+ प्रत्येक धर्म का अर्थ पृथक् है -
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मण:
अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य, शेषान्तानां तदङ्गता ॥22॥
अन्वयार्थ : [अनंतधर्मण: धर्मिणो धर्मे धर्मे अन्य एव अर्थ:] अनंत धर्म वाली वस्तु के एक-एक धर्म में भिन्न ही अर्थ पाया जाता है [अन्यतमान्तस्य अंगित्वे शेषान्तानां तदङ्गता] उन बहुत धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष धर्मों की गौणता हो जाती है ।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


अनंतधर्मा वस्तू के, प्रत्येक धर्म के पृथक्-पृथक्;;अर्थ कहे हैं अत: वस्तु है, अनंत धर्मात्मक शाश्वत;;अनंत धर्मों में जब इक ही, धर्म प्रधान कहा जाता;;तब वे शेष धर्म हो जाते, गौण यही जिन ने भाषा
अनंतधर्मों से विशिष्ट जीवादि एक धर्मी के प्रत्येक धर्म में भी भिन्न-भिन्न प्रयोजन आदि रूप अर्थ विद्यमान हैं एवं धर्मों के द्वारा ही धर्मी का कथन होता है तथैव उन धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष सभी धर्म गौण हो जाते हैं ।

भावार्थ – जब जीव का अस्ति धर्म प्रधान किया जाता है, तब नास्ति धर्म गौण हो जाता है और जब नास्ति धर्म प्रधान किया जाता है, तब अस्ति धर्म गौण हो जाता है ।