+ शेष भंग भी नय विवक्षा से बनेंगे -
शेषभंगाश्च नेतव्या यथोक्त नय-योगत:
न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र! तव शासने ॥20॥
अन्वयार्थ : [शेष भंगा: च यथोक्तनययोगत: नेतव्या:] आगे के जो शेष भंग हैं उनको भी यथायोग्य नयों की अपेक्षा से समझ लेना चाहिए [मुनीन्द्र ! तव शासने कश्चित् विरोधो न चास्ति] हे मुनीन्द्र! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं आता है ॥२०॥

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


अस्ति, नास्ति उभयात्मक क्रम से, तीन भंग ये कहे गये;;यथायोग्य नय विधि से आगे, भंग चार हैं शेष कहे;;अवाच्य, अस्ति-अवाच्य, नास्ति-अवाच्य, अस्तिनास्ति- अवाच्य;;हे मुनीन्द्र! तव शासन में, कुछ भी विरोध नहिं दिखे कदापि
यथोक्त नयों की अपेक्षा से शेष भंग भी लगा लेना चाहिए । अतएव हे मुनीन्द्र ! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं है ॥

विशेषार्थ – यहाँ शेष शब्द से तीन भंग के बाद आगे के चार शेष कहे गये हैं । श्रीमद् भट्टाकलंक देव ने तो अष्टशती में दो के बाद तृतीय से आगे तक को भी शेष शब्द से सूचित किया है एवं 'अथवा' कहकर तीन के बाद से चार को भी शेष कहा है । आप्तमीमांसा की वृत्ति को करने वाले श्री वसुनंदी सैद्धांतिकाचार्य ने इस कारिका के विरोध शब्द को उपलक्षण मात्र कहा है और इससे आठ दोषों को ग्रहण किया है । उनके नाम -- विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव ।

यहाँ कहना यह है कि हे भगवन् ! आपके मत में विरोध, वैयधिकरण्य आदि ८ दोष या इनके भेद-प्रभेद से और भी अनेकों दोष नहीं आते हैं । कोई इन दोषों को स्याद्वाद में घटित करता है । यथा
  • विरोध - भाव अभाव एक-दूसरे के विरोधी होने से एक वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते हैं अत: जैनों के यहाँ विरोध दोष आता है ।
  • वैयधिकरण्य-दो धर्मों का आधार भिन्न होना वैयधिकरण है । जैसे अस्ति का अधिकरण भिन्न है और नास्ति का अधिकरण भिन्न है । दोनों का अधिकरण भिन्न होने पर भी एकाधिकरण मानना वैयधिकरण्य दोष कहलाता है ।
  • अनवस्था-जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व नास्तित्व धर्म हैं उसी प्रकार अस्तित्व-नास्तित्व धर्म में भी अन्य और धर्म स्वपर की अपेक्षा अस्तित्व-नास्तित्व रूप कल्पित करते चलिये। आगे-आगे भी ऐसी ही कल्पना होने से अप्रमाणीक अनंत अस्तित्व-नास्तित्व कल्पना का विराम न होने से अनवस्था दोष आ जाता है ।
  • संकर-स्याद्वाद में अस्तित्व-नास्तित्व एक जगह रहते हैं अत: अस्तित्व के आधार में अस्तित्व-नास्तित्व और नास्तित्व के आधार में अस्तित्व-नास्तित्व के रहने से संकर दोष आता है ।
  • व्यतिकर-अस्तित्व-नास्तित्व के एक साथ रहने से अस्तित्व रूप से नास्तित्व भी एवं नास्तित्व रूप से अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। अत: स्याद्वाद में व्यतिकर दोष भी आता है ।
  • संशय-जब वस्तु को भाव-अभाव धर्मों से उभयात्मक माना है तब यह निश्चय नहीं हो सकता है कि यह वस्तु अस्तिरूप है या नास्तिरूप ऐसा संशय बना रहने से संशय दोष आता है ।
  • अप्रतिपत्ति-संशय होने से वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता है अत: स्याद्वाद मत में अप्रतिपत्ति-अज्ञान नामक दोष आता है ।
  • अभाव-यथार्थ ज्ञान के अभाव में वस्तु की व्यवस्था न होने से वस्तु का अभाव ही सिद्ध होता है अत: अभाव दोष आता है ।
इस प्रकार से अन्य जनों ने अर्हंत के शासन में ये विरोध आदि दोष दिखाये हैं किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि स्याद्वाद में एक भी दोष नहीं आता है ।

एक ही वस्तु में अविरोध रूप विरोधी दो धर्मों का रहना बन जाता है । विरोध के तीन भेद हैं बध्यघातक, सहानवस्थान और प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक । सर्प मैं नकुल का बध्यघातक भाव है क्योंकि सर्प को नेवला मार डालता है । दोनों एक साथ नहीं रहते । शीत उष्ण का सहानवस्थान विरोध है क्योंकि ये दोनों एक साथ नहीं रहते हैं । ये तीनों हमारे यहाँ असंभव हैं क्योंकि एक ही वस्तु में अस्ति-धर्म और उसी समय उसमें नास्ति-धर्म रह जाता है । जैसे एक ही राम में पिता, पुत्र ये दोनों विरोधी धर्म विद्यमान हैं । रामचन्द्र जी लवण और अंकुश के पिता हैं और दशरथ के पुत्र हैं ।

ये अस्ति-नास्ति धर्म परस्पर में विरोधी नहीं हैं एवं उनकी आधारभूत वस्तु भिन्न-भिन्न न होकर एक है । अतएव दोनों धर्मों का जीव में एकाधिकरण होने से वैयधिकरण दोष नहीं आता है । हमारे यहाँ एक धर्मी वस्तु में अनंतों धर्म रहते हैं किन्तु एक धर्म में अन्य कोई धर्म नहीं रहता है । अत: अनवस्था भी नहीं है । अस्ति-नास्ति दोनों धर्म अपने-अपने स्वभाव से सहित हैं अस्ति कभी भी नास्ति रूप और नास्ति कभी अस्ति-रूप से मिश्रित नहीं होता है । अत: संकर दोष भी नहीं आता है । अस्तित्व-रूप से नास्तित्व या नास्तित्व रूप से अस्तित्व नहीं बन सकते अत: व्यतिकर दोष नहीं आता है ।

विरुद्ध अनेक धर्मों के अवलंबन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं किन्तु यहाँ वस्तु स्व की अपेक्षाकृत अस्ति है और पर की अपेक्षा से नास्ति ही है अत: संशय का प्रश्न ही नहीं है । संशय के न होने से वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो जाता है अत: अप्रतिपत्ति दोष नहीं आता है ।

वस्तु की व्यवस्था सुघटित सिद्ध होने से अभाव नाम का दोष भी नहीं है । अत: यह निष्कर्ष निकला कि भगवान् जिनेन्द्र के शासन में विरोध आदि कोई भी दोष नहीं आते हैं ।