+ वस्तु एक रूप नहीं है -
एवं विधि निषेधाभ्या-मनवस्थितमर्थकृत्
नेति चेन्न यथा कार्यं, बहिरन्तरुपाधिभि: ॥21॥
अन्वयार्थ : [एवं विधिनिषेधाभ्यां अनवस्थितं अर्थकृत] इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा जो वस्तु अवस्थित रूप से एक रूप नहीं है वही वस्तु अर्थ-क्रियाकारी है [न इति चेत् न यथा बहिरंत: उपाधिभि: कार्यं] यदि ऐसा नहीं माना जाये, तो जैसे बाह्य और अंतरंग इन दोनों कारणों से कार्य माना गया है, वह उस प्रकार से नहीं बन सकेगा ।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


ऐसे विधि निषेध द्वारा जो, एकरूप से नहीं कही;;वह अनवस्थित वस्तु जगत में, अर्थ क्रियाकारी नित ही;;यदि ऐसा नहिं मानों तो, बाह्याभ्यंतर द्वय कारण से;;कार्य कहा है, वह नहिं होगा, अर्थक्रिया नहिं होने से
इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा अनवस्थित जीवादि वस्तु अर्थ-क्रियाकारी हैं । यदि ऐसा नहीं मानों, तो जिस प्रकार से बहिरंग-अंतरंग उपाधि -- सहकारी और उपादान कारणों से अनवस्थित--रहित कार्य अर्थ-क्रियाकारी नहीं है तथैव सभी जीवादिवस्तु विधि-निषेध से रहित अर्थ-क्रियाकृत् नहीं हो सकेंगी ।

भावार्थ – वस्तु में अस्ति या नास्ति दो में से कोई एक ही धर्म रहे तो वस्तु अवस्थित हो जावेगी, किन्तु दोनों धर्मों के रहने से वह वस्तु अनास्थित कहलती है । घटकार्य अंतरंग कारण मिट्टी और बहिरंग कारण चक्र, कुंभकार आदि से होता है । इसलिए अनवस्थित है । यदि अंतरंग या बहिरंग में से किसी भी एक कारण से ही उत्पत्ति मान लो, तो घट के कारण अवस्थित हो जाने से घट बन ही नहीं सकेगा ।