+ सर्वथा सत् रूप कार्य उत्पन्न केसे होगा ? -
यदि सत्सर्वथा कार्यं पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति
परिणाम-प्रक्ऌप्तिश्च, नित्यत्वैकान्त-बाधिनी ॥39॥
अन्वयार्थ : [यदि कार्यं सर्वथा सत् पुंवत् उत्पत्तुं न अर्हति] यदि कार्य को सर्वथा विद्यमान रूप ही माना जाये, तो पुरुष के समान उत्पन नहीं हो सकता है [परिणामप्रक्ऌप्ति: च नित्यत्वैकांतबाधिनी] क्योंकि जो वस्तु में परिणमनपरिवर्तन की कल्पना है वह सर्वथा नित्यत्व एकांत को बाधित करने वाली है।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


विद्यमान यदि कार्य हमेशा, कारण क्यों माना जावे;; उत्पत्ती के योग्य न आत्मा, वैसे ही घट मत होवे;;मिट्टी में घट सदा उपस्थित, चक्र दण्ड फिर क्या करते ?;;यदि परिणमन व्यवस्था है फिर, नित्यपक्ष बाधित उससे
यदि कार्य को सर्वथा सत् रूप माना जाये, तब तो पुरुष के समान वह उत्पन्न ही नहीं हो सकता है और यदि परिणमन की कल्पना करें, तब तो नित्यत्वैकांत में बाधा आ जाती है।

भावार्थ-सांख्य कार्य को सर्वथा विद्यमान रूप ही मानता है उसका कहनाहै कि मिट्टी में घड़ा, बीज में अंकुरे सदा ही विद्यमान हैं चक्र, कुंभकार एवं किसान मिट्टी, जल आदि कारण सामग्री केवल कार्य को प्रकट कर देती हैंं। वे कारण कलाप कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।

इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यह कल्पना ठीक नहीं है। हेतु के दो भेद हैं-कारक हेतु और ज्ञापक हेतु। मिट्टी से घट बनाने में कुंभकार, चक्र, दण्डआदि कारक हेतु हैं और कमरे में घट-पट आदि वस्तुएँ रखी हैं अंधेरा होने सेदिखती नहीं है। तब दीपक आदि से उन्हें प्रकट कर देना, देख लेना होता है अत:दीपक आदि ज्ञापक हेतु हैं। संसार के बहुत से कार्य कारक हेतु से ही बनते हैं। यदि ऐसा न माने तो पदार्थों में जो परिवर्तन देखा जाता है, वह केसे बनेगा क्योंकि परिवर्तन होने से सर्वथा नित्य एकांत की व्यवस्था नहीं है।