कथा : वश्याञ्जनतन्त्राणि मन्त्रयन्त्राण्यनेकधा ।सम्यक्त्वप्राप्तचन्दनश्रिय: कथा तत: श्रेष्ठिना चन्दनश्री: भणिता-भो भार्ये! त्वमपि स्वसम्यक्त्वकारणं कथय । तत: सा कथयति । तद्यथा- कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनागपुरे राजा भूभोग:, राज्ञी भोगवती, राजश्रेठी गुणपाल: परम धार्मिकोऽधिक-सम्यग्दृष्टि: भार्या गुणवती । तत्रैव नगरे ब्राह्मणसोमदत्तो महादरिद्र:, भार्या सोमिल्लातीव साध्वी । व्यो: पुत्री सोमा । एकस्मिन् समये ज्वराक्रान्ता सोमिल्ला मृता । तस्या: शोकेन सोमदत्तो महादु:खी जात: । शोकाग्निना दह्यमान: स यापि रतिं न लभते । एकदा वनमध्ये रुदन् केनचिद्यतिना दृष्टो भणितश्च-भो पुत्र! किमर्थं दुखं करोषि? तेन दु:खकारणं निवेदितम्, पुन: यतिनाऽभाणि-रे पुत्र जातस्य जीवस्य मरणं ध्रुवमस्ति । ततो महति प्रयत्नेऽप्ययं पापीयान् कालो जीवं कवलयत्येव । पुनरपि यतिनोक्तम्-हे पुत्र! तवेहलोके परलोके च धर्म एव हितकारी नान्य: । तथा चोक्तम्- तदनन्तर सेठ ने चन्दनश्री से कहा - हे भार्ये! तुम भी अपने सम्यक्त्व का कारण कहो । पश्चात् वह कहने लगी - कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर में राजा भूभोग रहते थे, उनकी रानी का नाम भोगवती था । वहीं राजसेठ गुणपाल रहता था, जो परमधार्मिक और अत्यधिक सम्यग्दृष्टि था । उसकी स्त्री का नाम गुणवती था । उसी नगर में सोमदत्त नाम का एक अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम सोमिल्ला था, जो अत्यन्त पतिव्रता थी । उन दोनों के सोमा नाम की पुत्री थी । एक समय ज्वर से पीडि़त होकर सोमिल्ला मर गयी । उसके शोक से सोमदत्त बहुत दुखी हुआ । शोकरूपी अग्नि से अत्यन्त दग्ध होता हुआ वह कहीं भी प्रीति को प्राप्त नहीं होता था । एक समय वह रोता हुआ वन में बैठा था कि किन्हीं मुनिराज ने उसे देख लिया तथा उससे कहा - हे पुत्र! किसलिये दु:ख करते हो ? उसने दु:ख का कारण कह दिया, मुनिराज ने फिर कहा - अरे पुत्र! जो जीव उत्पन्न होता है, उसका मरण तो निश्चित ही होता है इसलिए बहुत भारी प्रयत्न करने पर भी यह पापी काल उसे कवलित कर ही लेता है । बातचीत के प्रसंग में मुनिराज ने फिर कहा - हे पुत्र! तुझे इहलोक तथा परलोक में धर्म ही हितकारी है अन्य नहीं । जैसा कि कहा है - धर्माद् देवगति: परत्र च शुभं शुल्कं च जन्मक्षय-
धर्म से परभव में देवगति प्राप्त होती है । शुभ शुक्लध्यान प्राप्त होता है और शुक्लध्यान से संसार का क्षय होता है इसलिए ज्ञानीजन को उस उत्कृष्ट शुक्लध्यान के विषय में यत्न करना चाहिए और सदा उसी की सेवा करना चाहिए, जो कि व्याधिरूपी रोग को नष्ट करने वाला है, हितकारी है, संसार से निस्तरण करने वाला है, संसार को नष्ट करने वाला है और मोक्ष के द्वार पर लगे हुए कपाटों को तोड़ने वाला है ॥251॥स्तस्माद् व्याधिरुजान्तके हितकरे संसारनिस्तारके । शुक्लध्यानवरे भवप्रमथने कुर्याद् प्रयत्नं बुधो- मोक्षद्वारकपाटपाटनपरे संसेव्यतां सर्वदा ॥251॥ किञ्च- और भी कहा है - धर्माज्जन्म कुले शरीरपटुता सौभाग्यमायुर्धनं
धर्म से अच्छे कुल में जन्म होता है, शरीर में सामर्थ्य रहती है, सौभाग्य, आयु और धन प्राप्त होता है । निर्मल यश, विद्या, धन-संपत्ति और लक्ष्मी धर्म से ही प्राप्त होती है । वन से तथा महासागर से धर्म ही रक्षा करता है, वास्तव में अच्छी तरह उपासना किया हुआ धर्म स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला है ॥252॥धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशोविद्यार्थसंपच्छ्रिय: । कान्ताराच्च महार्णवाच्च सततं धर्म: परित्रायते धर्म्म: सम्यगुपासितो भवति हि स्वर्गापवर्गप्रद: ॥252॥ इति यतिवचनं श्रुत्वा शोकं त्यक्त्वा उपशमनं गत्वा श्रावको जात: । यथाशक्ति दानमपि करोति तथा चोक्तम्- इस प्रकार मुनि के वचन सुनकर उसने शोक छोड़ दिया तथा उपशम भाव को प्राप्त होकर श्रावक हो गया । वह यथाशक्ति दान भी करने लगा । जैसा कि कहा है- देयं स्तोकादपि स्तोकं न व्यपेक्षा महोदय: ।
थोड़ी वस्तु भी दान के योग्य होती है, दान के विषय में महान् अभ्युदय की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती है क्योंकि इच्छानुसार शक्ति कब और किसके होगी ? ॥253॥इच्छानुकारिणी शक्ति: कदा कस्य भविष्यति ॥253॥ एवं कालं गमयति । एकदा तेन श्रेष्ठिना गुणपालेन "श्रावको दरिद्रोऽयम्" इति ज्ञात्वा निजगृहं नीत्वा पूजित: । सर्वप्रकारेण तस्य निर्वाहं करोति स श्रेठी । तथा भणितं च । अहो! महत्संसर्गेण गुणी पूज्यश्च को न भवति? तथा चोक्तम्- इस प्रकार वह अपना समय व्यतीत करने लगा । एक दिन उस गुणपाल सेठ ने "यह श्रावक दरिद्र है" यह जान अपने घर ले जाकर उसका सम्मान किया । वह सेठ उसका सब प्रकार से निर्वाह करता था । ऐसा कहा भी है - महापुरुषों की संगति से गुणवान और पूज्य कौन नहीं होता है ? कहा भी है - गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषा: ।
