+ तीर्थंकरत्व हेतु से भी आप महान नहीं हैं -
तीर्थकृत्समयानां च, परस्परविरोधत:
सर्वेषामाप्तता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरु: ॥3॥
अन्वयार्थ : [तीर्थकत्समयानां च] सभी तीर्थंकरों के आगमों में [परस्पर विरोधत:] परस्पर में विरोध पाया जाता है अत: [सर्वेषां आप्तता नास्ति] सभी आप्त नहीं हो सकते हैं [कश्चिदेव भवेत् गुरु:] इन सबमें से कोई एक ही महान गुरु हो सकता है ॥३॥

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


सभी मतो में तीर्थंकर, के आगम में दिखे विरोध;;सभी आप्त सच्चे परमेश्वर, नहिं हो सकते अत: जिनेश!;;इन सबमें से कोई एक ही, आप्त-सत्यगुरु हो सकता;;चित्-सर्वज्ञ देव परमात्मा, सत्त्वहितंकर जगभर्ता ॥३॥
परमागम लक्षण तीर्थ को करने वाले तीर्थकृत् कहलाते हैं । उनके समय अर्थात् आगमों में परस्पर में भिन्न-भिन्न अभिप्राय होने से विरोध पाया जाता है, अत: सभी को आप्तपना (सर्वज्ञपना) नहीं है, अर्थात् मीमांसक, सांख्य, सौगत, नैयायिक, चार्वाक, तत्वोपप्लववादी, यौग, ब्रह्माद्वैतवादी, ज्ञानाद्वैतवादी आदि अनेक एकान्तमतावलम्बी वादियों में सभी के ही सर्वज्ञता नहीं हो सकती है, इसलिए कोई एक गुरु-परमात्मा अवश्य है ॥३॥

श्री समंतभद्र स्वामी 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि मंगलाचरण का आधार लेकर सर्वज्ञ भगवान की परीक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं । तब वे भगवान से मानों प्रश्नोत्तर ही कर रहे हैं अत: पहली कारिका में तो स्वामी ने देवागम आदि वैभव से भगवान को पूज्य नहीं माना, दूसरी कारिका में शरीर आदि के विशेष महोदय से भी पूज्य नहीं माना है। पुन: तीसरी कारिका में तीर्थंकरत्व हेतु से भी पूज्य नहीं माना है । इसी कारिका में परस्पर विरोध शब्द से श्री विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री ग्रन्थ में मीमांसक आदि के वेदों में नियोग-वाद, विधिवाद आदि के निमित्त से विशेष-रूप से परस्पर के विरोध को स्पष्ट किया है एवं जो सर्वज्ञ को नहीं मानते हैं और वेदों को अपौरुषेय मानते हैं तथा चार्वाक और शून्यमतवादी भी आत्मा एवं परलोक का अस्तित्व न मानने से सर्वज्ञ का अभाव कहते हैं । इन सभी को समझाते हुए इनके मतों का खण्डन करके ठीक से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध किया है ।