+ विग्रह आदि महोदय से भी आप महान नहीं हैं -
अध्यात्मं बहिरप्येष, विग्रहादि-महोदय:
दिव्य: सत्यो दिवौकस्स्व-प्यस्ति रागादिमत्सु स: ॥2॥
अन्वयार्थ : [एष अध्यात्मं बहिरपि विग्रहादि महोदय:] यह अंतरंग और बहिरंग शरीर आदि का जो महोदय है [दिव्य: सत्य:] जो कि अमानुषिक और सत्य है [स: रागादि मत्सु दिवौकस्सु अपि अस्ति] वह महोदय राग-द्वेष आदि सहित देवों में भी पाया जाता है । इसलिए भी आप हमारे लिए महान नहीं हो सकते हैं ॥२॥

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


विग्रह आदि महोदय भगवन्! तव अध्यात्म क्षुधादि रहित;;बाह्य महोदय कुसुमवृष्टि, गंधोदक आदिक देव रचित;;दिव्य, सत्य ये वैभव फिर भी, रागादिक युत सुरगण में;;पाये जाते हैं, हे जिनवर! अत: आप नहिं पूज्य हमें ॥२॥
अंतरंग विग्रह आदि महोदय-निरन्तर पसीना-रहित-पना आदि एवं बहिरंग-गन्धोदक वृष्टि आदि महोदय जो कि दिव्य हैं, सत्य अर्थात् वास्तविक हैं । इस प्रकार अन्तरंग, बहिरंग शरीर आदि महोदय भी मस्करीपूरण आदि में न होते हुए भी राग-द्वेष-युक्त देवों में पाये जाते हैं, इसलिए भी हे भगवन् ! आप महान नहीं हैं ॥२॥