गुण, गुणों के जानने वालों के पास गुण होते हैं और निर्गुण के पास जाकर वे गुण दोष हो जाते हैं । जैसे नदियाँ अत्यन्त मधुर जल को धारण करती हैं परन्तु समुद्र को प्राप्त कर वे ही नदियाँ अपेय हो जाती हैं अर्थात् खारी हो जाने से उनका पानी पीने योग्य नहीं रहता है ॥254॥सुस्वादुतोयं प्रवहन्ति नद्य: समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया: ॥254॥ अन्यच्च- और भी कहा है- गुणिन: समीपवर्ती पूज्यो लोके गुणविहीनोऽपि ।
गुणी मनुष्य के पास रहने वाला गुणहीन मनुष्य भी लोक में पूज्य हो जाता है । जैसे- निर्मल नेत्र का संसर्ग पाकर अंजन सुन्दरता को प्राप्त हो जाता है ॥255॥विमलेक्षण-संसर्गादञ्जनमाप्नोति काम्यत्वम् ॥255॥ महानुभावसंसर्ग: कस्य नोन्नतिकारणम् ।
महापुरुषों की संगति किसकी उन्नति का कारण नहीं है ? अर्थात् सभी की उन्नति का कारण है क्योंकि गंगा में प्रविष्ट हुआ गलियों का पानी देवों के द्वारा भी वन्दनीय हो जाता है ॥256॥गङ्गाप्रविष्टं रथ्याम्बु त्रिदशैरपि वन्द्यते ॥256॥ एकदा रुजाक्रान्तेन सोमदत्तेन निजमरणमासन्नं ज्ञात्वा गुणपाल-श्रेष्ठिनमाहूय भणितम्-भो श्रेष्ठिन् तव साहाय्येन किञ्चदपि दुखं न ज्ञातं मया श्रावकत्वं चाराधितम् । अपर्र साम्प्रतं परलोकं प्रस्थितस्यममैका चिन्तास्ति-पुत्रिसोमा श्रावकब्राह्मणं विहायान्यस्य न दातव्या । एवं भणित्वा निजपुत्रीं गुणपालस्य हस्ते दत्वा स्वयं संयमत्वेन मरणं कृत्वा स्वर्गं गत: । तथा चोक्तम्- एक समय रोग से पीडि़त सोमदत्त ने अपना मरण निकट जानकर गुणपाल सेठ को बुलाकर कहा - हे सेठजी! आपकी सहायता से मुझे कुछ भी दु:ख का अनुभव नहीं हुआ, श्रावक धर्म की अच्छी तरह आराधना की परन्तु इस समय परलोक को जाते हुए मुझे एक चिन्ता है । वह यह है कि बेटी सोमा श्रावक ब्राह्मण को छोड़कर अन्य को नहीं दी जाये । ऐसा कहकर अपनी पुत्री को गुणपाल के हाथ में देकर वह स्वयं संयमपूर्वक मर गया और मरकर स्वर्ग को गया । कहा भी है - विद्या तपो धनं शौर्यं कुलीनत्वमरोगिता ।
विद्या, तप, धन, शूरता, कुलीनता, आरोग्य, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष-सब कुछ धर्म से प्राप्त होता है ॥257॥राज्यं स्वर्गश्च मोक्षश्च सर्वं धर्मादिवाप्यते ॥257॥ गुणपाल: सोमां निज-पुत्रीवत्पालयति । अथ तस्मिन्नेव नगरे ब्राह्मणो धूर्तो रुद्रदत्तनामा वसति । तथा चोक्तं धूर्तलक्षणम्- गुणपाल सोमा का अपनी पुत्री के समान पालन करने लगा । तदनन्तर उसी नगर में रुद्रदत्त नाम का एक धूर्त ब्राह्मण रहता था । जैसा कि धूर्त का लक्षण कहा गया है- मुखं पद्मदलाकारं वाचा चन्दन-शीतलम् ।
जिसका मुख कमल की कलिका के आकार का है, वचन चन्दन के समान शीतल है और हृदय कैंची से संयुक्त है, वह धूर्त है, यह तीन प्रकार का धूर्त का लक्षण है ॥258॥हृदयं कत्र्तरिसंयुक्तं त्रिविश्रशं धूर्तलक्षणम् ॥258॥ स प्रतिदिनं द्यूतक्रीडां करोति । एकस्मिन् दिवसे सा सोमा मार्गे क्रीडार्थं गच्छन्ती द्यूतकारैर्दृष्टा । पृष्टाश्च ते रुद्रदत्तेन-कस्येयं पुत्री ? तैर्भणितं सोमदत्तस्य पुत्री । पित्रा मरणसमये गुणपालस्य हस्ते दत्ता । पुण्यवान् स स्वपुत्रीवदिमां पालयति कुमारिकां । तेषां वचनं श्रुत्वा भणिति रुद्रदत्तो विवाहयामीमाम् । तैर्भणितम्-रे अज्ञानेन किमसम्बद्धं ब्रवीषि । दीक्षितादिब्राह्मणैर्विवाहयितुं याचिता । परन्तु श्रेठी जैनं ब्राह्मणं विहायान्यस्य न प्रयच्छति । त्वं तु कितवशिरोमणिद्र्यत-कार: सर्वभ्रष्ट:, कथं त्वया प्राप्यते? ततस्तेषां वचनं श्रुत्वा साभिमानव्या रुद्रदत्तो वदसिस्म । अहो! मम बुद्धिकौशलं पश्यत । यद्येनां न विवाहयामि तदा मम पशुमध्ये रेखा देयेति प्रतिज्ञां कृत्वा देशान्तरं गत:, कस्यचिन्मुने: समीपे मायारूपेण ब्रह्मचारी जात: । देव- वन्दनादिक्रियां पठित्वा व्याघुट्य तत्रैव नगर आगत: । गुणपालकारितचैत्यालये स्थित: । तस्यागमनं श्रुत्वा गुणपालश्चैत्यालय आगत: । गुणपाल इच्छाकारं कृत्वोपविष्ट: । ब्रह्मचारिणा "दर्शन-विशुद्धिरस्तु" इत्याशीर्वादो दत्त: । श्रेष्ठिना भणितम्-धन्योऽयम्, अस्य दिवसा धर्म्मध्यानेन गच्छन्तीति । पुनरपि श्रेष्ठिना पृठ:-भो प्रभो क्व जन्मभूमि: कस्यान्तेवासी कस्मात्समागतोऽसि ? वर्णिना भणितम्-अष्टौपवासिनो जिनचन्द्र- भट्टारकस्याहमन्तेवासी पूर्वदेशं परिभ्रम्य तीर्थङ्करदेवपञ्चकल्याणकस्थानानि वन्दित्वा सम्प्रति शान्ति-कुन्थ्वर-देवानां वन्दनार्थमागतोऽहम् । श्रेष्ठिना