+ उभय और अवक्तव्य कथन निर्दोष कैसे हैं ? -
क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तित:
अवक्तव्योत्तरा: शेषास्त्रयो भंगा: स्वहेतुत: ॥16॥
अन्वयार्थ : [क्रमार्पितद्वयात् द्वैतं, सह अशक्तित: अवाच्यं] अस्ति, नास्ति दोनों धर्मों का क्रम से कथन करने से 'अस्ति-नास्ति' रूप तृतीय भेद बनता है एवं पर-चतुष्टय के द्वारा कहे गये अस्ति, नास्ति दोनों धर्मों को एक साथ कह नहीं सकते हैं अत: 'अवक्तव्य' नाम का चौथा भंग होता है । [अवक्तव्योत्तरा: शेषा: त्रयो भंगा स्वहेतुत:] उपर्युक्त आदि के तीन भंगों के उत्तर में अवक्तव्य पद जोड़ देने से बचे हुए तीन भंग अपने-अपने हेतु से कथंचित् रूप से बन जाते हैं ।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


क्रम से स्वपर चतुष्टय से ही, वस्तु उभय धर्मात्मक हैं;;युगपत् द्वय को नहिं कह सकते, अत: 'अवाच्य' वस्तु वह है;;बचे शेष त्रय भंगों में यह, अवक्तव्य उत्तर पद हैं;;सत् असत् उभय पदों के आगे, अवक्तव्य निज हेतुक है
क्रम से दोनों धर्मों की विवक्षा करने से स्यादस्तिनास्ति द्वैतरूप तीसरा भंग बन जाता है एवं एक साथ दोनों ही धर्मों को कहने की शक्ति किसी भी शब्द में नहीं है, अतएव सहावाच्य होने से चौथा अवक्तव्यरूप भंग हो जाता है, इसी प्रकार से प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भंग के उत्तर में अवक्तव्य पद के जोड़ देने से शेष तीन भंग भी अपने-अपने हेतु से सिद्ध हो जाते हैं ॥

प्रारंभ के अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति इन तीनों के साथ अवक्तव्य पद जोड़ देने से आगे पाँचवें, छठे और सातवें भंग बन जाते हैं यथासत् अवक्तव्य स्व-चतुष्टय की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों धर्मों के न कह सकने से सत् अवक्तव्य भंग होता है । पर-चतुष्टय की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से असत् अवक्तव्य भंग होता है तथा क्रम से स्व-परचतुष्टय की अपेक्षा और युगपत् दोनों को न कह सकने से सत् असत् अवक्तव्य भंग होता है ।

उपर्युक्त १४, १५, १६वीं कारिकाओं के अर्थ में अष्टसहस्री ग्रंथ में आचार्यदेव ने सप्तभंगी का बड़ा सुंदर विवेचन किया है । कोई विशेष चतुर अवक्तव्य नाम से एक आठवें भंग को मानने लगे थे, तब आचार्यश्री ने करुणा बुद्धि से उन्हें समझाकर सात ही भंग मानने का विधान किया है । प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी को भी बहुत ही स्पष्ट किया है ।