+ सत् असत् निर्दोष कैसे हैं ? -
सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात्
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥15॥
अन्वयार्थ : [स्वरूपादि चतुष्टयात् सर्वं सत् एव विपर्यासात् असत् एव को न इच्छेत्] स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव रूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ 'सत्' रूप ही हैं एवं परद्रव्य, परक्षेत्र परकाल की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ 'असत्' रूप ही हैं इस प्रकार कौन स्वीकार नहीं करेगा ? [न चेत् न व्यवतिष्ठते] यदि कोई नहीं माने, तो किसी भी वस्तु की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है ।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


अपने द्रव्य सुक्षेत्र काल अरु, भाव चतुष्टय से नित ही;;सभी वस्तुएँ अस्तिरूप ही, नास्तिरूप ही हैं वे भी;;परद्रव्यादि चतुष्टय से यह, कौन नहीं स्वीकार करे;;यदि नहिं माने तव मत हे जिन! वस्तु व्यवस्था नहीं बने
स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु सत्-रूप ही हैं, ऐसा कौन स्वीकार नहीं करेगा ? एवं पर-द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु असत्-रूप ही हैं । यदि ऐसा नहीं स्वीकार करें तो किसी के यहाँ भी अपने-अपने इष्ट-तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी ।