कथा :
सम्यक्त्व प्राप्त कनकलता कथा पुनरप्यर्हद्दासश्रेठी कनकलतां प्रति भणति-भो प्रिये! ममाग्रे त्वमपि निजसम्यक्त्वं प्रापणकारणं कथय । कथयति- अवन्तिविषये उज्जयिनीनगरे राजा नरपाल: । राज्ञी मनोवेगा । मन्त्री बुद्धिसागर: । भार्या सोमा । राजश्रेठी समुद्रदत्त: । भार्या सागरदत्ता । पुत्र उमय: । पुत्री जिनदत्ता । कौशाम्बीनगरे वास्तव्याय जिनदत्तपरमश्रावकाय सा जिनदत्ता विवाहयितुं दत्ता । स उमयो मोहकर्मणा सप्तव्यसनाभिभूतो जात: । पिता-मातृभ्यां निवारितोऽपि दुर्व्यसनं न र्मुति । ताभ्यामभाणि-उपार्जितं को लङ्घयति? प्रतिदिनं नगरमध्ये चौरव्यापारं करोति, द्यूतादिकं व्यसनजातं सेवते च स उमय: । परद्रव्यापहारं कुर्वाणमुमयं रात्रौ यमदण्डतलवरेण दृष्ट्वा श्रेष्ठिप्रतिपन्नेन बहुवारान्मोचितो न मारत: । यमदण्डेन भणितम्-अहो एकादरोत्पन्ना अपि न सर्वे सदृशा भवन्ति । जिनदत्ता साध्वी जाता । असौ महापापोयान् जात: । तथाच- पश्चात् अर्हद्दास सेठ कनकलता से कहता है कि हे प्रिये! तुम भी मेरे आगे अपने सम्यक्त्व की प्राप्ति का कारण कहो-वह कहती है- अवन्ति देश की उज्जयिनी नगरी में राजा नरपाल रहता था, उसकी स्त्री का नाम मनोवेगा था । मन्त्री का नाम बुद्धिसागर, उसकी स्त्री का नाम सोमा था । राजश्रेठी का नाम समुद्रदत्त था, उसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था, पुत्र का नाम उमय और पुत्री का नाम जिनदत्ता था । जिनदत्ता, कौशाम्बी नगर में रहने वाले जिनदत्त नामक परम श्रावक को विवाहने के लिए दी गयी थी । वह उमय मोहकर्म के उदय से सप्त व्यसनों से आक्रान्त हो गया था । माता-पिता के द्वारा रोके जाने पर भी वह दुर्व्यसन को नहीं छोड़ता था । माता पिता ने कहा कि-उपार्जित किये को कौन लाँघ सकता है ? वह उमय प्रतिदिन नगर के बीच चोरी करता और जुआ आदि व्यसनों का सेवन करता था । परद्रव्य का अपहरण करते हुए उमय को रात में यमदण्ड कोतवाल ने देख लिया परन्तु सेठ के आदर से उसे बहुत बार छोड़ दिया, मारा नहीं । यमदण्ड ने कहा - अहो! एक उदर से उत्पन्न हुए सभी समान नहीं होते । जिनदत्ता साध्वी हुई परन्तु यह उमय महापापी हुआ । जैसा कि कहा है - वल्लीजाता: सदृशकटुकास्तुम्बिकास्तुम्बिनीनां
तूमड़ी की लता में एक सदृश बहुत से कडुवे तूमे उत्पन्न होते हैं, शुद्ध बाँस पर लटके हुए वे तूमे सरस और मधुर शब्द करते हैं । उनमें कुछ तूमे तो ऐसे होते हैं जो अन्य अज्ञानी जनों के द्वारा अपने शरीर पर बाँध लेने से उन्हें दुस्तर नदी आदि से पार कर देते हैं और उन्हीं तूमों में कुछ ऐसे होते हैं जो अज्ञानवश खाने में आने पर हृदय को जलाते हुए रुधिर को पी जाते हैं अर्थात् खाने वाले को मार डालते हैं ।शब्दायन्ते सरसमधुरं शुद्धवंशे विनीता: । अन्यैमूढैर्वपुषि निहिता दुस्तरं तारयन्ति तेषां मध्ये ज्वलित-हृदयं शोणितं संपिबन्ति ॥405॥ (भावार्थ – कडुवे तूमे लता में लगे लगे जब सूख जाते हैं तब बाँस पर लटकते हुए मश्रशुर शब्द करते हैं । उन तूमों में कुछ तूमे ऐसे होते हैं कि वे शरीर पर बाँध लिए जावें तो उनके प्रभाव से लोग गहरी नदियों को भी पार कर लेते हैं और कोई ऐसे होते हैं कि अज्ञानवश यदि खाने में आ जावें तो वे विष की तरह खाने वाले को मार डालते हैं । इसी प्रकार एक ही माता से उत्पन्न हुए बालकों में कोई परोपकारी होते हैं और कोई दुर्व्यसनों में आसक्त होकर दूसरों को दुखदायक होते हैं) ॥405॥ एकदा यमदण्डेन तलवरेण राज्ञो हस्ते उमयं दत्त्वा भणितम्-देव राजश्रेष्ठिसमुद्रदत्तस्य पुत्रोऽयमुमय नामेति । सहस्रधा निवार्यमाणोऽपि तस्करव्यापारं न त्यजति । अधुना देवस्य मनसि यद्विद्यते तत् करोतु । राज्ञोक्तम्-समुद्रदत्तस्यैकदेशगुणोऽप्यस्मिन् न दृश्यते तत्कथं तस्य पुत्रो भवतीति ज्ञायते । तत: समुद्रदत्तमाकार्य भणितं राज्ञा-भो समुद्रदत्त एनं दुष्टं स्वगृहान्निष्कासय । नोचेदनेन सह तवाप्यभिमानहानिर्भविष्यति । तथा चोक्तम्- एक समय यमदण्ड कोतवाल ने उमय को राजा के हाथ में देकर कहा कि-हे राजन्! यह राजसेठ समुद्रदत्त का उमय नामक पुत्र है । हजारों बार रोके जाने पर भी चोरी नहीं छोड़ता है । अब आपके मन में जो हो वह कीजिये । राजा ने कहा कि-इसमें समुद्रदत्त का एक भी गुण दिखायी नहीं देता अत: उसका पुत्र है यह कैसे जाना जाये । तदनन्तर समुद्रदत्त को बुलाकर राजा ने कहा कि-हे समुद्रदत्त! इस दुष्ट को अपने घर से निकाल दो अन्यथा इसके साथ तुम्हारी भी प्रतिष्ठा की हानि होगी । क्योंकि कहा है- दुर्जनजनसंसर्गे साधु-जनस्यापि दोषमायाति ।
दुर्जन मनुष्य की संगति से सज्जन मनुष्य को भी दोष लगता है-आपत्ति भोगनी पड़ती है क्योंकि रावण ने तो अपराध किया था, परन्तु समुद्र बन्धन को प्राप्त हुआ था ॥406॥दशमुखकृतापराधे जलनिधिरपिबन्धनं प्राप्त: ॥406॥ सर्वथानिष्टनैकट्यं विपदे व्रतशालिनाम् ।
इस प्रकार से अनिष्ट मनुष्य की निकटता व्रती मनुष्यों को विपत्ति के लिए होती है क्योंकि देखो जलघड़ी के पास रहने से झालर ताडि़त होती है ॥407॥वारिहारघटीपार्श्वे ताड्यते पश्य झल्लरी ॥407॥ तच्छ्रुत्वा गृहं गत: सन् समुद्रदत्त: स्वभार्यां प्रति भणति-भो भार्ये! असौ झटिति निर्घाटनीयोऽन्यथा विरूपकं भवितुमर्हति । तथा चोक्तम्- राजा के वचन सुन, घर जाकर समुद्रदत्त अपनी स्त्री से कहता है कि हे प्रिये! इसे शीघ्र ही निकाल देना चाहिए अन्यथा बहुत बुरा हो सकता है । जैसा कि कहा है - उत्कोचं प्रीतिदानं च द्यूतद्रव्यं सुभाषितम् ।
रिश्वत देना, प्रेम करना, जुआ का धन, सुभाषित और चोर के धन का बएटवारा इन्हें पण्डितजन शीघ्र ही जान लेते हैं ॥408॥चौरस्यार्थं विभागं च सद्यो जानाति पण्डित:॥408॥ उक्तञ्च- और भी कहा है - त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
कुल की भलाई के लिए एक को छोड़ देना चाहिए, ग्राम की भलाई के लिए कुल को छोड़ देना चाहिए, देश की भलाई के लिए ग्राम को छोड़ देना चाहिए और अपनी भलाई के लिए पृथ्वी को छोड़ देना चाहिए ॥409॥ग्रामं जनपदस्यार्थे ह्यात्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥409॥ बहुभिर्न विरोद्धव्यं दुर्जयो हि महाजन: ।
बहुत लोगों के साथ विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि बहुत जनों का जीतना कठिन होता है क्योंकि छटपटाते हुए भी हाथी को चींटियाँ खा जाती हैं ॥410॥स्फुरन्तमपि नागेन्द्रं भक्षयन्ति पिपीलिका: ॥410॥ ततो निजगृहान्निर्घाटित उमय:समुद्रदत्तेन । ततो माता दु:खिनी भूत्वा भणति-बलवती भवितव्यता । तथा चोक्तम्- तदनन्तर समुद्रदत्त ने उमय को घर से निकाल दिया । माँ ने दुखी होकर कहा कि-भवितव्यता बलवान होती है । जैसा कि कहा है- जलनिधि परतटशतमपि करतलमायाति यस्य भवितव्यम् ।