भणितम्-धन्योंऽयमस्य दिवसो धर्म्मध्यानेन गच्छति । तथा चोक्तम्- वह प्रतिदिन जुआ खेलता था । एक दिन वह सोमा क्रीड़ा के लिए मार्ग में जा रही थी कि जुवारियों ने उसे देख लिया । रुद्रदत्त ने उन जुवारियों से पूछा कि यह किसकी पुत्री है ? उन्होंने कहा कि-सोमदत्त की पुत्री है, पिता ने मरणकाल में गुणपाल के हाथ में दी थी । वह पुण्यशाली गुणपाल, अपनी पुत्री के समान इस कुमारी का पालन करता है । जुवारियों के वचन सुनकर रुद्रदत्त कहने लगा कि - मैं इससे विवाह करँगा । उन्होंने कहा - अरे अज्ञान से असंबद्ध बात क्यों बोलता है ? दीक्षित आदि ब्राह्मणों ने विवाह करने के लिए इसकी याचना की है परन्तु सेठ जैन ब्राह्मण को छोड़कर अन्य को नहीं देता है । तू तो जुवारियों का सिरमौर सर्वभ्रष्ट जुवारी है, अत: तेरे द्वारा कैसे प्राप्त की जा सकती है ? तदनन्तर उनके वचन सुन रुद्रदत्त ने बड़े अभिमान से कहा - अहो! मेरी बुद्धि की कुशलता को देखो । यदि मैं इसे न विवाहूँ तो पशुओं के बीच मेरी गिनती करना । इस प्रकार की प्रतिज्ञा कर वह अन्य देश को चला गया । वहाँ वह किसी मुनि के पास मायारूप से ब्रह्मचारी हो गया । देव-वन्दना आदि की क्रिया को पढ़कर वह पुन: उसी नगर में वापस लौट आया और गुणपाल के द्वारा निर्मापित चैत्यालय में ठहर गया । उसका आगमन सुन गुणपाल चैत्यालय आया और ब्रह्मचारी को इच्छाकार करके बैठ गया । ब्रह्मचारी ने "दर्शन विशुद्धि हो" यह आशीर्वाद दिया । सेठ ने कहा - यह धन्य है, इसके दिन धर्मध्यान से व्यतीत होते हैं । सेठ ने पूछा हे प्रभो! आपकी जन्मभूमि कहाँ है किसके शिष्य हैं और कहाँ से आये हैं ? ब्रह्मचारी ने कहा कि-मैं आठ उपवास करने वाले जिनचन्द्र भट्टारक का शिष्य हूँ । पूर्व देश में घूमकर तथा तीर्थंकर भगवान् के पंच कल्याणकों के स्थानों की वन्दना कर इस समय शान्ति, कुन्थु और अरनाथ भगवान् की वन्दना के लिए आया हूँ । सेठ ने कहा - यह धन्य है, इसके दिन धर्मध्यान से जाते हैं । जैसा कि कहा है- देवान् पूजयतो दयां विदधत: सत्यं वचो जल्पत:
जो देवों की पूजा करता है, दया करता है, सत्यवचन बोलता है, सज्जनों की संगति को नहीं छोड़ता है, दान देता है और गर्व को छोड़ता है, इस प्रकार जिसके दिन व्यतीत होते हैं उसी के जन्म, जीवन और कुल को हम धन्य मानते हैं और उसी के द्वारा यह पृथ्वी सुशोभित है ॥259॥सद्भि: सङ्गमनुज्झतो वितरतो दानं मदं मुञ्चत: । यस्येत्थं पुरुषस्य यान्ति दिवसास्तस्यैव मन्यामहे श्लाघ्यं जन्म च जीवितं च सकुलं तेनैव भूर्भूषिता ॥259॥ पुनरपि गुणपालेन वर्णी पृष्ट:-भो प्रभो । क्व जन्मभूमि: तेनोक्तम्-अत्र नगरे ब्राह्मण: सोमशर्मा भार्या सोमिल्ला व्यो: पुत्रो रुद्रदत्तोऽहं पितृमातृमरणावस्थां दृष्ट्वा शोकेन तीर्थयात्रायां गत: । वाराणस्यां जिनचन्द्रभट्टारकेण किं कुलेन? किं मातृपक्षेण? संबोध्य ब्रह्मचारी कृतोऽहम् । किं गोत्रेण? किं देशेन? संसारे किं कस्य नित्यमस्ति? अतएव मम धर्म एव शरणं येन सर्वसिद्धिर्भवति । तथा चोक्तम्- गुणपाल ने उस ब्रह्मचारी से पुन: पूछा-हे प्रभो! आपकी जन्मभूमि कहाँ है ? उसने कहा - इसी नगर में सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था, उसकी स्त्री का नाम सोमिल्ला था । मैं उन दोनों का पुत्र रुद्रदत्त हूँ, पिता व माता की मरणावस्था देखकर शोक से तीर्थयात्रा के लिए चला गया था । वाराणसी में जिनचन्द्र भट्टारक ने सम्बोधित कर मुझे ब्रह्मचारी बना दिया । अब मुझे गोत्र से तथा देश से क्या प्रयोजन है ? कुल तथा मातृवंश से क्या मतलब है ? संसार में किसकी कौन वस्तु नित्य है ? अर्थात् कोई भी नहीं, इसलिए मेरा धर्म ही शरण है जिससे कि सब पदार्थों की सिद्धि होती है । जैसा कि कहा है - धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनद: कामार्थिनां कामद:
यह धर्म, धन के प्रेमी मनुष्यों को धन देने वाला है, काम के इच्छुक मनुष्यों को काम देने वाला है, सौभाग्य के अभिलाषी मनुष्यों को सौभाग्य देने वाला है और क्या, पुत्र के चाहने वालों को पुत्र देने वाला है, राज्यार्थियों को राज्य देने वाला है अथवा अनेक विकल्पों से क्या प्रयोजन है ? वह कौन-सी वस्तु है जो मनुष्य के लिए नहीं देता है ? प्रमुख बात है कि धर्म, स्वर्ग और मोक्ष को भी देता है ॥260॥सौभाग्यार्थिषु तत्प्रद: किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रक: । राज्यार्थिष्वपि राज्यपद: किमथवा नानाविकल्पैर्नृणां तत्किं यन्न ददाति किञ्च तनुते स्वर्गापवर्गावपि ॥260॥ बहुधा प्रशंस्य पुनरपि श्रेष्ठिना भणितम्-भो ब्रह्मचारिन् ! त्वया सावधिकं निरवधिकं वा ब्रह्मचर्यं गृहीतम्? तेनोक्तम्-सावधिकं, परन्तु मम स्त्र्युपरि वाञ्छा नास्ति, यत: स्त्रियो हि विषमं विषम् । तथा चोक्तम्- बहुत प्रकार से प्रशंसा कर सेठ ने फिर भी कहा - हे ब्रह्मचारी जी! आपने ब्रह्मचर्य व्रत कुछ अवधि के साथ लिया है या बिना अवधि का ? उसने कहा - अवधि के साथ लिया है परन्तु स्त्रियों के ऊपर मेरी इच्छा नहीं है क्योंकि स्त्रियाँ विषम विष हैं । जैसा कि कहा है - कण्ठस्थ: कालकूटोऽपि शम्भो किमपि नाकरोत् ।
