+ अन्योन्याभाव-अत्यंताभाव को न मानने में दोष -
सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोह-व्यतिक्रमे
अन्यत्र समवाये न, व्यपदिश्येत सर्वथा ॥11॥
अन्वयार्थ : [अन्यापोहव्यतिक्रमे तदेकं सर्वात्मकं स्यात्] यदि अन्यापोह का लोप कर दिया जाये, तो वह अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व सब रूप बन जावेगा [अन्यत्र समवाये सर्वथा न व्यपदिश्येत] और यदि अत्यंताभाव का लोप किया जावे, तब तो एक इष्ट तत्त्व का अन्य के तत्त्व में संमिश्रण हो जाने पर सर्वथा अपना इष्ट तत्त्व कहा ही नहीं जा सकेगा

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


यदि अन्योन्याभाव नहीं हो, एक वस्तु सब रूप बने;;एक समय में मनुज बने, सुर-पशु-नारक पर्याय घने;;यदि अत्यन्ताभाव न होवे, एक द्रव्य का अन्यों में;;हो जावे संमिश्रण फिर यह, जीव-अजीव न भेद बने
हे भगवन ! यदि अन्यापोह--इतरेतराभाव का लोप किया जावे, तो सभी वस्तु सर्वात्मक एकरूप हो जावेंगी । यदि अत्यन्ताभाव का लोप किया जावेगा, तब तो अन्यत्र समवाय स्वसमवायी आत्मा का भिन्न समवायी प्रधान आदि में समवाय हो जाने पर सभी का इष्ट तत्त्व सर्वथा कहा ही नहीं जा सकेगा ।

इस कारिका के अर्थ में श्री विद्यानंद महोदय ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य में प्रत्येक के ८१-८१ भेद बड़े ही रोचक ढंग से किये हैं एवं सत्ता का लक्षण भी विशेष वर्णन से सहित है । विशेष जिज्ञासुओं को अष्टसहस्री में ही देखना चाहिए ।