+ प्रागभाव-प्रध्वंसाभाव को न मानने में दोष -
कार्यद्रव्यमनादि स्यात्, प्रागभावस्य निन्हवे
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य, प्रच्यवेऽनतन्तां व्रजेत् ॥10॥
अन्वयार्थ : [प्रागभावस्य निन्हवे कार्यद्रव्यमनादि स्यात्] यदि प्रागभाव को न माना जावे, तब तो सभी कार्य अनादि हो जावेंगे [प्रध्वंसस्य च धर्मस्य, प्रच्यवेऽनतन्तां व्रजेत्] और प्रध्वंस धर्म को नहीं मानने पर सभी वस्तुएं अनंतकाल तक बनी रहेंगी ॥१०॥

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


प्रागभाव को यदि नहिं मानों, सभी कार्य हो अनादि सिद्ध;;मिट्टी में घट सदा बना है, फिर क्या करता चक्र निमित्त;;यदि प्रध्वंस धर्म नहिं मानों, किसी वस्तु का अन्त न हो;;पिता, पितामह आदि कभी भी, अंत-मरण को प्राप्त न हों
हे भगवन् ! यदि प्रागभाव का लोप करेंगे, तब तो सम्पूर्ण कार्य अनादि सिद्ध हो जावेंगे और यदि प्रध्वंसाभाव का अभाव करेंगे, तब तो सभी वस्तु की पर्यायें अनन्तपने को प्राप्त हो जावेंगी

इस कारिका के अर्थ में श्री विद्यानंदस्वामी ने अष्टसहस्री में अभाव के नहीं मानने वालों का विस्तृत खंडन किया है । चार्वाक प्रागभाव को स्वीकार नहीं करता है, नैयायिक प्रागभाव को तुच्छाभाव रूप मानते हैं । चार्वाक प्रध्वंसाभाव को भी नहीं मानता है अत: शब्द को नित्य एक अखण्ड सिद्ध करने का प्रयत्न करता है । नैयायिक शब्द को नित्यभूत आकाश का गुण मान रहे हैं ।