जिसकी भवितव्यता अच्छी है उसके हाथ में समुद्र के तट पर स्थित वस्तु भी आ जाती है और जिसकी भवितव्यता अच्छी नहीं है उसके हाथ में आयी हुई वस्तु भी नष्ट हो जाती है ॥411॥करतलगतमपि नश्यति यस्य च भवितव्यता नास्ति ॥411॥ ततो निर्गत्य सार्थवाहेन सहोमय: स्वभगिनीसमीपे कौशाम्बी-नगरीं गत: । जिनदत्तया स्वबन्धुमवलोक्य विरूपकां वार्तां च श्रुत्वा मन्दादर: कृत: । तथा चोक्तम्- पश्चात् घर से निकल कर उमय, एक बनिजारे के साथ अपनी बहिन के पास कौशाम्बी नगरी गया परन्तु जिनदत्ता ने अपने भाई को देखकर तथा उसकी विरुद्ध वार्ता को सुनकर उसका पूर्ण आदर नहीं किया । जैसा कि कहा है - वार्ता च कौतुकवती विशदा च विद्या, लोकोत्तर: परिमलश्च कुरङ्गनाभे: ।
कौतुक से युक्त समाचार, निर्मल विद्या और कस्तूरी की सर्वश्रेठ सुगन्ध-ये तीनों पानी में पड़ी हुई तैल की बूँद के समान दुर्निवार रूप से फैल जाती है । इसमें क्या आश्चर्य है ॥412॥तैलस्य बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवार-मेतत्त्रयं प्रसरतीति किमत्र चित्रम् ॥412॥ उमयेन चिन्तितम्-मन्दभाग्योऽहम् । ममात्राप्यापन्न त्यजति । तथा चोक्तम्- उमय ने विचार किया कि मैं मन्दभाग्य हूँ । यहाँ भी आपत्ति मुझे नहीं छोड़ रही है । जैसा कि कहा है - खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणै: संतापितो मस्तके
एक गंजे सिर वाला मनुष्य सूर्य की किरणों से मस्तक पर संतप्त होता हुआ छाया के लिए शीघ्र ही बिल्ववृक्ष के नीचे गया परन्तु वहाँ ऊँचे से पड़ते हुए बहुत बड़े फल से उसका सिर शब्द के साथ फूट गया । ठीक ही है क्योंकि भाग्य रहित मनुष्य जहाँ जाता है प्राय: वही विपत्तियों का स्थान होता है ॥413॥छायार्थं समुपैति सत्वरमसौ बिल्वस्य मूलं गत: । तत्रौच्चैर्महता फलेन पतता भग्नं सशब्दं शिर: प्रायो गच्छति यत्र भाग्य-रहितस्तत्रापदामास्पदम् ॥413॥ पुनश्च- और भी कहा है - कैवर्त-कर्कश-करग्रहणच्युतोऽपि
एक बेचारी मछली धीवर के कठोर हाथों की पकड़ से छूटी भी तो जाल में जा पड़ी और जाल से निकली तो बगुले के द्वारा निगल ली गयी । ठीक ही है क्योंकि भाग्य के विपरीत होने पर दु:ख से छुटकारा कैसे हो सकता है? ॥414॥जाले पुनर्निपतित: शफरो वराक: । जालात्ततो विगलितो गिलितो वकेन वामे विधौ वत कुतो व्यसनान्निवृत्ति: ॥414॥ पुनरपि विषादापन्नेनोमयेन चिन्तितम्-अहो । कष्टं खलु पराश्रय: । तथा चोक्तम्- फिर भी खेद करते हुए उमय ने विचार किया कि अहो! दूसरों का आश्रय लेना निश्चित ही कष्ट करने वाला है- जैसा कि कहा है - उडुगण-परिवारो नायकोऽप्योषधीना-
नक्षत्र समूह जिसका परिवार है, जो औषधियों का राजा है, जिसका शरीर अमृतमय है और जो कान्ति से युक्त है ऐसा चन्द्रमा भी सूर्यबिम्ब को प्राप्त कर किरण रहित हो जाता है । ठीक ही है क्योंकि दूसरे के घर रहने वाला कौन-सा मनुष्य लघुता-अनादर को प्राप्त नहीं होता है ॥415॥ममृतमयशरीर: कान्ति-युक्तोऽपि चन्द्र: । भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानो:- परसदन-निविष्ट: को न धत्ते लघुत्वम् ॥415॥ इत्येवं विचिन्त्य व्याघुट्य नगरान्त: परिभ्रमणं कुर्वन् जिनालयं गत: । तत्र श्रुतसागर-मुनिं प्रणम्योपविष्ट: । स च मुनीश्वर: करुणाकूपारायमाणचेता उमयाग्रे धर्मदेशनां चक्रे- अष्टादशदोषवर्जितो जिनो देव:, निग्र्रन्थो गुरु:, अहिंसालक्षणो धर्म:, एतेषां श्रद्धानं सम्यक्त्वम् । यदुक्तम्- ऐसा विचार कर उमय लौटकर नगर के भीतर भ्रमण करता हुआ जिनमन्दिर गया । वहाँ श्रुतसागर मुनि को प्रणाम कर बैठ गया । जिनका चित्त दया के समुद्र के समान आचरण कर रहा था, ऐसे मुनिराज उमय के आगे धर्म का उपदेश करने लगे । अठारह दोषों से रहित जिनेन्द्रदेव निर्ग्रंथ गुरु और अहिंसा लक्षण धर्म, इनका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । जैसा कि कहा है - हिंसारहिए धम्मे अठ्ठारहदोस-विवज्जिए देवे ।
हिंसा से रहित धर्म, अठारह दोषों से रहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और शास्त्र में श्रद्धान होना सम्यक्त्व है ॥416॥णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥416॥ तच्च सम्यक्त्वम्, औपशमिकं क्षायिकं क्षायोपशमिर्क भवति षड्द्रव्याणि, पञ्चास्तिकाया:, पञ्च ज्ञानानि, सप्त तत्त्वानि, एतेषां य: श्रद्धानं करोति, अनुचरति च तस्य सम्यक्त्वं विद्यते । यत:- वह सम्यक्त्व औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का होता है । छह द्रव्य, पञ्चास्तिकाय, पञ्च ज्ञान और सात तत्त्व-इनका जो श्रद्धान करता है और अनुचरण करता है उसके सम्यक्त्व होता है । क्योंकि कहा है- नास्त्यर्हत: परो देवो धर्मो नास्ति दयां विना ।
अरहन्त से बढ़कर देव नहीं है, दया के बिना धर्म नहीं है और निग्र्रन्थता से बढ़कर तप नहीं है । यही सम्यक्त्व का लक्षण है ॥417॥तप: परं न नैग्र्रन्थ्यादेतत् सम्यक्त्वलक्षणम् ॥417॥ संवेगादिगुणयुक्तं च भवति सम्यक्त्वम् । तथा चोक्तम्- वह सम्यक्त्व संवेगादि गुणों से युक्त होता है । जैसा कि कहा है- संवेऊ णिव्वेऊ णिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती ।
संवेग, निर्वेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा, सम्यक्त्व के ये आठ गुण हैं ॥418॥वच्छल्लं अणुकंपा अठ्ठगुणा होंति सम्मत्ते ॥418॥ स्थैर्यं प्रभावना शक्ति: कौशलं जिनशासने ।
स्थिरता, प्रभावना, शक्ति, जिनशासन में कुशलता और तीर्थ सेवा; इन पाँच को सम्यक्त्व के आभूषण कहते हैं ॥419॥तीर्थसेवा च पञ्चास्य भूषणानि प्रचक्षते ॥419॥ इति दर्शनयुक्तस्याष्टमूलगुणपरिपालनं युक्तम् । ते हि श्रावकधर्मस्य प्रथमा: प्रथानभूता व्रतसारा: । तथाहि- जो इस सम्यग्दर्शन से युक्त है उसे आठ मूलगुणों का पालन करना उचित है, क्योंकि वे श्रावक धर्म के मूलभूत प्रधान श्रेठ व्रत हैं । जैसा कि कहा गया है - मद्य-मांस-मधुत्यागा: पञ्चोदुम्बर-वर्जनम् ।
मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग और पाँच उदुंबर फलों का त्याग करना मुनियों ने इन्हें श्रावकों के आठ मूलगुण कहा है ॥420॥अष्टौ मूलगुणा: प्रोक्ता गृहिणां श्रमणोत्तमै: ॥420॥ तथा दर्शनप्रतिमायुक्तेन पुरुषेण सप्त व्यसनानि नित्यं घोराणि वर्जनीयानि घोरं नरकं नयन्ति । तथा चोक्तम्- इनके सिवाय दर्शनप्रतिमा से सहित पुरुष को निरन्तर भयंकर नरक में ले जाने वाले निन्दनीय सप्त व्यसनों का त्याग करना चाहिए । जैसा कि कहा है - द्यूतं मांसं सुरा वेश्याखेटचौर्यं पराङ्गना ।
जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन ये ही सात महापाप व्यसन कहलाते हैं । ज्ञानी जीवों को इनका त्याग करना चाहिए ॥421॥महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद् बुध: ॥421॥ सप्तैव हि नरकाणि तैरेकैकं निरूपितम् ।
व्यसन सात हैं और नरक भी सात हैं इसलिए ऐसा जान पड़ता है कि ये व्यसन अपनी समृद्धि के लिए मनुष्यों को एक-एक नरक की ओर खींचने वाले हैं ॥422॥आकर्षयन् नृणामेतद् व्यसनं स्वसमृद्ध्ये ॥422॥ धर्मशत्रोर्विनाशार्थं पापाख्य-कुपतेरिह ।
