+ नय और हेतु का लक्षण -
सधर्मणैव साध्यस्य, साधम्र्यादविरोधत:
स्याद्वादप्रविभक्ताऽर्थ-विशेषव्यञ्जको नय: ॥106॥
अन्वयार्थ : [सधर्मणा एव साधम्र्यात् अविरोधत:] सपक्ष के साथ ही अपने साध्य के साधम्र्य से जो बिना किसी विरोध से [स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेष्यव्यञ्जक: नय:] श्रुत प्रमाणरूप स्याद्वाद के द्वारा जाने गये अर्थ विशेष का व्यंजक होता है, वह नय कहलाता है।

  ज्ञानमती 

ज्ञानमती :


जो सपक्ष के साथ साध्य के, साधम्र्यों से अविरोधी;;साध्य अर्थ का ज्ञान कराने, वाला ‘नय’ है प्रगट सही;;स्याद्वाद से प्रगट किये ही, अर्थ विशेषों का व्यंजक;;सुप्रमाण से ज्ञात वस्तु के, अंश-अंश को करे प्रगट
सपक्ष (दृष्टान्त) के साथ ही साध्य के साधम्र्य से अविरोध रूप से जो स्याद्वादश्रुत प्रमाण के द्वारा विषयीकृत पदार्थ विशेष का व्यंजक होता है वह नय कहलाता है। यह नय का लक्षण है इसे ही हेतु कहते हैं।

भावार्थ-नय हेतुवाद है और स्याद्वादरूप आगम अहेतुवाद है। इन दोनों से संस्कृत तत्त्वज्ञान ही युक्ति एवं आगम से अविरुद्ध होता हुआ सुनिश्चित रूप से बाधक प्रमाण होने से रहित है। यहाँ नय का लक्षण प्रगट किया है और उसे हेतु स्वरूप बतलाया है। क्योंकि जो हेतु का स्वरूप है वही नय का स्वरूप है जो आपने साध्य के साथ अविनाभाव संबंध रखता है, वही हेतु है इससे यह स्पष्ट है कि विलक्षण और पंचरूप हेतु वास्तविक नहीं है केवल एक अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का निर्दोष वास्तविक लक्षण है।