+ दोषों तथा आवरणों का पूर्णतया अभाव संभव है -
दोषावरणयोर्हानि-र्नि:शेषास्त्यतिशायनात्
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षय: ॥4॥
अन्वयार्थ : [क्वचित्] किसी जीव विशेष में [दोषावरणयोर्हानि: नि:शेषा अस्ति] दोष और आवरणों की हानि पूर्णतया पायी जाती है [अतिशायनात्] क्योंकि अन्य जीवो में दोष और आवरण की तरतमता देखी जाती है [यथा स्वहेतुभ्यो बहिरंत: मलक्षय:] जैसे अपने हेतु आदि से सुवर्ण के किट्ट, कालिमा आदि अंतरंग एवं बहिरंग मल का नाश देखा जाता है ॥४॥

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


किसी जीव में सर्व दोष अरु, आवरणों की हानि नि:शेष;;हो सकती है क्योंकि जगत में, तरतमता से दिखे विशेष;;रागादिक की हानि किन्हीं में, दिखती है कुछ अंशों से;;जैसे हेतू से बाह्यांतर, मल क्षय होता स्वर्णों से
किसी जीव में दोष और आवरण की हानि परिपूर्ण रूप से हो सकती है क्योंकि अन्यत्र उसका अतिशयपना पाया जाता है । जिस प्रकार से अपने हेतुओं के द्वारा कनक-पाषाणादि में बाह्य एवं अंतरंग मल का पूर्णतया अभाव पाया जाता है ॥४॥