कण्ठ में स्थित कालकूट भी जिस शम्भु का कुछ भी नहीं कर सका वे शम्भु भी स्त्रियों द्वारा अत्यधिक बाधा को प्राप्त हुए हैं, यह ठीक ही है क्योंकि स्त्रियाँ विषम विष हैं ॥261॥सोऽपि प्रवाध्यते स्त्रीभि: स्त्रियो हि विषमं विषम् ॥261॥ पादाहत: प्रमदया विकसत्यशोक:
स्त्री के द्वारा पैर से ताडि़त हुआ अशोक वृक्ष विकसित हो जाता है, मुख की मदिरा से सींचा गया बकुल का वृक्ष शोक छोड़ देता है, आलिंगन को प्राप्त हुआ कुरवक खिल उठता है और देखा हुआ तिलक वृक्ष कलिकाओं से युक्त हो जाता है ॥262॥शोकं जहाति वकुलो मुखसीधुसिक्त: । आलिङ्गित: कुरुवक: कुरुते विकाश- मालोकितस्तिलक उत्कलिको विभाति ॥262॥ सत्यं शौचं श्रुतं वित्तं सौख्यं लोकेषु पूज्यता ।
सत्य, शुद्धता, शास्त्र ज्ञान, धन, सुख और लोक प्रतिष्ठा, मनुष्यों की इतनी वस्तुएँ स्त्रियों के प्रसंग से नष्ट हो जाती हैं ॥263॥नश्यन्त्येतानि सर्वाणि पुंसां स्त्रीणां प्रसङ्गत: ॥263॥ श्रेष्ठिनाभाणि-भो विभो! मम गृहे ब्राह्मणपुत्री तिष्ठति । तां त्वं विवाह्य श्रावकं ज्ञात्वा तुभ्यं ददामि । श्रेष्ठि- वचनं श्रुत्वा तेनोक्तम्-विवाहेन संसारपातो भवति । अतएव विवाहेन मे प्रयोजनं नास्ति । अन्यच्च, स्त्रीसंगमेन मयाभ्यस्तं शास्त्रमपि गच्छति । तथा चोक्तम्- सेठ ने कहा - हे विभो! मेरे घर ब्राह्मण की पुत्री है, उससे आप विवाह कर लीजिये, श्रावक जानकर आपके लिए देता हूँ । सेठ के वचन सुनकर उसने कहा - विवाह से संसार में पतन होता है इसलिए मुझे विवाह से प्रयोजन नहीं है । दूसरी बात यह है कि स्त्री के समागम से मेरे द्वारा अभ्यस्त शास्त्र भी चला जाता है-नष्ट हो जाता है । जैसा कि कहा गया है- व्यर्थीभवन्ति सर्वाणि वनिताराधनं प्रति ॥264॥ स्त्रियों की सेवा में वशीकरण, अंजन, तन्त्र और अनेक प्रकार के मन्त्र तथा यन्त्र सभी कुछ व्यर्थ हो जाते हैं ॥264॥ तत: श्रेष्ठिना महताग्रहेण विवाहित: । विवाहानन्तरं द्वितीयदिने करकङ्कण सहितो रुद्रदत्त: कितवस्थानं गत: । कितवानामग्रे भणितम्-भो कितवा: मया सोमापाणिग्रहणे या प्रतिज्ञा कृता सा बुद्धिबलेन पूरितास्ति । इति श्रुत्वा तै: प्रशंसितो रुद्रदत्त: । ततस्तस्य पूर्वभार्या वसुमित्रा-कुट्टिन्या: पुत्री कामलता वेश्या, तस्या: गृहे पुनरपि संस्थित: । रुद्रदत्तस्य वृत्तान्तं श्रुत्वा दृष्ट्वा च विलक्ष्यीभूय सोमा चिन्व्यति-अहो, मम कर्मणां स्वभावोऽयं, यदुपार्जितं तत्कथं गच्छति । तद्वृत्तान्तं श्रुत्वा सोमाग्रे श्रेष्ठिना भणितम्-भो पुत्रि! विरोधं मा कुरु कलियुगस्वभावोऽयम् तथा चोक्तम्- तदनन्तर सेठ ने बहुत भारी आग्रह से उसके साथ पुत्री का विवाह कर दिया । विवाह के बाद दूसरे दिन हाथ में कंकण बाँधे हुए रुद्रदत्त जुवारियों के स्थान पर गया और जुवारियों के आगे कहने लगा-अरे जुवारियो! मैंने सोमा के साथ विवाह करने की जो प्रतिज्ञा की थी वह बुद्धि बल से पूर्ण हो गयी है । यह सुनकर जुवारियों ने रुद्रदत्त की प्रशंसा की । तदनन्तर वह अपनी पहले वाली स्त्री कामलता वेश्या, जो कि वसुमित्रा वेश्या की पुत्री थी, के घर फिर से रहने लगा । रुद्रदत्त का हाल सुन व देखकर लज्जित होती हुई सोमा ने विचार किया अहो! मेरे कर्मों का यह स्वभाव है, जो उपार्जित किया है वह कैसे जा सकता है ? यह सब समाचार सुनकर सेठ ने सोमा के आगे कहा - हे पुत्रि! विरोध मत करो, यह कलियुग का स्वभाव है । जैसा कि कहा है- यद्भावि तद्भवति नित्यमयत्नतोऽपि
जो होने वाला है वह निरन्तर बिना प्रयत्न के भी होता है और जो नहीं होने वाला है वह बहुत भारी प्रयत्न से भी नहीं होता है । इस प्रकार जब प्राणियों का संसार विधाता के वशीभूत होकर चल रहा है तब विवेकी जन को क्या शोक करना है ? ॥265॥यत्नेन वापि महता न भवत्यभावि । एवं विधातृवशवर्तिनि जीवलोके किं शोच्यमस्ति पुरुषस्य विचक्षणस्य ॥265॥ शशिनि खलु कलङ्क: कण्टका: पद्मनाले ह्युदधिजलमपेयं पण्डिते निर्धनत्वम् । दयितजनवियोगो दुर्भगत्वं सुरूपे धनपति-कृपणत्वं रत्नदोषे कृतान्तम् ॥266॥ निश्चय से चन्द्रमा में कलंक होता है, पद्मनाल में काँटे होते हैं, समुद्र का जल अपेय होता है, पण्डित जन में निर्धनता होती है, प्रियजन का वियोग होता है, सुन्दर रूप में दौर्भाग्य होता है, धनाढ्य में कृपणता होती है और रत्न में भी दोष उत्पन्न करने वाला दुर्देव होता है ॥266॥ दुर्लभा हि सत्या प्रवृत्तिर्वेश्याव्यसनिनाम् । तथा चोक्तम्- वेश्याव्यसन में आसक्त मनुष्यों की सच्ची प्रवृत्ति होना दुर्लभ है । जैसा कि कहा गया है - सत्यं शौचं शमं शीलं संयमं नियमं तथा ।
