+ बौद्ध की पृथक्त्व मान्यता में दोष -
संतान: समुदायश्च साधम्र्यञ्च निरंकुश:।
प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्व-निन्हवे ॥29॥
अन्वयार्थ : [एकत्वनिन्हवे संतान: समुदाय: च साधम्र्यं च प्रेत्यभावश्च निरंकुश:] यदि एकत्व का सर्वथा लोप किया जावे, तो संतान, समुदाय, सदृशता और परलोक गमन जो कि अंकुश रहित-अबाधित सिद्ध हैं [तत्सर्वं न स्यात्] वे सभी घटित नहीं हो सकेंगे ॥

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


यदि एकत्व नहीं मानो, संतानरूप अन्वय कैसा?;;नहिं होवे समुदाय सदृशता, नहिं परलोक गमन होगा;;बाल-वृद्ध पर्याय अनेकों, नहीं घटेंगी जो निर्बाध;;क्षणिकैकांत पक्ष में क्षण-क्षण, में होता है सब कुछ नाश
एकत्व का सर्वथा निह्नव करने पर निरंकुश-सकल बाधक रहित अस्खलितरूप से प्रमाण प्रसिद्ध संतान, समुदाय, साधम्र्य, परलोक तथा दिये हुए को लेना आदि ये सब व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकते हैं।