्नि और राजा का भय है, दास में स्वामी का भय है, विजय में शत्रु का भय है, कुल में कुल्टा स्त्री का भय है, मान में मलिनता आने का भय है, गुण में दुर्जन का भय है और शरीर में यमराज-मृत्यु का भय है । इस प्रकार सभी वस्तुओं में भय है परन्तु आश्चर्य है कि यह वैराग्य अभय है-भय से रहित है ॥246॥दासे स्वामिभयं जये रिपुभयं वंशे कुयोषिद्भयम् । माने म्लानभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं- सर्वं नाम भयं भवेदिदमहो वैराग्यमेवाभयम् ॥246॥ न वैराग्यात्परं भाग्यम् । वैराग्य से बढ़कर भाग्य नहीं है । ततो मित्रश्रिया भणितम्-भो स्वामिन्! श्रीजिनधर्मस्यैतत्फलं मया प्रत्यक्षेण दृष्टमनुभूतं श्रुर्त अतो दृढतरं सम्यक्त्वं जातं मम । अर्हद्दासेनोक्तम्-भो भार्ये! यत् त्वया दृष्टं तदहं श्रद्दधामि, इच्छामि, रोचे । अन्याभिश्च तथैव भणितम् । तत: कुन्दलव्या भणितं-सर्वमेतदसत्यम् । एतत्सर्वं श्रुत्वा राज्ञा मन्त्रिणा चौरेण च स्वमनसि भणितम्-कथमियं पापिठा सत्यस्यासत्यत्वं कथयति । अस्या निगदं प्रात: करिष्ये । प्रातरियं निर्घाटनीया गर्दभोपरि चाटयित्वा पुनरपि चौरेण स्वमनसि चिन्तितम्-अहो । "गुणं विहाय लोकेऽस्मिन् दोषं गृह्वाति दुर्जन:" लोकोक्तिरियं सत्या । तथा चोक्तम्- तदनन्तर मित्रश्री ने कहा - हे स्वामिन्! श्री जिनधर्म का यह फल मैंने प्रत्यक्ष देखा, अनुभव किया और सुना है इसलिए मुझे अत्यन्त दृढ़ सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है । अर्हद्दास सेठ ने कहा - हे प्रिये! तुमने जो देखा है मैं उसकी श्रद्धा करता हूँ, उसकी इच्छा करता हूँ और उसकी रुचि करता हूँ अन्य स्त्रियों ने भी ऐसा ही कहा । तदनन्तर कुन्दलता ने कहा - यह सब असत्य है । यह सब सुन राजा, मन्त्री और चोर ने अपने मन में कहा - यह पापिनी सत्य को असत्य क्यों कहती है? प्रात:काल इसका दण्ड करँगा । प्रात:काल इसे गधे पर चढ़ाकर निकालना चाहिए । चोर ने फिर भी अपने मन में विचार किया- अहो! इहलोक में दुर्जन गुण को छोड़कर दोष को ग्रहण करता है । यह कहावत सत्य है । जैसा कि कहा है- दोषमेव समाधत्ते न गुणं विगुणो जन: ।
निर्गुण मनुष्य दोष को ग्रहण करता है गुण को नहीं, क्योंकि स्तन पर लगी हुई जोंक रक्त ही ग्रहण करती है दूध नहीं ॥247॥जलौका स्तनसंपृक्त: रक्तं पिबति नामृतम् ॥247॥ दोषान् गृह्वन्ति यत्नेन गुणास्त्यजन्ति दूरत: । दोषग्राही गुणत्यागी चालणीरिव दुर्जन: ॥248॥ दुष्टकण्टकितो हृष्टा भवन्ति परतापत: । उष्णकाले सकिसलया जायन्ते हि यवासका: ॥249॥ दुर्जन मनुष्य यत्नपूर्वक दोषों को ग्रहण करते हैं और गुणों को दूर से ही छोड़ते हैं । ठीक ही है क्योंकि-दुर्जन मनुष्य चालनी के समान दोषों को ग्रहण करता है और गुणों का त्याग करता है ॥248॥ दुष्ट मनुष्यरूप जवासे के पौधे दूसरों के सन्ताप से हर्षित होते हैं क्योंकि वे ग्रीष्मकाल में नवीन पल्लवों से युक्त होते हैं ॥249॥ तत: श्रेष्ठिना कुन्दलता भणिता-भो कुन्दलते! त्वमपि ईदृशं धर्मफलं श्रुत्वा संदेहं र्मु नृत्यादिकं कुरु । तथा चोक्तम्- तदनन्तर सेठ ने कुन्दलता से कहा - हे कुन्दलते! तुम भी ऐसा धर्म का फल सुनकर संदेह छोड़ो तथा नृत्यादिक करो । जैसा कि कहा है- श्रीसर्वज्ञपदार्चनं गुणिजने प्रीतिर्गुरौ नम्रता
श्री सर्वज्ञ भगवान् के चरणों की पूजा, गुणीजनों में प्रीति, गुरु में नम्रता, बंधुजनों में मित्रता, दु:खीजनों पर दया, सिद्धान्त के रहस्य को सुनना, पात्र में दान देना, कषायों को जीतना, साधर्मी भाइयों में आश्चर्यकारक वात्सल्यभाव धारण करना और निरन्तर परोपकार करना; ये सब आपको सदा करना चाहिए ॥250॥मैत्री बन्धुषु दु:खितेषु च दया सिद्धान्ततत्त्वश्रुति: । पात्रे दानविधि: कषायविजय: साधम्र्यकेष्वद्भुतं वात्सल्यं सततं परोपकरणं कार्यं भवद्भि: सदा ॥250॥ ॥ इति द्वितीयकथा समाप्ता॥ ॥ इस प्रकार द्वितीय कथा पूर्ण हुई ॥ |