+ सत् में ही विवक्षा और अविवक्षा होती है -
विवक्षा चाविवक्षा च, विशेष्येऽनन्तधर्मिणि
सतो विशेषणस्यात्र नाऽसतस्तैस्तदर्थिभि: ॥35॥
अन्वयार्थ : [अत्र अनंतधर्मिणि विशेष्ये सत: विशेषणस्य विवक्षा च अविवक्षा च] इस अनंतधर्मात्मक विशेष्य-जीवादि पदार्थों में सत् रूप विशेषण की ही विवक्षा और अविवक्षा [असत: न] असत् रूप विशेषण की नहीं की जाती है [तै: तदर्थिभि:] और ये विवक्षा-अविवक्षा उन-उन विशेषण के इच्छुक जनों द्वारा ही की जाती है।।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


अनंतधर्मा वस्तू में ही, घटे विवक्षा अविवक्षा;;ये दोनों सतरूप विशेषण, को कहतीं न असत् इच्छा;;अर्थी करें विवक्षा तथा अनर्थी अविवक्षा करते;;सत् वस्तू में ही दोनों हैं, असत् वस्तु में नहिं घटते
अनंतधर्मात्मक जीवादि पदार्थरूप विशेष्य में एकत्वानेकत्वरूप विशेषणों के इच्छुक विद्वानों द्वारा सत् स्वरूप विशेषण की ही विवेक्षा और अविवक्षा की जाती है, असत् रूप विशेषण की नहीं की जाती है।

भावार्थ-यदि कोई वस्तु के एकत्व को कहने की इच्छा करते हैं तो वे उस एकत्व की विवक्षा के इच्छुक कहलाते हैं, यदि एकत्व के कहने की इच्छा नहीं करते हैं, तब वे एकत्व की अविवक्षा के इच्छुक कहलाते हैं। वस्तु के एक धर्म को कहने की इच्छा में उसी वस्तु का अन्य विरोधी गुण गौण हो जाता है। इसलिए उस गौण गुण की अविवक्षा हो जाती है। ये विवक्षा और अविवक्षा अस्तिरूप पदार्थों में ही होती है असत् रूप में नहीं क्योंकि असत्भूत पदार्थ आकाश कुसुमवत् है ही नहीं, तब उसमें विवक्षा-अविवक्षा केसे बन सकेगी ?