धर्मरूपी शत्रु को नष्ट करने के लिए पाप नामक राजा ने सप्त व्यसनों के द्वारा अपने सप्तांग राज्य को बलवान किया ॥423॥सप्ताङ्गं बलवद्राज्यं सप्तभिर्व्यसनै: कृतम् ॥423॥ तथा दर्शनयुक्तेन पुरुषेण वस्त्रपूतं पय: पेयम् । प्रतिघटिका-द्वयान्तरे वस्त्रपूतत्वं जलस्य करणीयम् । यत: सर्वसम्मूर्च्छनाया: सकाशात् जले शीघ्रं सम्मूर्च्छनं भवति । तेन चाल्पकाले जलसंपर्कात् सर्ववस्तूनां त्रसस्य सम्मूर्च्छनं प्रत्यक्षं दृश्यन्ते । अत: सर्वदैव घटिकाद्वयान्तरे गते सति जलं वस्त्रपूतं कृत्वा पिबेदिति । अन्यथा करणे तस्य पुरुषस्य दयालक्षणो धर्म:, अष्टमूलगुणाश्च, एषां परित्याग एव । एतत्सर्वं तस्य निरर्थकम् । तस्यागालने व्रतनियम संयम करणं दानं च सप्तव्यसन परित्यागश्च, एतत्सर्वं तस्य निरर्थकम् । तस्माद् वस्त्रपूत जलं पेयमिति स्थितम् । तथा दर्शनयुक्तेन पुरुषेण भोजने पाने च क्रियमाणे रुधिरामिषमद्यकू्ररशब्दादिश्रवणान्तरायं मन:- संकल्प-जननं परिपालनीयम् । अन्तराये संजाते सति भोजनं पानं च तदैव परिहरणीयम् । यदुक्तम्- तथा सम्यग्दर्शन से युक्त-दर्शन प्रतिमा के धारक पुरुष को छना हुआ जल पीना चाहिए । प्रत्येक दो घड़ी के भीतर जल छानना चाहिए क्योंकि समस्त जीवों की उत्पत्ति का कारण होने से जल में सम्मूर्च्छन जीव जल्दी उत्पन्न होते हैं । यही कारण है कि जल के साथ सम्पर्क होने से अल्पकाल में ही सभी वस्तुओं में सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है इसलिए सदा ही दो घड़ी निकल जाने पर जल को छानकर पीना चाहिए । अन्यथा प्रवृत्ति करने से उस पुरुष के दया लक्षण वाला धर्म और आठ मूलगुण इनका परित्याग ही समझना चाहिए । जल के छाने बिना उसके इन सबका करना निरर्थक है । तात्पर्य यह है कि जो जल छानकर नहीं पीता है उसके व्रत- नियम तथा संयम का करना और सप्त व्यसनों का त्याग करना यह सब निरर्थक होता है इसलिए वस्त्र से पवित्र अर्थात् वस्त्र से छना हुआ जल पीना चाहिए, यह सिद्ध होता है । दर्शन प्रतिमा के धारक पुरुष को भोजन पान ग्रहण करते समय रक्त, मांस, मदिरा तथा क्रूर शब्द आदि सुनने का अन्तराय पालना चाहिए क्योंकि ये शब्द मन में उनका संकल्प उत्पन्न करने वाले हैं । अन्तराय होने पर भोजन और पानी उसी समय छोड़ देना चाहिए । जैसा कि कहा है - मांसरक्तार्द्रचर्मास्थिपूयदर्शनतस्त्यजेत् ।
मांस, रक्त, गीला चमड़ा, हड्डी और पीप के देखने से, मृत प्राणी के देखने से तथा छोड़ा हुआ अन्न ग्रहण में आ जाने से भोजन का त्याग करना चाहिए ॥424॥मृताङ्गिवीक्षणादन्नं प्रत्याख्यानान्नसेवनात् ॥424॥ तथा व्यसनासक्तपुरुषै: सहैकासनशयनभोजनसंभाषणानि य: करोति तस्य दर्शनप्रतिमा निर्मला न भवति । यदुक्तम्- तथा व्यसनों में आसक्त पुरुषों के साथ एक आसन पर बैठना, सोना, भोजन तथा संभाषण को जो करता है उसकी दर्शन प्रतिमा निर्मल-निर्दोष नहीं होती है । जैसा कि कहा है - मिथ्यादृशां विसदृशां च पथश्च्युतानां
हे विद्वज्जनो! यदि उत्कृष्ट मार्ग पर ही चलने की इच्छा है तो मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दर्शन से रहित, मार्ग से च्युत, मायावी, व्यसनी और दुष्टजनों का संग छोड़ो तथा उत्तम जनों का संग करो ॥425॥मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च । सङ्गं विर्मुत बुधा: कुरुतोत्तमानां गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्गं एव ॥425॥ इति ज्ञात्वा जिनमतं मनसि धृत्वा क्रोध-मानमाया-लोभाख्यान् चतुर: कषायान् हत्वा ये दृढं सम्यक्त्वं धारयन्ति ते दर्शनप्रतिमा धारका: श्रावका: कथ्यन्ते । अथ व्रतप्रतिमा कथ्यते तथाहि- पञ्चाणुव्रतानि, त्रीणि गुणव्रतानि, चत्वारि शिक्षाव्रतानि इति द्वादशव्रतानि कथ्यन्ते । वादर-सूक्ष्म भेदभिन्ना: स्थावरा:, जङ्गमजीवाश्च बहुविधभिन्ना रक्षितव्या मनसा वाचा कायेनेति । किं बहुना? सर्वे जीवा: सर्वथात्मसमाना यत्र दृश्यन्ते प्रथमं तदणुव्रतम् । अनृतवर्जनं द्वितीयमणुव्रतम्, अदत्तवस्तुपरित्यागस्तृतीयमणुव्रतम् । स्वदारसन्तोष: परदार-निवृत्तिश्च चतुर्थमणुव्रतम्, मनसि सन्तोषं धृत्वा धनधान्यचतुष्पदादीनां परिमाणं पञ्चममणुव्रतम् । दशानां दिशां योजनसंख्यया गमनागमन-नियमकरणमात्मशक्त्या योगनिरोधनकरणं, च प्रथमं गुणव्रतम् । अनर्थदण्डपरिहार: कथ्यते । तद्यथा-निष्फलं कार्यकरणमनर्थदण्ड: । स च पञ्चविध: । तत्र पृथ्वीजल तेजोवायु-वनस्पतिकायिनां पञ्च-स्थावराणां त्रसस्य च हिंसनं पापहेतुरनर्थदण्ड: । तथा पशुपालन-कृषिकरण-वाणिज्य- परस्त्रीसंयोगादिषूपदेशदानमनर्थदण्ड: । तथा कुक्कुट-मयूर-मार्जार-चित्रक-नकुल सप्र्पादीनां पालनं क्रीडनं च अनर्थदण्ड: । स एष प्रथमोऽनर्थदण्ड तथा निज प्रहरणस्यान्ययाचितस्याढौकनं, विक्रयार्थं वा ग्रहणं क्रियते तदनर्थदण्डो द्वितीय: । परदोषकथने परकलत्रे मनोऽभिलाषश्च तृतीयोऽनर्थदण्ड: । रागद्वेषवर्धिनीनां कथानां श्रवणं चतुर्थोऽनर्थदण्ड: । व्या विषार्पणाग्निरज्ज्ुमदनलोहलाक्षानील्यादीनां दानं निष्प्रयोजन फलपत्रपुष्पादीनां त्रोटनं जलादि-विक्षेपणं सरणसारर्ण पञ्चमोऽनर्थदण्ड: । एषां परिहारोऽनर्थदण्डव्रतनामधेयं द्वितीयं गुणव्रतं कथ्यते । पुष्पविलेपनभूषणवस्त्रशय्यादीनां भोगोपभोगवस्तुनामात्मशक्त्या परिमाणकरणं तृतीयं गुणव्रतम् । कायवाङ् मनोनिरोधनं सर्वसावद्यवर्जनं सुखदु:खसंयोगवियोगेषु समभावनत्वं, त्रिकालदेववन्दनाकरणं च सामायिकनाम प्रथमं शिक्षाव्रतम् । मांसमध्येऽष्टमीद्वयं चतुर्दशीद्वर्येति चतुर्षु पर्वदिनेषु यथा-शक्त्योपवास-एकस्थानमेकभक्तं रसपरित्यागो वा यत्क्रियते तत्प्रोषधं नाम द्वितीयं शिक्षाव्रतम् । आत्मशक्त्या श्रद्धयागमोक्तं पात्रे यद्दानं चतुर्विधाहारस्य तदतिथिसंविभागनाम तृतीयं शिक्षाव्रतम् । मरणकाले नि:स्पृहो भूत्वा न किंचिदपि वस्तु मदीयमस्ति, न कस्याप्यहमिति निर्ममत्वभाव: सल्लेखना, तदेतच्चतुर्थं शिक्षाव्रतम् । तथानस्तमिते रवौ भोजनं कर्तव्यम् । नवनीतवर्जनं च यदि न करोति तदा जीवदया, ब्रह्मचर्यं पञ्चोदुम्बरवर्जनम्, अभक्ष्यपरित्याग:, सप्तव्यसनपरित्यागश्च सर्वमेतन्निष्फलं स्यात् । एतानि द्वादशव्रतानि अनस्तमिव्युक्तानि दर्शनप्रतिमा युक्तानि प्रतिपालयति स व्रतप्रतिमायुक्तो भवति । इति व्रतप्रतिमानिरूपणम् । अथ सामायिकादिप्रतिमा कथ्यते - शत्रुषु मित्रेषु च समभावं कृत्वा क्रोध-मानमायालोभाख्यानचतुर: कषायान् जित्वा चैत्यालये गृहे वा पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो वा भूत्वा कायवाङ्मन:शुद्ध्या पञ्चपरमेठिनां त्रिकाले वन्दनां य: करोति तस्य सामायिकनाम तृतीया प्रतिमा भवति । सप्तमीत्रयोदशी दिने एकभक्तं कृत्वोपवासं संगृह्याष्टमीचतुर्दशीदिने जिनभवने