ज्ञानमती :
विग्रह आदि महोदय भगवन्! तव अध्यात्म क्षुधादि रहित;;बाह्य महोदय कुसुमवृष्टि, गंधोदक आदिक देव रचित;;दिव्य, सत्य ये वैभव फिर भी, रागादिक युत सुरगण में;;पाये जाते हैं, हे जिनवर! अत: आप नहिं पूज्य हमें ॥२॥
अंतरंग विग्रह आदि महोदय-निरन्तर पसीना-रहित-पना आदि एवं बहिरंग-गन्धोदक वृष्टि आदि महोदय जो कि दिव्य हैं, सत्य अर्थात् वास्तविक हैं । इस प्रकार अन्तरंग, बहिरंग शरीर आदि महोदय भी मस्करीपूरण आदि में न होते हुए भी राग-द्वेष-युक्त देवों में पाये जाते हैं, इसलिए भी हे भगवन् ! आप महान नहीं हैं ॥२॥
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