विटमनुष्य, सत्य, शौच, शम, शील, संयम और नियम को बाहर छोड़कर वेश्या स्त्री के घर में प्रवेश करते हैं ॥267॥प्रविशन्ति बहिर्मुक्त्वा विटा: पण्याङ्गनागृहे ॥267॥ तपो व्रतं यशो विद्या कुलीनत्वं दमो दया । छिद्यन्ते वेश्यया सद्य: कुठारेण यथा लता ॥268॥ जिस प्रकार कुठार के द्वारा लता छिद जाती है उसी प्रकार वेश्या के द्वारा तप, व्रत, विद्या, कुलीनता, दम और दया शीघ्र छिद जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं ॥268॥ पुनरप्युक्तम्- फिर भी कहा है - श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ।
बड़े-बड़े पुरुषों के भी अच्छे कार्य अनेक विघ्नों से युक्त होते हैं और खोटे कार्य में प्रवृत्ति करने वाले पुरुषों के गणेश कहीं चले जाते हैं अर्थात् उनके कार्य में विघ्न नहीं आते ॥269॥अश्रेयसि प्रवृत्तानां यापि याति विनायक: ॥269॥ सोमया भणितम्-भो तात मम मनसि किमपि नास्ति, कितवस्य स्वभावोऽयम् । तथा चोक्तम्- सोमा ने कहा - हे पिताजी! मेरे मन में कुछ भी नहीं है । जुवारी का यह स्वभाव है! जैसा कि कहा है - नास्ति सत्यं सदा चौरे न शौचं वृषलीपतौ ।
चोर में सदा सत्य नहीं रहता, शूद्रा स्त्री के पति में पवित्रता नहीं होती, मदिरा पीने वाले में मित्रता नहीं होती और जुवारी में तीनों नहीं रहते ॥270॥मद्यपे सौहृदं नास्ति द्यूते च त्रिव्यं नहि ॥270॥ किञ्च तात! कलियुगस्वभावं जानामि । तथा चोक्तम्- दूसरी बात यह है कि पिताजी! मैं कलियुग के स्वभाव को जानती हूँ । जैसा कि कहा गया है - अनृत - पटुता चौर्य - बुद्धि: सतामप्यपमानता ।
असत्य बोलने में चतुराई, चोरी में बुद्धि, सत्पुरुषों का भी अपमान करना, अविनय में बुद्धि रखना, धर्म के विरुद्ध चलना, गुरुओं से छल करना, सामने सुन्दर और मीठी बात करना तथा पीछे विघात करना, ये सब कलियुगरूपी महाराज की विभूतियाँ हैं ॥271॥मतिरविनये धर्म्मे साव्यं गुरुष्वपि र्वना॥ ललित - मधुरा - वाक् प्रत्यक्षे परोक्षविधातिनी कलियुग-महाराजस्यैता: स्फुरन्ति विभूव्य: ॥271॥ काल: सम्प्रति वर्तते कलियुगे सत्या नरा दुर्लभा:- नाना चोरगणा मुषन्ति पृथिवीमार्योजन: क्षीयते । देशांशा: प्रलयं गता: करभरै र्लौल्ये स्थिता भूभुज: पुत्रस्यापि न विश्वसन्ति पितर: कष्टं जगद् वर्तते ॥272॥ इस समय कलिकाल चल रहा है, कलियुग में सत्य मनुष्य दुर्लभ हैं, अनेक चोरों के समूह पृथ्वी को लूट रहे हैं, आर्य मनुष्य नष्ट हो रहे हैं, प्रदेश करों के भार से नष्ट हो गये हैं, राजा विषयलम्पट और तृष्णा से युक्त हो गये हैं, पिता पुत्र का भी विश्वास नहीं करता है, सचमुच ही जगत् अत्यन्त कष्टमय हो रहा है ॥272॥ और भी कहा है - कुलजोऽयं गुणवानिति विश्वासो न हि खलेषु कर्तव्य: ।
यह कुलीन तथा गुणवान है ऐसा समझकर दुर्जनों का भी विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि मलयागिरि चन्दन में भी उठी अग्नि जलाती ही है ॥273॥ननु मलयचन्दनेऽपि समुत्थितोऽग्निर्दहत्येव ॥273॥ एते स्निग्धतमा इति मा क्षुद्रेषु यातु विश्वासम् ।
ये अत्यन्त स्नेही हैं, ऐसा समझ कर क्षुद्र मनुष्यों में विश्वास मत करो, क्योंकि इन सिद्धार्थों-कृतकार्यों पक्ष में सरसों का स्नेह-प्रेम (पक्ष में तेल) भी आँसू गिरा देता है ॥274॥सिद्धार्थानामेषां स्नेहोऽप्यश्रूणि पाव्यति ॥274॥ ऋजुरेष पक्षवानिति काण्डे प्रीतिं खले च माकार्षी: ।
यह सीधा है और पक्षवान्-पंखों से युक्त तथा अनेक सहायकों से युक्त है, ऐसा समझ कर बाण में तथा दुर्जन में प्रीति मत करो क्योंकि प्राय: सरलता रूप गुण से युक्त बाण और मनुष्य, फल-अग्रभाग और कार्य सिद्धि के द्वारा हृदय को विदीर्ण कर देता है ॥275॥प्रायेणेत्यृजुगुण: फलेन हृदयं विदारयति ॥275॥ श्रेष्ठिना कथितम्-भो पुत्रि! अज्ञानव्या यन्मया कृतं तत्सर्वं सहनीयमिति । एवं निरूप्य बहुतरं द्रव्यं दत्त्वा भणितम्-भो पुत्रि! दानपूजादिकं कुरु येनोत्तमा गतिर्भवति । तथा चोक्तम्- सेठ ने कहा - हे पुत्रि! अज्ञान से जो मैंने किया है, वह सब सहन करने योग्य है । ऐसा कहकर तथा बहुत भारी धन देकर उसने कहा - हे पुत्रि! दान-पूजा आदि करो, जिससे उत्तम गति होती है । कहा भी है - गौरवं प्राप्यते दानान्नतु द्रव्यस्य संग्रहात् ।