स्थातव्यम् । नवमी- पञ्चदशी दिने प्रभाते जिनवन्दनादिकं कृत्वा निजगृहं गत्वाऽऽत्मशक्त्या पात्रदानं दत्वाऽऽत्मना भुञ्जीत । तस्मिन्नेव पारणकदिने ह्येक भुक्तं कुर्वीत । एषा सा प्रोषधप्रतिमा । सचित्तानां फलपत्रपुष्पशाकशाखादीनां परिहारो यत्र क्रियते सा सचित्तत्यागप्रतिमा । रजन्यामौषध-ताम्बूल-पानीय-प्रभृतीनां चतुर्विधाहाराणां यत्र त्यागो भवति दिवसे मैथुननिवृत्तिश्च क्रियते सा रात्रिभुक्तिव्रताभिधाना प्रतिमा । सर्वथा स्त्रीपरित्यागो ब्रह्मचर्यप्रतिमा । यद्यथा देवीं मानुषीं तिर्यञ्चीं लेपमयीं काठमयीं शिलामयीं चित्रलिखितामपि दृष्ट्वा स्त्रियं कायवाङ्मनोभिर्नाभिलाषं करोति यस्तस्य ब्रह्मचर्य प्रतिमा भवति । गृहव्यापारान् सर्वान् वर्जयित्वा कषायरहितेन मनसि संतोष: कार्य: । एवं विध: पुरुष आरम्भत्यागी भवति । इत्यारम्भत्यागप्रतिमा । द्रव्यपरिग्रहो मोहं जनयति, मोहाद् रागद्वेषोत्पत्ति:, रागद्वेषाभ्यामार्तिमरणम्, आर्तौ सत्यां नरकगति:, तस्माद् वस्त्रमेकं त्यक्त्वान्यत् सर्वं द्रव्यजातं कायवाङ्मनोभि: परिहर्तव्यम् इति परिग्रहपरिहारप्रतिमा । आत्मशरीर-विषयेऽपि ममत्वभावं त्यक्त्वा गृहमपि त्यक्त्वा यो जिनगृहे तिष्ठति सदैव । तथा गृहकर्मविषये पृच्छतामप्यनुमतिं न ददाति । जिनगृहे स्थितो धर्मपाठं धर्मश्रुतिं च करोति धम्र्यध्यानेनाहोरात्रं गमयति, विकथां न करोति, न श्रृणोति च । तस्य सानुमतिविरतिर्दशमीप्रतिमा । उद्दिष्टत्यागप्रतिमा द्विविधा । प्रथमायां कोपीनातिरिक्तमेकं वस्त्रं धार्यते, शिरसि केशानां मुण्डनं विधीयते, भिक्षाचर्यते । यदुक्तम्- ऐसा जानकर, जिनमत को मन में धारण कर तथा क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायों को नष्ट कर जो दृढ़ सम्यग्दर्शन को धारण करते हैं, वे दर्शनप्रतिमा के धारक श्रावक कहे जाते हैं । अब व्रत प्रतिमा कही जाती है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत; ये बारह व्रत कहलाते हैं । बादर और सूक्ष्म भेद को लिए हुए स्थावर तथा अनेकों भेदों से युक्त त्रस जीव मन, वचन, काय से रक्षा करने योग्य हैं । अधिक क्या, जिसमें सभी जीव सब प्रकार से अपने समान देखे जाते हैं वह प्रथम अहिंसाणुव्रत है । असत्यवचन का त्याग करना दूसरा सत्याणुव्रत है । चोरी का त्याग करना तीसरा अचौर्याणुव्रत है । स्वस्त्री में सन्तोष रखना तथा परस्त्री का त्याग करना चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है और मन में सन्तोष धारण कर धन-धान्य तथा चौपाये आदि परिग्रहों का परिमाण करना पाँचवाँ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत है । योजनों की संख्या निश्चित कर दशों दिशाओं में आने जाने का नियम करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार योग निरोध करना पहला गुणव्रत है । अब दूसरे गुणव्रतअनर्थदण्ड त्याग का वर्णन किया जाता है । निष्प्रयोजन कार्य करना अनर्थदण्ड कहलाता है । यह पाँच प्रकार का होता है । उनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक इन पाँच स्थावरों तथा त्रसजीवों की स्वयं हिंसा करना और दूसरों को उपदेश देना यह पाप हेतु-पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है तथा पशुपालन, खेती करना, व्यापार करना तथा परस्त्रियों का संयोग कराना आदि कार्यों का उपदेश देना यह भी पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है । मुर्गा, मयूर, बिलाव, चीता, नेवला तथा साँप आदि का पालन करना और उनकी क्रीड़ा करना यह भी अनर्थदण्ड है । ये ऊपर कहे हुए सब कार्य करना प्रथम अनर्थदण्ड है । अपने पास के शस्त्र दूसरे के द्वारा माँगे जाने पर देना तथा बिक्री के लिए उनका ग्रहण करना हिंसादान नाम का द्वितीय अनर्थदण्ड है । दूसरे के दोष कहने तथा परस्त्री में अपने मन की इच्छा करना अपध्यान नाम का तृतीय अनर्थदण्ड है । रागद्वेष को बढ़ाने वाली कथाओं का सुनना दु:श्रुति नाम का चतुर्थ अनर्थदण्ड है तथा विष, अग्नि, रस्सी, मैन, लौहा, लाख और नील आदि का देना तथा प्रयोजन के बिना ही फल, पत्र, पुष्प आदि का बिखेरना और घूमना-घुमाना यह प्रमादचर्या नाम का पञ्चम अनर्थदण्ड है । इसका त्याग करना अनर्थदण्डव्रत नाम का द्वितीय गुणव्रत कहलाता है । पुष्प, विलेपन, भूषण, वस्त्र और शय्या आदि भोगोपभोग की वस्तुओं का अपनी शक्ति के अनुसार परिमाण करना तृतीय गुणव्रत है । काय, वचन और मन का निरोध करना, समस्त पाप कार्यों का त्याग करना, सुख-दु:ख और संयोग-वियोग में समभाव रखना तथा त्रिकाल-तीनों संध्याओं में देववन्दना करना सामायिक नाम का पहला शिक्षाव्रत है । एक माह के बीच दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इस प्रकार चार पर्व आते हैं । इन चारों पर्वों में शक्ति के अनुसार जो उपवास, एक स्थान, एक भक्त अथवा रसपरित्याग किया जाता है वह प्रोषध नाम का दूसरा शिक्षाव्रत है । अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक पात्र के लिए जो आगमोक्त चार प्रकार का आहारदान दिया जाता है वह अतिथिसंविभाग नाम का तीसरा शिक्षाव्रत है । मरण के समय निस्पृह होकर "कोई भी वस्तु मेरी नहीं है और न में किसी का हूँ" - इस प्रकार का निर्ममत्व भाव रखना सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत है तथा सूर्य के अस्त न होने पर अर्थात् सूर्य के रहते हुए भोजन करना चाहिए । इतना सब होने पर भी यदि नवनीत का त्याग नहीं करता है तो जीवदया, ब्रह्मचर्य, पञ्चोदुम्बर फलों का त्याग, अभक्ष्य त्याग और सात व्यसनों का त्याग, यह सब निष्फल होता है । अनस्तमितव्रत सहित तथा दर्शनप्रतिमा के साथ इन बारह व्रतों का जो पालन करता है, वह व्रत प्रतिमा से युक्त होता है । इस प्रकार व्रत प्रतिमा का निरूपण हुआ । सामायिक आदि प्रतिमा का कथन करते हैं- शत्रुओं और मित्रों में समभाव करके तथा क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायों को जीतकर चैत्यालय अथवा घर में पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर कायवचन और मन की शुद्धिपूर्वक जो तीन कालों में पञ्च परमेठियों की वन्दना करता है, उसके सामायिक नाम की तीसरी प्रतिमा होती है । सप्तमी और त्रयोदशी के दिन एकाशन कर तथा उपवास का नियम लेकर अष्टमी और चतुर्दशी के दिन जिनमन्दिर में रहना चाहिए । पश्चात् नवमी और पञ्चदशी के दिन प्रात:काल जिनवन्दनादि कर अपने घर जाकर तथा अपनी शक्ति के अनुसार पात्रदान देकर स्वयं भोजन करना चाहिए । साथ ही उस पारणा के दिन भी एकाशन करना चाहिए । यही प्रोषधप्रतिमा कहलाती है । सचित्त फल, पत्र, पुष्प, शाक तथा शाखा आदि का जिसमें त्याग किया जाता है, वह सचित्त-त्यागप्रतिमा है । रात्रि में औषध, पान तथा पानी आदि चारों प्रकार के आहारों का जिसमें त्याग किया जाता है और दिन में मैथुन का त्याग