+ अद्वैत में द्वैत आ जाता है -
हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्-द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययो:
हेतुना चेद्विना सिद्धि-द्र्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ॥26॥
अन्वयार्थ : [हेतो: अद्वैतसिद्धि: चेत् हेतु साध्ययो: द्वैतं स्यात्] यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि मानों तब तो हेतु और साध्य के मानने पर द्वैत हो जाता है [चेत् हेतुना बिना सिद्धि: वाङ्मात्रत: द्वैतं किं न] यदि हेतु के बिना ही अद्वैत की सिद्धि मानते हो, तब तो वचन मात्र से ही द्वैत की सिद्धि भी क्यों न हो जावे ?

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


यदि अद्वैतसिद्धि हेतू से, तब तो साध्य और साधक;;द्वैत हुए क्योंकि ब्रह्मा है, साध्य हेतु उसका ज्ञापक;;यदी हेतु के बिना सिद्ध है, यह अद्वैत वचन से ही;;तब तो द्वैतसिद्धि भी क्यों नहिं, होवे वचनमात्र से ही
यदि हेतु से अद्वैत की सिद्धि होती है, तब तो हेतु और साध्य ये दो हो गये अत: द्वैत ही सिद्ध हुआ न कि अद्वैत। और यदि हेतु के बिना वचन मात्र से अद्वैत की सिद्धि होती है तब तो वाङ्मात्र से ही द्वैत की सिद्धि क्यों न हो जावे ।

भावार्थ – जब हेतु से अद्वैत को सिद्ध किया जावेगा, तब अद्वैत साध्य की कोटि में आ गया और हेतु तथा साध्य से द्वैत ही बन गया । अपने हाथ से ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली । सिद्ध करने चले थे अद्वैत को सिद्ध हो गया द्वैत । यदि हेतु के बिना ही अद्वैत की सिद्धि कहो, तब तो अपने वचनमात्र से ही तो अद्वैत को मानोगे, फिर भला वचन मात्र से द्वैत भी क्यों न हो जावे ?