दान से गौरव प्राप्त होता है न कि धन के संग्रह से । देखो, दान देने वाले मेघों की स्थिति ऊँची है और संचय करने वाले समुद्रों की स्थिति नीची है अर्थात् दान के प्रभाव से मेघ ऊपर आकाश में रहते हैं और संचय के प्रभाव से समुद्र नीचे पृथ्वी पर पड़े हुए हैं ॥276॥स्थितिरुच्चै: पयोदानां पयोधीनामध: पुन: ॥276॥ जीवन् स्वर्गी मृत: स्वर्गी दातायं त्यागभोगत: । नारकी कृपणोऽप्येवमभोंगादानत: सुते! ॥277॥ आयासशतलब्धस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयस: । गतिरेकैव वित्तस्य दानमन्या विपत्तय:॥278॥ यह दानी मनुष्य, त्याग और भोग के प्रभाव से जीवित रहता हुआ भी स्वर्गीय जैसे सुख को भोगने वाला है और मरकर भी स्वर्ग के सुख को भोगता है परन्तु हे पुत्रि! कृपण मनुष्य भोग और दान से रहित होने के कारण नारकी होता है ॥277॥ सैकड़ों प्रयासों से प्राप्त तथा प्राणों से भी गुरुतर धन की एक ही गति होती है-दान देना अथवा नष्ट होना ॥278॥ चक्रवत्र्यादयो हित्वा सर्वे ययुरिदं धनम् ।
कंजूस मनुष्य यह जानता है कि-चक्रवर्ती आदि सभी मनुष्य इस धन को छोड़कर चले गये हैं फिर भी वह धन के लिए यत्न करता है ॥279॥इत्थं च कृपणो जानन् तथापि यतते धने॥279॥ पुनश्च- और भी कहा है - लक्ष्मीर्दानफला श्रुतं शमफलं पाणि: सुरार्चाफल-
लक्ष्मी का फल दान है, शास्त्र पढ़ने का फल शान्ति धारण करना है, हाथ का फल देवपूजा है, धर्म का फल दूसरों की पीड़ा दूर करने में पुरुषार्थ करना है, जीवन का फल क्रीड़ा प्राप्त करना है, वाणी का फल सत्य बोलना है, जगत् का फल सुखोपभोग करना है, सम्पन्नता का फल प्रभाव को उन्नत करना है और भव्यजीवों की बुद्धि का फल संसार में शान्ति किस प्रकार हो, ऐसा विचार करना है, क्योंकि ऐसी बुद्धि ही विभूति के लिए होती है ॥280॥श्चेष्टा धर्मफला परार्तिहरणे क्रीडाफलं जीवितम् । वाणी सत्यफला जगत्सुखफलं स्फाति: प्रभावोन्नति- र्भव्यानां भवशान्ति चिन्तनफला भूत्यै भवत्येव धी:॥280॥ इत्यादिगुणपालश्रेष्ठिनोक्तं श्रुत्वा तेन द्रव्येण सोमया जिनालय: कारित: । प्रतिष्ठा कारिता, प्रतिष्ठानन्तरं चतुर्थ दिवसे चातुर्वर्णसङ्घो यथा प्रतिपत्त्या पूजित: सम्मानितश्च । तदनन्तरं द्वितीय दिनेऽपरेऽपि नगरलोका:, कुट्टिनी वसुमित्रा, तत्पुत्री कामलता, रुद्रदत्तादयश्च भोजनार्थं निमन्त्रिता: । तेऽपि यथा प्रतिपत्त्या सोमया सम्मानिता: । तथा चोक्तम्- गुणपाल सेठ के द्वारा कहे हुए इन पूर्वोक्त वचनों को सुनकर सोमा ने उस धन से जिनमन्दिर बनवाया, प्रतिष्ठा करवायी और प्रतिष्ठा के पश्चात् चौथे दिन यथायोग्य आदर के द्वारा चातुर्वर्ण संघकी पूजा की तथा सबको सम्मानित किया । पश्चात् दूसरे दिन नगर के अन्य मनुष्यों, वसुमित्रा वेश्या, उसकी पुत्री कामलता तथा रुद्रदत्त आदि को भोजन के लिए निमन्त्रित किया और उन सबको भी सोंमा ने यथायोग्य आदर से सम्मानित किया । जैसा कि कहा गया है- दद्यात् सौम्यां दृशं वाचमभ्युत्थानमथासनम् ।
घर आये हुए शत्रु को भी सौम्यदृष्टि, मधुर वचन, उठकर खड़े होना, आसन तथा शक्ति के अनुसार भोजन और पान देना चाहिए ॥281॥शक्व्या भोजन-ताम्बूलं शत्रोरपि गृहागते:॥281॥ निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधव: ।
सज्जन, गुणहीन जीवों पर भी दया करते हैं, क्योंकि चन्द्रमा चाण्डाल के घर पर से चाँदनी को हटाता नहीं है ॥282॥न हि संहरते ज्योत्ऋां चन्द्रश्चाण्डाल वेश्मन:॥282॥ सोमागृहागव्या वसुमित्रा कुट्टिन्या सोमा रूपं निरीक्ष्य शिरो धूणितम् । अहो, सोमा ईदृग्विधा सुन्दरी वर्तते । यद्यस्यामसौ रुददत्त: कथमप्यासक्तो भविष्यति तर्हि कथमस्माकं जीवितं भवतीत्यवश्यं केनचिदुपायेन मत्पुत्री सपत्नीयं मारणीया । एवं निश्चित्य गृहमागत्य वसुमित्रया घटमध्ये महादारुणसर्पमानाय्य पुष्पै: सह निक्षिप्य पुनरपि सोमागृहमागव्या सोमाहस्ते घटो दत्त: उक्तञ्च भो पुत्रि! एभि: पुष्पैर्देवपूजा करणीया । सोमाया: पुण्य माहात्म्येन सर्पोऽपि पुष्पमाला जाता, ततो देवपूजा कृता व्या सरलया । एतदाश्चर्यं दृष्ट्वा मया सर्पो घटे निक्षिप्तो न वेत्येवं विस्मयं गता कुट्टिनी । तत: सोमया ते त्रयोऽपि भोजनवस्त्राभरणादिना सम्मानिता: । अनन्तरमाशीर्वादं दत्वा सा माला सोमया कामलताकण्ठे निक्षिप्ता । तत्क्षणादेव सर्पो जात: । तेन सर्पेण कण्ठे दष्टा सती सा भूमौ पतिता । तत: स्वपुत्र्यास्तथाविधामवस्थां दृष्ट्वा कुट्टिन्या वसुमित्रया पूत्कारं कृत्वा मालासर्पौ घटे निक्षिप्य राज्ञोऽग्रे निरूपितम् । देव! मत्पुत्री कामलता गुणपालपुत्र्या सोमया मारिता । ततो राज्ञा कुपितेन सोमा आकारिता । सोमा राजपार्श्वं समागता । राज्ञा पृष्टा-रे दुष्टे! किमर्थं कामलता मारिता कारणं बिना । सोमयोक्तम्-देव! मया न मारिता । अहं जैनी, जिनधर्मोदयायुक्त:, जीवघातेन नरकादिदु:खं जायते जीवानाम्, जीवरक्षणेन च स्वर्गादिसुखं भवति । अतएव सुखार्थिना