किया जाता है, वह रात्रिभुक्तिव्रत नामक प्रतिमा है । सर्वथा स्त्री का त्याग करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है । देवी, मानुषी, तिर्यञ्ची, लेपमयी, काठमयी, शिलामयी तथा चित्रलिखित भी स्त्री को देखकर जो काय, वचन और मन से उसकी इच्छा नहीं करता है, उसके ब्रह्मचर्य प्रतिमा होती है । घर सम्बन्धी समस्त आरम्भों को छोड़कर कषाय रहित हो मन में सन्तोष करना चाहिए । ऐसा पुरुष आरम्भत्यागी होता है । द्रव्य का परिग्रह-पास में रुपया-पैसा आदि रखना मोह को उत्पन्न करता है, मोह से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, राग-द्वेष के कारण आर्तध्यान से मरण होता है और आर्तध्यान के होने से नरकगति प्राप्त होती है इसलिए मात्र वस्त्र को छोड़कर अन्य सभी द्रव्य समूह का काय, वचन और मन से त्याग करना चाहिए । यह परिग्रहत्याग प्रतिमा है । अपने शरीर के विषय में भी ममत्व भाव को छोड़ जो घर का त्याग कर सदा जिनमन्दिर में रहता है और घर सम्बन्धी कार्यों के विषय में पूछने वाले पुत्रादि को जो अनुमति भी नहीं देता है । जो जिनमन्दिर में रहता हुआ धर्मपाठ अथवा धर्मश्रवण करता है, धर्मध्यान से दिन-रात व्यतीत करता है, विकथाएँ न स्वयं करता है और न सुनता है उसके वह अनुमतिविरति नाम की दशवीं प्रतिमा होती है । उद्दिष्टत्याग प्रतिमा दो प्रकार की होती है । प्रथम प्रकार में लंगोट के अतिरिक्त एक वस्त्र रखता है, शिर पर केशों का मुण्डन करता है और भिक्षा से चर्या करता है । जैसा कि कहा है - परिकलिऊण य पत्तं पविसदि चरियाइ यंगणे ठिच्चा॥
जो पात्र लेकर दातार के घर में प्रवेश करता है आँगन में खड़ा होकर तथा "धर्मलाभ" कहकर साथ ही भिक्षा की याचना करता है अर्थात् "धर्मलाभ" इस शब्द के द्वारा ही भिक्षा प्राप्त करने का अभिप्राय प्रकट करता है ॥426॥भणिऊण धम्मलाहं जायदि भिक्खां सयं चेव ॥426॥ यस्यैतत्पात्रं भवति चर्यानन्तरं पुनस्तस्यैव समप्र्यते । यस्य पुन: पुरुषस्य कोपीनमात्रपरिग्रह स पिच्छिकां गृह्वाति, शिरसि लोचं कारयति, पात्रं गृहीत्वा पूर्वश्रावकवद् भिक्षां न चरति । किन्तु ऋषिसहितश्चर्यां नि:सृत: सन् ऋषिभुक्तौ सत्यां हस्तसंपुटे भोजनं करोति । बृहदन्तरायं पालयति, पञ्चसमितित्रिगुप्तिसंयुक्तो भवति यथाशक्ति द्वादशविधितपश्चरणनिरत:, आर्तरौद्रध्यानमुक्त: दुर्गतिकारणं वचनमपि न वक्ति, द्वादशानुप्रेक्षां प्रतिक्षणं चिन्व्यति, इच्छाकरं करोति, परमात्मानं तद्वचनं च सदा स्तौति । अमुना प्रकारेणान्यदपि जिनकथितं तत्सर्वमात्मशक्त्या पालयन् उत्तमश्रावक: स्यात् । अन्यथा श्रावकस्य कथनमुपलक्षणमात्रं भवति । अमुं धर्मं न करोति किन्तु अहं श्रावक: श्रावक इति वक्ति । न परममिथ्यात्वयुक्त इति बोध्यम् । इत्युद्दिष्टविरति नामैकादशी प्रतिमा । भवन्ति चात्र केचन श्लोका- जिसका यह पात्र होता है चर्या के अनन्तर वह उसी को सौंप दिया जाता है । (यह अनेक भिक्ष क्षुल्लक की विधि है जो एक भिक्ष क्षुल्लक होता है वह एक ही घर श्रावक द्वारा पड़गाह जाकर आहार ग्रहण करता है) । जिस पुरुष के लंगोट मात्र का परिग्रह होता है वह पिच्छिका ग्रहण करता है, शिर पर केशों का लोंच कराता है और क्षुल्लक की तरह पात्र लेकर भिक्षा के लिए भ्रमण नहीं करता है, किन्तु मुनियों के साथ चर्या के लिए निकलता है और मुनियों का आहार हो चुकने पर हस्तपुट में भोजन करता है, बड़े अन्तराय का पालन करता है तथा पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से संयुक्त होता है । शक्त्यानुसार बारह तपों में लीन रहता है, आर्त और रौद्रध्यान से दूर रहता है, दुर्गति के कारणभूत वचन भी नहीं बोलता है, बारह भावनाओं का प्रतिसमय चिन्तन करता है, इच्छाकार करता है और परमात्मा तथा उनके वचनों की सदा स्तुति करता है । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् ने और भी जो विधि कही है उस सबका अपनी शक्ति के अनुसार जो पालन करता है, वह उत्तम श्रावक होता है । अन्यथा "श्रावक है" यह कथन उपलक्षण मात्र होता है अर्थात् श्रावक के धर्म को करता नहीं है किन्तु "मैं श्रावक हूँ श्रावक हूँ" यही कहता है । वह महामिथ्यादृष्टि है ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार उद्दिष्टविरति नाम की ग्यारहवीं प्रतिमा है । यहाँ प्रकरणोपयोगी कुछ श्लोक हैं- समयस्थेषु वात्सल्यं स्वशक्त्या ये न कुर्वते ।
जो जिनशासन में स्थित-सहधर्मी बन्धुओं के विषय में अपनी शक्ति के अनुसार वात्सल्य नहीं करते हैं, वे बहुत पापों से आवृत्तात्मा-संयुक्त होते हुए धर्म से विमुख होंते हैं ॥427॥ते बहु पापावृतात्मान: स्युर्धर्माद्धि पराङ्मुखा: ॥427॥ येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते ।
जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश से करुणारूपी अमृत के द्वारा भरे हुए जिनके चित्त में जीवदया नहीं है, उनके धर्म कैसे हो सकता है? ॥428॥चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्म: कुतो भवेत् ॥428॥ यत्र प्राणिवधो धर्मो ह्यधर्मस्तत्र कीदृश: ।
जहाँ प्राणिवध धर्म कहलाता है वहाँ अधर्म कैसा होता है ? और जहाँ ऐसे मनुष्य होते हैं वहाँ पिशाच कैसे होते हैं? ॥429॥ईदृशा मनुजा यत्र पिशाचास्तत्र कीदृशा: ॥429॥ पूज्या: पिशाचा गुरुश्च कौला, हिंसा च धर्मो विषयाच्च मोक्ष: ।
जो पिशाचों को पूज्य मानते हैं, कोरियों को गुरु समझते हैं, हिंसा को धर्म कहते हैं और विषय सेवन से मोक्ष मानते हैं अरे मूर्ख! उन मनुष्यों ने उस मनुष्य जन्म को व्यर्थ खो दिया, जो अत्यन्त दुर्लभ है तथा समस्त भवों में पवित्र भव है ॥430॥सुदुर्लभं सर्वभवे पवित्रं, हा हारितं मूढमनुष्यजन्म ॥430॥ जीविताय विषं ह्यन्नं तेजसे च कृतं तम: ।
जिन पापी छिपे नास्तिकों ने हिंसा को पुण्य के लिए माना है उन्होंने जीवित रहने के लिए विष को अन्न माना है और प्रकाश के लिए अन्धकार को अर्जित किया है ॥431॥निगूढनास्तिकै:पापैर्हिंसा पुण्याय तु स्मृता ॥431॥ अशान्तिं प्राणिनां कृत्वा क: शान्तिकमिच्छति ।
प्राणियों को अशान्ति उत्पन्न कर शान्ति की इच्छा कौन करता है? धनिकों को नमक देकर क्या बदले में कपूर प्राप्त किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं ॥432॥इभ्यानां लवणं दत्त्वा किं कर्पूरं किलाप्यते ॥432॥ यो हि रक्षति भूतानि भूतानामभयप्रद: ।
प्राणियों को अभयदान देने वाला जो मनुष्य उनकी रक्षा करता है, भव-भव में उसकी रक्षा होती है । ठीक ही है जो दिया गया है वही प्राप्त होता है ॥433॥भवे भवे तस्य रक्षा यद् दत्तं तदवाप्यते ॥433॥ चिन्तामणिं त्यजति काचमणिं जिघृक्षु-
