
ज्ञानमती :
प्रभु तव मत अमृत से बाहर, दुराग्रही-एकांतमती;;'मैं हूँ आप्त' सदा इस मद से, दग्ध हुए अज्ञानमती;;उनका वह ऐकांतिक शासन, इष्ट उन्हें फिर भी बाधित;;प्रत्यक्षादि प्रमाणों से वह, तत्त्व सदा निन्दित दूषित
हे भगवन् ! आपके मत रूप अमृत से जो बहिर्भूत हैं सर्वथा एकांतरूप मत को कहने वाले हैं और 'मैं ही आप्त हूँ' इस प्रकार के अभिमान से जो दग्ध हैं उनका इष्ट-मत प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होता है ॥७॥
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