सूक्ष्मजीवघातो न करणीय: किं पुन: स्थूलस्य? तथा चोक्तम्- सोमा के घर आयी हुई वसुमित्रा वेश्या ने सोमा का रूप देखकर अपना शिर धुना । वह विचार करने लगी-अहो! सोमा ऐसी सुन्दरी है । यदि रुद्रदत्त किसी तरह इसमें आसक्त हों जायेगा तो हम लोगों का जीवन कैसे चलेगा ? इसलिए किसी उपाय से अवश्य ही अपनी पुत्री की यह सौत मारने के योग्य है । ऐसा निश्चय कर तथा आकर वसुमित्रा ने एक महान् भयंकर साँप बुलाया, उसे फूलों के साथ एक घड़े में रखा और सोमा के घर जाकर वह घड़ा सोमा के हाथ में दे दिया । साथ में कहा भी-हे पुत्री! इन फूलों से देवपूजा करना चाहिए । सोमा के पुण्य माहात्म्य से साँप भी पुष्पमाला हो गया । तदनन्तर भोली-भाली सोमा ने देवपूजा की । यह आश्चर्य देख वसुमित्रा कुट्टिनी आश्चर्य को प्राप्त हुई कि मैंने घड़े में साँप रखा भी था या नहीं । पश्चात् सोमा ने वसुमित्रा, कामलता और रुद्रदत्त इन तीनों को भोजन, वस्त्र तथा आभूषण आदि से सम्मानित किया । तदनन्तर सोमा ने आशीर्वाद देकर वह माला कामलता के कण्ठ में डाल दी । परन्तु डालते ही वह माला साँप हो गयी । साँप ने उसे कण्ठ में डस लिया जिससे वह पृथ्वी पर गिर पड़ी । पश्चात् अपनी पुत्री की वैसी अवस्था देख वसुमित्रा कुट्टिनी ने रोकर माला और साँप को घड़े में रख राजा के आगे कहा - हे देव! गुणपाल की पुत्री सोमा ने मेरी पुत्री कामलता को मार डाला है । पश्चात् राजा ने क्रुद्ध हो सोमा को बुलवाया । सोमा राजा के पास गयी । राजा ने पूछा-रे दुष्टे! तूने बिना कारण ही कामलता को क्यों मार डाला? सोमा ने कह-देव! मैंने नहीं मारा । मैं जैनी हूँ, जैनधर्म दया से युक्त है, जीवों का घात करने से प्राणियों को नरकादि का दु:ख होता है और जीवों की रक्षा करने से स्वर्गादि का सुख होता है । इसलिए सुख के इच्छुक मनुष्य को सूक्ष्म जीव का भी घात नहीं करना चाहिए, स्थूल जीव की तो बात ही क्या है? जैसा कि कहा है - पापाद्दु:खं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धमिदम् ।
पाप से दु:ख और धर्म से सुख होता है, यह समस्त जनों में अत्यन्त प्रसिद्ध है इसलिए सुख के इच्छुक मनुष्य को पाप छोड़कर सदा धर्म का आचरण करना चाहिए ॥283॥तस्माद् विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् ॥283॥ ततो नरेन्द्रेण पृष्टं चेत् त्वया न मारिता तर्हि किं किं जातं तत् सर्वं सत्यं कथय । ततो राज्ञोऽग्रे पूर्ववृत्तान्तं समस्तमपि सोमया निरूपितम् । पश्चाद् राज्ञा वसुमित्रामुखमवलोकितम् । तत: कुट्टिन्या घटस्थ: सर्पो राज्ञोऽग्रे दर्शित: । ततो राज्ञा सोमाग्रे कथितम्-रे वाचाले किमिदम्? व्या जल्पितम्-हे प्रजापाल! घटमध्ये पुष्पमालास्ति नैव सर्प: । राज्ञा निरूपितम्-तर्हि निष्कासय । तथा पुष्पदाम निष्कासितं राजादीनां च दर्शितम् । ततो वसुमित्रया राजादेशेन तदेव दाम गृहीतं सर्परूपमजायत । यदा सोमा गृह्वाति तदा पुष्पमाला, यदान्ये गृह्वन्ति तदा सर्प: । इत्थं राजादीनां चेतसि महांश्चमत्कारोऽजनिष्ट । ततो राज्ञा सभ्यैश्च उपरोधं कृत्वा सोमा प्रार्थिता वेश्याजीवदानविषये । एतद्वचनं श्रुत्वा जिनस्तुतिं कृत्वा सकलसुरासुरनायकं समस्तसुखदायकं श्रीजिनं हृदयकमले निधाय निजकरेण कामलताया: शरीरं स्पृष्टं व्या । ततो निर्विषा जातोत्थिता च सा । श्रीजिनस्तवनात् किं किं न सिद्ध्यति । तथा चोक्तम्- तदनन्तर राजा ने पूछा कि यदि तूने नहीं मारा है तो क्या हुआ, सब सच कहो । पश्चात् सोमा ने पहले का समस्त वृत्तान्त राजा के आगे कह दिया । तदनन्तर राजा ने वसुमित्रा के मुख की ओर देखा । तब कुट्टिनी ने घड़े में रखा हुआ साँप राजा के आगे दिखा दिया । पश्चात् राजा ने सोमा के आगे कहा - रे वाचाले! यह क्या है ? उसने कहा - हे प्रजापाल! घड़े के भीतर पुष्प माला है न कि साँप । राजा ने कहा तो निकालो । उसने फूलों की माला निकाली और राजा आदि को दिखलायी । तदनन्तर राजा की आज्ञा से वही माला वसुमित्रा ने ली तो साँप बन गयी । जब सोमा उसे लेती तब पुष्पमाला हो जाती और जब कोई अन्य लोग लेते तो साँप बन जाती । इस प्रकार राजा आदि के मन में बड़ा चमत्कार हुआ । तदनन्तर राजा तथा अन्य सभासदों ने आग्रह कर कामलता वेश्या को जीवनदान देने के लिए सोमा से प्रार्थना की । इन सबके वचन सुन जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति कर समस्त सुर असुरों के नायक सर्व सुखदायक श्री जिनेन्द्रदेव को हृदय कमल में विराजमान कर उसने अपने हाथ से कामलता का शरीर छुआ, जिससे वह विष रहित होकर खड़ी हो गयी । ठीक ही है - श्री जिनेन्द्रदेव के स्तवन से क्या-क्या सिद्ध नहीं होता है ? जैसा कि कहा है - विघ्नौघा: प्रलयं यान्ति शाकिनी भूतपन्नगा: ।
जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करने पर विघ्नों के समूह, शाकिनी, भूत और सर्प नष्ट हो जाते हैं तथा विष निर्विषता को प्राप्त हो जाता है ॥284॥विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥284॥ ततश्चमत्कृतेन राज्ञा कामलतां निर्विषां दृष्ट्वा वसुमित्राया अभयदानं दत्वा कुट्टिनी पृष्टा-किमेतत् ममाग्रे सत्यं कथय । व्योक्तम्-हे देव! एतत्सर्वं मम विलसितम्, सोमा निर्दोषा, इति पूर्ववृत्तान्तं समस्तमपि कुट्टिन्या राजाग्रे निरूपितम् । इति धर्मप्रभावं निरीक्ष्य राज्ञा मनुष्यै: देवश्च सा सोमा पूजिता । अपर्र, देवै: पञ्चाश्चर्याणि कृतानि । ततो विस्मितहृदयैर्लोकैर्भणितम्-अहो धर्मात् किं किं न भवति । ततों भूभोगेन राज्ञा, गुणपालेन, अन्यैश्च बहुभिर्जिनचन्द्र-भट्टारकसमीपे तपो गृहीतम् । केचन श्रावका जाता:, केचन भद्रपरिणामिनो जाता: । श्रीमत्यार्यिकासमीपे राज्ञी भोगावती, गुणपालाभार्या गुणवती, सोमा, अन्याश्च तपो गृह्वन्ति स्म । रुद्रदत्त-वसुमित्रा-कामलतादिभिश्च श्रावकव्रतं गृहीतम् । चन्दनश्रिया भणितम्-भो स्वामिन्! एतत्सर्वमपि धर्मफलं मया प्रत्यक्षं दृष्टं, तदा प्रभृति मया सम्यक्त्वादिप्रतिपत्ति कृता । तत: श्रेष्ठिनाभाणि-भो प्रिये! यत्त्वया दृष्टं तदहं श्रद्दधामि, रोचे, इच्छामि च । अन्याभिश्च तथैव भणितम् । श्रेष्ठिना कुन्दलता भणिता-हे कुन्दलते त्वमपि निश्चलधर्मा सती पूजादिकं कुरु । कुन्दलव्या भणितम्-सर्वमसत्यमेतद् वृत्तान्तम् । तद्वच: श्रुत्वा राज्ञा मन्त्रिणा च स्वमनसि चिन्तितम्-अहो इयं पापिठा । कुत:, चन्दनश्रिया प्रत्यक्षेण दृष्टं धर्मफलं कथमसत्यं वदति । प्रभातसमये गर्दभस्योपरि चाटयित्वा निर्घाटयाम: । पुनरपि चौरेण मनसि भणितम् निन्दकस्वभावोऽयम् । तथा चोक्तम्- तदनन्तर कामलता को विष रहित देख आश्चर्य से परिपूर्ण राजा नेअभयदान देकर वसुमित्रा कुट्टिनी से पूछा-यह क्या है? मेरे आगे सत्य कहो । वसुमित्रा ने कहा - हे देव! यह सब मेरी कुचेष्टा है, सोमा निर्दोष है, इस प्रकार उसने पहले का सभी समाचार राजा के आगे कह दिया । इस प्रकार धर्म का प्रभाव देखकर राजा ने, मनुष्यों ने तथा देवों ने उस सोमा की पूजा की । इसके अतिरिक्त देवों ने पञ्चाश्चर्य किये । पश्चात् आश्चर्य से परिपूर्ण हृदय वाले लोगों ने कहा - अहो! धर्म से क्या-क्या नहीं होता है? तदनन्तर भूभोग राजा ने, गुणपाल ने तथा अन्य बहुत लोगों ने जिनचन्द्र भट्टारक के समीप तप ग्रहण कर लिया । कोई श्रावक हो गये, कोई भद्र परिणामी हो गये । रानी भोगावती ने, गुणपाल की स्त्री गुणवती ने, सोमा ने तथा अन्य अनेक स्त्रियों ने श्रीमती आर्यिका के समीप तप ग्रहण कर लिया । रुद्रदत्त, वसुमित्रा और कामलता ने श्रावक का व्रत ग्रहण किया । चन्दनश्री ने कहा - हे नाथ! यह सभी धर्म का फल मैंने प्रत्यक्ष देखा है, उसी समय से मुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है । तदनन्तर सेठ ने कहा - हे प्रिये! तुमने जो देखा है, उसकी मैं श्रद्धा करता हूँ, रुचि करता हूँ और इच्छा करता हूँ । अन्य स्त्रियों ने भी ऐसा ही कहा । सेठ ने कुन्दलता से कहा - हे कुन्दलते! तुम भी धर्म में निश्चल हो पूजा आदि करो । कुन्दलता ने कहा - यह सब वृत्तान्त असत्य है । उसके वचन सुन राजा और मन्त्री ने अपने मन में विचार किया कि अहो! यह बड़ी पापिनी है, क्योंकि चन्दनश्री के द्वारा प्रत्यक्ष देखे हुए धर्म के फल को असत्य क्यों कह रही है ? प्रात:काल गधे पर चढ़ाकर इसे नगर से निकाल देंगे । चोर ने भी मन में कहा - यह निन्दक जन का स्वभाव है । जैसा कि कहा है- यो भाषते दोषमविद्यमानं सतां गुणानां ग्रहणे च मूक: ।
जो अविद्यमान दोष को कहता है तथा विद्यमान गुणों को ग्रहण करने में मूक रहता है वह पापी है और निन्दक है । यश का वध करना प्राणों के वध से बड़ा है ॥285॥स पापभाक् स्यात् स विनिन्दकश्च यशोवध: प्राणवधाद् गरीयान् ॥285॥ इदं हि खलजनलक्षणम्- दुर्जन मनुष्य का यह लक्षण है - वाक्यं जल्पति कोमलं सुखकरं कृत्यं करोत्यन्यथा
जो सुख उत्पन्न करने वाले मीठे वचन बोलता है परन्तु कार्य इससे विपरीत करता है । जो दुर्बुद्धि से युक्त हो साँप के समान मन से कभी कुटिलता को नहीं छोड़ता है, जो क्रोध से आकुलित हो दूसरे की विभूति को सहन नहीं करता है और न उनके गुण को जानता है उस लोक निन्दित दुर्जन की कौन बुद्धिमान् सेवा करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥286॥वक्रत्वं न जहाति जातु मनसा सर्पो यथा दुष्टधी: । नो भूतिं सहते परस्य न गुणं जानाति कोपाकुलो यस्तं लोकविनिन्दितं खलजनं को वा सुधी: सेवते ॥286॥ ॥इति तृतीय कथा॥ ॥ इस प्रकार तृतीय कथा पूर्ण हुई ॥ |