अहो! खेद है कि मूढ़ मनुष्य की पण्डिताई देखो वह चिन्तामणि को तो छोड़ता है और काँचमणि को ग्रहण करना चाहता है, मत्त हाथी को छोड़ता है और गधे को ग्रहण करता है तथार्मत्तेभमुज्झति परं खरमाददाति । हिंसां तनोति न पुन: करुणां करोति मूढस्य वीक्षितमहो वत पण्डितत्त्वम् ॥434॥ हिंसा को विस्तृत करता है परन्तु करुणा को विस्तृत नहीं करता है ॥434॥ यत्र जीवस्तत्र शिव: सर्वं विष्णुमयं जगत् ।
जहाँ जीव है वहाँ शिव है और समस्त जगत् विष्णुमय है ही इस प्रकार चतुर शैवों और वैष्णवों ने भी अहिंसा को विस्तृत किया है ॥435॥इति प्रर्पिता दक्षैरहिंसा शैववैष्णवै: ॥435॥ हिंसकस्य कुतो धर्म: कामुकस्य कुत: श्रुतम् ।
हिंसक को धर्म, कामी को शास्त्र, कपटी को सत्य और तृष्णावान को रति कैसे प्राप्त हो सकती है ॥436॥दाम्भिकस्य कुत: सत्यं तृष्णकस्य कुतो रति: ॥436॥ मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम् ।
क्योंकि दया, धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में प्रथम है, सम्पदाओं का स्थान है और गुणों का भण्डार है इसलिए विवेकी मनुष्यों को अवश्य ही स्वीकृत करनी चाहिए ॥437॥गुणानां निधिरित्यङ्गी दया कार्या विवेकिभि: ॥437॥ यतीनां श्रावकाणां च व्रतानि सकलान्यपि ।
जिनेन्द्र भगवान् ने मुनियों और श्रावकों के समस्त व्रत एक अहिंसा की प्रसिद्धि के लिए ही कहे हैं ॥438॥एकाहिंसा-प्रसिद्धयर्थं कथितानि जिनेश्वरै:॥438॥ पुनर्यतिनोक्तम्-अनेन जीवेन संसारे परिभ्रमता महता कष्टेन मनुष्यत्वं प्राप्तं जैनधर्मश्च । रात्रौ द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियप्रभृति मिश्रितान्नपान-खाद्य-स्वाद्य-लेह्य लक्षणं चतुर्विधाहारं भुक्त्वा नरकं गतश्चेत् पुनर्दुष्प्राप्यम् । उक्तञ्च- मुनिराज ने पुन: कहा - इस जीव ने संसार में परिभ्रमण करते हुए बड़े कष्ट से मनुष्यभव तथा जैनधर्म प्राप्त किया है । इसलिए रात्रि में यदि द्वीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय आदि जीवों से मिले हुए अन्न, पान, खाद्य और स्वाद्य अथवा लेह्य के भेद से चार प्रकार का आहार ग्रहण कर यदि नरक चला गया तो फिर मनुष्यभव का पाना कठिन है । कहा भी है - अह्नो मुखेऽवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजेत् ।
रात्रिभोजन के दोष को जानने वाला जो मनुष्य दिन के आदि और अन्त की दो घडि़यों को छोड़ता है अर्थात् उनमें भोजन नहीं करता है वह पुण्य का पात्र होता है ॥439॥ निशाभोजनदोषज्ञ: स्यादसौ पुण्यभाजनम् ॥439॥ मौनं भोजनवेलायां ज्ञानस्य विनयो भवेत् ।
भोजन के समय मौन रखने से ज्ञान की विनय होती है और अभिमान की रक्षा होती है इसलिए मुनिराज उसका उपदेश देते हैं ॥440॥रक्षणं चाभिमानस्येत्युद्दिशन्ति मुनीश्वरा: ॥440॥ हदनं मूत्रणं ऋानं पूजनं परमेठिनाम् ।
मल निवृत्ति, मूत्रत्याग, ऋान, परमेठियों का पूजन, भोजन, संभोग और स्तुति; ये सात कार्य मौन सहित करना चाहिए ॥441॥भोजनं सुरतं स्तोत्रं कुर्यान्मोनसमायुतम् ॥441॥ विरूपो विकलाङ्ग: स्यादल्पायु रोगपीडित: ।
रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य सदा कुरूप, विकलांग, अल्पायु, रोगपीडि़त, भाग्यहीन और नीचकुली होता है ॥442॥दुर्भगो दुष्कुलश्चैव नक्तंभोजी सदा नर: ॥442॥ उलूक - काक - मार्जार - गृध्र - शंवर-सूकरा: ।
रात्रिभोजन करने से मनुष्य उलूक, काक, बिलाव, गीध, सांवर, सूकर, साँप, बिच्छू तथा गोह होते हैं ॥443॥अहिवृश्चिक गोधाश्च जायन्ते रात्रि-भोजनात् ॥443॥ वासरे च रजन्यां य: खादन्नेवेह तिष्ठति ।
जो मनुष्य इस जगत् में रात-दिन खाता ही रहता है वह सींग और पूँछ से रहित पशु ही है ॥444॥श्रृङ्गपुच्छपरिभ्रष्ट: स्पष्टं स पशुरेव हि ॥444॥ ये वासरं परित्यज्य रजन्यामेव भुञ्जते॥
ते परित्यज्य माणिक्यं काचमाददते जडा: ॥445॥ योऽनस्तमितं पालयति स देवलोके सुरोभूत्वा तस्मादागत्येक्ष्वाक्वादिक्षत्रियवंशेषु वैश्यवंशेषु वा समुत्पद्य दिव्यभोगानुभवनं कृत्वा पश्चात्तपोऽनुठानेन सर्वज्ञपदवीपूर्वकं सिद्धपदवीं गच्छति । तथा चोक्तम्- जो मनुष्य दिन को छोड़कर रात्रि में ही भोजन करते हैं वे मूर्ख मणि को छोड़कर काँच को ग्रहण करते हैं ॥445॥ जो अनस्तमित व्रत का पालन करता है वह स्वर्गलोक में देव होता है, वहाँ से आकर इक्ष्वाकु आदि क्षत्रिय-वंशों तथा वैश्य-वंशों में उत्पन्न होकर दिव्य भोगों का अनुभव करता है पश्चात् तप करके अरहन्त पदवी को प्राप्त करता हुआ सिद्ध पद को प्राप्त होता है । जैसा कि कहा है - निजकुलैकमण्डनं त्रिजगदीश-सम्पदम् ।
जो स्वभाव से रात्रिभोजन का त्याग करता है वह अपने कुल का भूषण होता हुआ त्रिलोकीनाथ की संपदा को प्राप्त होता है ॥446॥भजति य: स्वभावतस्त्यजति नक्तभोजनम् ॥446॥ देवभक्त्या गुरूपास्त्या सर्वसत्त्वानुकम्पया ।
देवभक्ति, गुरूपासना, सर्वजीवानुकम्पा, सत्संगति और आगम श्रवण के द्वारा मनुष्य जन्म का फल प्राप्त करो ॥447॥सत्संगत्यागमश्रुत्या गृह्यतां जन्मन: फलम् ॥447॥ अपेया पश्य पीयूषगर्गरी गर-बिन्दुना ।
देखो, विष की बूँद से दूषित अमृत की गगरी छोड़ने के योग्य होती है क्योंकि छोटा-सा दोष भी बड़े-बड़े गुणों को दूषित कर देता है ॥448॥गुणान् गुरुतरान् सर्वान् दोष: स्वल्पोऽपि दूषयेत् ॥448॥ इत्थं श्रुतसागरमहामुनिमुखारविन्दाद् विनिर्गतं धर्मं श्रुत्वा सप्तव्यसननिवृत्तिं कृत्वा दर्शनपूर्वकं श्रावकव्रतं गृहीत्वा च श्रावको जात: स उमय: । अपरमप्यज्ञातफलाभक्षणव्रतं तेन गृहीतम् । गुणिनां प्रसङ्गेन गुणहीना अपि गुणिनो भवन्ति । तत: सन्मार्गस्थं भ्रातरमुमयं ज्ञात्वा जिनदत्तया महता गौरवेण स्वगृहमानीतो दानेन । संतोषितश्च । लोकमध्ये प्रतिष्ठापित: । तथा चोक्तम्- इस प्रकार श्रुतसागर महामुनि के मुख कमल से विनिर्गत धर्म को सुनकर, सप्त व्यसन का त्याग कर तथा सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावक के व्रत ग्रहण कर वह उमय श्रावक हो गया । इसके अतिरिक्त उसने अज्ञातफल के न खाने का व्रत भी ले लिया । ठीक ही है गुणीजनों के संग से गुणहीन मनुष्य भी गुणी हो जाते हैं । तदनन्तर भाई उमय को सन्मार्ग में स्थित जानकर जिनदत्ता उसे बड़े सम्मान से अपने घर ले गयी तथा दान के द्वारा उसने उसे संतुष्ट किया और लोक में उसकी प्रतिष्ठा बढाई । जैसा कि कहा है- यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम् ।
न्यायमार्ग में प्रवृत्त मनुष्य की तिर्यर् भी सहायता करते हैं और कुमार्ग में चलने वाले को सगा भाई भी छोड़ देता है ॥449॥अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विर्मुति ॥449॥ उत्तमै: सह सांगत्यं पण्डितै: सह संकथाम् ।
उत्तम मनुष्यों के साथ संगति, विद्वानों के साथ वार्तालाप और अलोभी मनुष्यों के साथ मित्रता को करने वाला कभी दुखी नहीं होता है ॥450॥अलुब्धै: सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति ॥450॥ पुनश्च- और भी कहा है - पतितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुक: ।
गेंद हाथ के आघातों से नीचे गिरकर भी ऊपर की ओर उछलती है । ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषों की विपत्तियाँ प्राय: अस्थायी होती हैं ॥451॥प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तय: ॥451॥ एकदोज्जयिनीनगरात् केचन सार्थवाहा: कौशाम्बीं समागता: । तै: सन्मार्गस्थमुमयं दृष्ट्वा प्रशंसित: स: । त्वं धन्योऽसि, त्वमुत्तमसङ्गे उत्तमो जातोऽसि । इत्येवमनेकधा स्तुत: । तथा चोक्तम्- एक समय, उज्जयिनी नगरी से कुछ बनजारे सेठ कौशाम्बी नगरी आये । उन्होंने उमय को सन्मार्ग में स्थित देख उसकी खूब प्रशंसा की । तुम धन्य हो, तुम उत्तम मनुष्यों की संगति से उत्तम हो गये हो । इस तरह अनेक प्रकार से उसकी स्तुति की । जैसा कि कहा है - हीयते हि मतिस्तात हीनै: सह समागमात् ।
हे तात! हीन मनुष्यों की संगति से बुद्धिहीन हो जाती है, समान मनुष्यों की संगति से समता की प्राप्ति होती है और विशिष्ट मनुष्यों की संगति से विशिष्टता हो जाती है ॥452॥समैश्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥452॥ किञ्च- और भी कहा है - संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न श्रूयते ।
संतप्त लोहे पर स्थित पानी का नाम भी सुनायी नहीं देता । वही पानी कमलिनी के पत्र पर स्थित होकर मोती के समान सुशोभित होता है और स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सींप में जाकर मोती हो जाता है । ठीक ही है क्योंकि मनुष्य के अधम, मध्यम और उत्तम गुण प्राय: संसर्ग से होंते हैं ॥453॥मुक्ताकारव्या तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । स्वातौ सागरशुक्ति-संपुटगतं मुक्ताफलं जायते । प्रायेणाधम-मध्यमोत्तमगुणा: संसर्गतो देहिनाम् ॥453॥ पुनश्च- और भी कहा है - यथा चन्द्रं विना रात्रि: कमलेन सरोवरम् ।
जिस प्रकार चन्द्रमा के बिना रात्रि और कमल के बिना सरोवर सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार धर्म के बिना सदा जीव सुशोभित नहीं होता ॥454॥तथा न शोभते जीवो बिना धर्मेण सर्वदा ॥454॥ ततो बहुतरं क्रयाणकं गृहीत्वा सार्थवाहै: सह निज-नगरं प्रति निर्गत उमय: । अन्यदात्यासन्ननगरे समायाते कतिपयजनै: सह माता पितृदर्शनौत्यातिशयेनोमयोऽग्रतो भूत्वा निर्गत: । रात्रौ प्रमादवशात् मार्गं परित्यज्य महाटव्यां पतित: । प्रभाते सूर्योदयो जात: । ततोऽटव्यां भ्रमद्भि: क्षुधादिपरिपीडितैर्मित्रै: रूपरसगन्धवर्णमाधुर्यधुर्याणिमरण कारणानि किंपाकस्य फलानि दृष्ट्वा भक्षितानि । तदनन्तरमुमयस्य दत्तानि तेनोक्तम्-किंनामधेयानि तैरुक्तम्-नाम्ना किम्? साम्प्रतमस्मत्संतर्पणकृतेऽमूनि फलानि शोभनानि, विलोक्यन्ते तत: कटुकनीरसदुर्गंन्ध स्वादरहितानि परित्यज्यान्यानि फलानि भक्षयित्वाऽऽत्मानं संतर्पय उमयेनोक्तम्-अज्ञात-फलानां भक्षणे मम नियमोऽस्ति । अतएवाहं सर्वथा न भक्षयिष्ये । इत्युक्त्वा न भक्षितानि तानि तेन । तत: कियती वेला मध्ये सर्वे सहाया मूचि्र्छता: सन्तो भूमौ पतिता: । तेषां शोकेन दु:खी-भूयोमयो वदति- अहो! ईदृग्विधस्य फलस्य मध्ये कालकूटमस्तीति को जानाति ? तदनन्तरमुमयस्य व्रतनिश्चयपरीक्षणार्थं मनोज्ञं स्त्रीरूपं धृत्वा वनदेवव्याऽऽगत्य भणितम्-रे सत्पुरुष! अस्य कल्पवृक्षस्य फलानि किमर्थं न भक्षितानि? तव मित्रैर्यानि फलानि भक्षितानि तान्यन्यानि विषवृक्षस्य फलानि । असौ कल्पवृक्ष: अस्य वृक्षस्य फलानि पुण्यैर्विना न प्राप्यन्ते । अस्य वृक्षस्य फलानि योऽत्ति स सर्वव्याधिरहितो भवति । न कदाचिदपि म्रियते दु:खं न विलोकयति । ज्ञानेन सचराचरं जानाति । पूर्वमहमतीव वृद्धाभवम् । इन्द्रेणैतत्फल-रक्षणार्थमहमत्र स्थापिता । अस्य फल भक्षणेनाहं नवयौवना जातेति । एतद्वचनं श्रुत्वोमयोंनोक्तम्-भो भगिनि! ममाज्ञातफलभक्षणे नियमोऽस्ति । अतो मह्यमस्याभिधानं निवेदय । सा कथयति-न वेद्म्यभिधानम् । उमयेनोक्तम्-तर्हि किमेतैरतिशयै: । किन्तु यल्ललाटलिखितं तदेव भवति नान्यदिति किं बहु जल्पितेन? उमयस्यैतद् धैर्यं दृष्ट्वा वनदेवव्योंक्तम्-भो पथिक! तवोपरि तुष्टाहं वरं वाञ्छ । तेनोक्तम्-यदि तुष्टासि, तर्हि मम सहायानुत्थापय । उज्जयिनीनगरीमार्गं च दर्शय । व्योक्तम्-एवमस्तु । तथा च- तदनन्तर बहुत-सा बिक्री का सामान लेकर उमय उन बनजारों के साथ अपने नगर की ओर चला । किसी अन्य समय जब नगर अत्यन्त निकट आ गया तब वह माता-पिता के दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा से कुछ लोगों के साथ आगे निकल गया । रात्रि में प्रमादवश वह मार्ग छोड़कर बड़ी भारी अटवी में जा पहुँचा । प्रात:काल सूर्योदय हुआ । तदनन्तर अटवी में घूमते हुए, क्षुधा आदि से पीडि़त मित्रों ने रूप, रस, गन्ध, वर्ण और माधुर्य से श्रेठ, मृत्यु के कारणभूत किंपाक विषवृक्ष के फल देखकर खाये । पश्चात् उन्होंने वे फल उमय को दिये । उमय ने कहा - ये फल किस नाम के हैं ? मित्रों ने कहा कि-नाम से क्या प्रयोजन है ? इस समय हम लोगों को सन्तुष्ट करने के लिए ये फल अच्छे दिखाई देते हैं । इसलिए कडुवे, नीरस, दुर्गन्धयुक्त तथा स्वाद रहित अन्य फलों को छोड़कर तथा इन्हें खाकर अपने आपको सन्तुष्ट करो । उमय ने कहा - अज्ञात फलों के भक्षण के विषय में मेरा नियम है अर्थात् मैं अनजाने फल नहीं खाता हूँ । इसलिए मैं इन्हें नहीं खाऊँगा । इतना कहकर उसने वे फल नहीं खाये । पश्चात् कुछ समय के भीतर वे सब मित्र मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । उनके शोक से उमय दु:खी होकर कहता है-अहो, ऐसे फल के बीच में कालकूट विष है, यह कौन जानता है? तदनन्तर उमय के व्रत सम्बन्धी निश्चय की परीक्षा के लिए सुन्दर रूप रख वनदेवता ने आकर कहा - हे सत्पुरुष! इस कल्पवृक्ष के फल क्यों नहीं खाये? तुम्हारे मित्रों ने जो फल खाये हैं, वे विषवृक्ष के अन्य फल हैं । यह कल्पवृक्ष है, इस वृक्ष के फल पुण्य के बिना प्राप्त नहीं होते । इस वृक्ष के फलों को जो खाता है वह सर्वरोगों से रहित होता है तथा कभी मरता नहीं है, दु:ख नहीं देखता है, ज्ञान के द्वारा चराचर सहित लोक को जानता है । मैं पहले बहुत वृद्धा थी । इन्द्र ने इसके फलों की रक्षा के लिए मुझे यहाँ रखा है । इसके फल खाने से मैं नव यौवनवती हो गयी हूँ । यह वचन सुनकर उमय ने कहा कि-हे बहिन! अज्ञात फल के भक्षण के विषय में मेरा नियम है अर्थात् मैं अज्ञात फल नहीं खाता हूँ । इसलिए मुझे इस फल का नाम बताओ । वनदेवता कहती है कि मैं नाम नहीं जानती हूँ । उमय ने कहा - तो फिर इन अतिशयों से क्या प्रयोजन है ? किन्तु जो कुछ ललाट में लिखा है-वही होता है अन्य नहीं । बहुत कहने से क्या लाभ है? उमय के इस धैर्य को देखकर वनदेवता ने कहा - हे पथिक! तुम्हारे ऊपर मैं संतुष्ट हूँ । वर माँगो-उसने कहा - यदि संतुष्ट हो तो हमारे साथियों को उठा दो और उज्जयिनी का मार्ग बतला दो । वनदेवता ने कहा - ऐसा हो । जैसा कि कहा है - उद्यम: साहसं धैर्यं बलं बुद्धि: पराक्रम: ।
उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि और पराक्रम; ये छह जिसके पास हैं देव भी उसके वश में रहते हैं ॥455॥षडैते यस्य विद्यन्ते तस्य देवोऽपि शक्यते ॥455॥ किञ्च- और भी कहा है - उत्साह-सम्पन्नमदीर्घसूत्रं, क्रिया-विधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् ।
जो उत्साह से सहित है, शीघ्रता से कार्य करता है, कार्य करने की विधि को जानता है, व्यसनों में अनासक्त है, शूरवीर है, कृतज्ञ है और दृढ़ मित्रता वाला है । लक्ष्मी, निवास के हेतु उस पुरुष के समीप स्वयं पहुँचना चाहती है ॥456॥शूरं कृतज्ञं दृढसौहृदं च लक्ष्मी: स्वयं वाञ्छति वासहेतो: ॥456॥ गुणा: कुर्वन्ति दूतत्वं दूरेऽपिवसतां सताम् ।
गुण, दूर भी रहने वाले मनुष्यों का दूतपन करते हैं क्योंकि केतकी की गन्ध को सूँघकर भ्रमर स्वयं ही उसके पास पहुँच जाते हैं ॥457॥केतकीगन्धमाघ्राय स्वयं गच्छन्ति षट्पदा: ॥457॥ ततो देवता प्रभावात्सर्वेऽप्युत्थिता: तदनन्तरं तैर्भणितम्-भो उमय तव प्रसादेन वयं जीविता: । तव व्रत-माहात्म्यमद्य दृष्टमस्माभि: । तव किमप्यगम्यं नास्ति । ततस्व्या देवव्या नगरमार्गोऽपि दर्शित: । क्रमेण तै: सहायै: सह स्वगृहमागत उमय: । सच्चरित्रवन्तमुमयं दृष्ट्वा वृत्तवृत्तान्तं च श्रुत्वा पिता मातृराजमन्त्रिस्वजन परिजनादिभि: प्रशंसित: । अहो, धन्योऽयमुमयो महत्संयोगेन पूज्यो जात: । तथा च- तदनन्तर देवता के प्रभाव से सब उठकर खड़े हो गये । पश्चात् उन सब साथियों ने कहा कि-हे उमय! तुम्हारे प्रसाद से हम सब जीवित हुए । तुम्हारे व्रत का माहात्म्य आज हम लोगों ने देख लिया । तुम्हारे लिए कोई भी कार्य अगम नहीं है । तदनन्तर उस वनदेवता ने नगर का मार्ग भी दिखा दिया, जिससे क्रमपूर्वक अपने साथियों के साथ उमय अपने घर आ गया । उत्तम आचरण से युक्त उमय को देखकर तथा उसके पूर्व वृत्तान्त को सुनकर पिता, माता, राजा, मन्त्री, स्वजन और परिजन आदि ने उसकी खूब प्रशंसा की । अहो! यह उमय धन्य है, महापुरुषों के संयोग से पूज्य हो गया है । जैसा कि कहा है - उत्तमै: सह संगत्या पुमानाप्नोति गौरवम् ।
उत्तम पुरुषों के साथ संगति करने से मनुष्य गौरव को प्राप्त होता है क्योंकि फूलों से सहित तन्तु भी मस्तक से धारण किया जाता है ॥458॥पुष्पैश्च सहितस्तन्तुरुत्तमाङ्गेन धार्यते ॥458॥ द्वितीयदिने नगरदेवव्यागत्य सर्वपुरसाक्षिकं रत्नमण्डपं विकृत्य तन्मध्ये सिंहासनं च तस्योपरि उमयं विनिवेश्याभिषेकं विधाय पूजा कृता । पञ्चाश्चर्यं च कृतम् । एतत्सर्वं दृष्ट्वा राज्ञा भणितम्-जिनधर्म एव सर्वापदं हरति नान्य: । तथा च- दूसरे दिन नगरदेवता ने आकर सब नगरवासियों की साक्षीपूर्वक विक्रिया से एक रत्नमण्डप और उसके बीच सिंहासन बनाया तथा उसके ऊपर उमय को बैठाकर अभिषेकपूर्वक उसकी पूजा की-सम्मान किया, पञ्चाश्चर्य किये । यह सब देख राजा ने कहा कि-धर्म ही सब आपत्तियों को हरता है अन्य नहीं । जैसा कि कहा है - धर्म: शर्म परत्र चेह च नृणां धर्मोन्धकारे रवि:
धर्म, इहलोक तथा परलोक में मनुष्य के लिए सुखस्वरूप है । धर्म अन्धकार में सूर्य है । धर्म, पंडितों की सब आपत्तियों का शमन करने में समर्थ है । धर्म, निधियों का खजाना है । धर्म, बन्धु रहित का बन्धु है । धर्म, लम्बे मार्ग में साथ चलने वाला मित्र है और धर्म, संसाररूपी विशाल मरुस्थल में कल्पवृक्ष है, वास्तव में धर्म से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है ॥459॥सर्वापत्प्रशमक्षम: सुमनसां धर्मो निधीनां निधि: । धर्मो बन्धुरबान्धवे पृथुपथे धर्म: सुहृन्निश्चल: संसारोरुमरुस्थले सुरतरुर्नास्त्येव धर्मात्पर: ॥459॥ तदनन्तरं स्वस्वपुत्रं स्वस्वपदे संस्थाप्य नरपालेन राज्ञा, मदनदेवेन मन्त्रिणा, राजश्रेष्ठिना समुद्रदत्तेन, पुत्रेणोमयेन, चान्यैश्च बहुभि: सहस्रकीर्तिमुनिनाथसमीपे तपो गृहीतम् । केचन श्रावका जाता: केचन भद्रपरिणामिनश्च जाता: । राह्या मनोवेगया, मन्त्रिभार्यया सोमया, राजश्रेष्ठिभार्यया सागरदत्तयाऽन्याभिश्च बह्वीभिरनन्तमतीक्षान्तिका समीपे तपो गृहीतम् । काश्चिच्च श्राविका जाता: । तत: कनकलव्या भणितम् हे स्वामिन्! एतत् सर्वं मया प्रत्यक्षेण दृष्टम् । तदनन्तरं मम दृढ़तरं सम्यक्त्वं जातम् । धर्मे मतिश्च दृढ़तरा जाता । अर्हद्दासेनोक्तम्-भो भार्ये! यत् दृष्टं त्वया तत्सर्वमहं श्रद्दधामि, इच्छामि, रोचे । अन्याभिश्च तथैव भणितम् । श्रेष्ठिना कुन्दलतां प्रति भणितम्-हे कुन्दलते! त्वमपि निश्चलचित्ता सती नृत्यादिकं कुरु । तच्छ्रुत्वा कुन्दलव्योक्तम्-एतत्सर्वमप्यसत्यम् । तच्छ्रुत्वा राज्ञा मन्त्रिणा चौरेण स्वमनसि चिन्तितम्-अहो, कनकलव्या यत् प्रत्यक्षेण दृष्टं तत् कथम्- सत्यमियं पापिठा कुन्दलता निरूपयति । प्रभातसमये गर्दभमधिठाप्यास्या निग्रहं करिष्यामो वयम् । पुनरपि चौरेण स्वमनसि विमृशितम्-योऽविद्यमानदोषं निरूपयति स नीचगतिभाजनं भवति । तथा चोक्तम्- तदनन्तर अपने-अपने पुत्रों को अपने-अपने पद पर स्थापित कर नरपाल राजा, मदनदेव मन्त्री, राजसेठ समुद्रदत्त, उमय पुत्र तथा अन्य बहुत लोगों ने सहस्रकीर्ति मुनिराज के समीप तप ग्रहण कर लिया । कितने ही श्रावक और कितने ही भद्रपरिणामी हो गये । रानी मनोवेगा, मन्त्री की स्त्री सोमा, राजसेठ की पत्नी सागरदत्ता तथा अन्य बहुत स्त्रियों ने अनन्तमती आर्यिका के समीप तप ग्रहण किया । कुछ स्त्रियाँ श्रावक हुईं । पश्चात् कनकलता ने कहा कि-हे स्वामिन्! यह सब मैंने प्रत्यक्ष देखा है । तदनन्तर मुझे अत्यन्त दृढ़ सम्यक्त्व हुआ है और धर्म में मेरी बुद्धि सुदृढ़ हुई है । अर्हद्दास ने कहा कि-हे प्रिये! तुमने जो देखा है उन सबकी मैं श्रद्धा करता हूँ, इच्छा करता हूँ और रुचि करता हूँ । अन्य स्त्रियों ने भी ऐसा ही कहा । सेठ ने कुन्दलता के प्रति कहा कि-हे कुन्दलते! तुम भी निश्चल चित्त होकर नृत्यादिक करो । यह सुनकर कुन्दलता ने कहा कि-यह सब असत्य है । वह सुनकर राजा, मन्त्री और चोर ने अपने मन में विचार किया कि अहो! कनकलता ने जिसे प्रत्यक्ष देखा है उसे यह पापिनी कुन्दलता असत्य बतलाती है । प्रभात समय इसे गधे पर बैठाकर इसका निग्रह करेंगे-इसे दण्ड देवेंगे । चोर ने पुन: अपने मन में विचार किया कि जो अविद्यमान दोष का निरूपण करता है वह नीचगति का पात्र होता है । जैसा कि कहा है - न सतोऽन्यगुणान् हिंस्यान्नासत: स्वस्य वर्णयेत् ।
दूसरे के विद्यमान गुणों को नष्ट नहीं करना चाहिए और न अपने अविद्यमान गुणों का वर्णन करना चाहिए । क्योंकि ऐसा करने वाला मनुष्य नीच गोत्र से युक्त होता है ॥460॥तथा कुर्वन् प्रजायेत नीचगोत्रान्वित: पुमान् ॥460॥ ॥इति सप्तमी कथा॥ ॥इस प्रकार सातवीं कथा पूर्ण हुई॥ |