
ज्ञानमती :
अन्य वचन के अर्थों के, प्रतिबोध हेतु निरअंकुश ही;;निज सामान्य अर्थ को कहना, ऐसा वचन स्वभाव सही;;किन्तू केवल निषेध मुख से, वचन स्वार्थ प्रतिपादक हैं;;ऐसे वच से कथित वस्तु ही, गगनकमलवत् ‘असत्’ रहे
वचन का स्वभाव अन्य वचन के अर्थ का प्रतिषेध करने से निरंकुश है और वह पदार्थ सामान्य निरपेक्ष अपने अर्थ सामान्य को कहता है। किन्तु ‘केवल निषेध मुख से ही वचन अपने अर्थ को कहते हैं।’ ऐसा बौद्धों का कथन आकाश पुष्प के समान असत् है।भावार्थ-बौद्धों ने वचनों को अन्यापोह अर्थ का कहने वाला माना है अर्थात् किसी ने गौ: शब्द कहा उस शब्द का यह अर्थ है कि ‘‘अगो: व्यावृत्ति: गौ:’’ गो से भिन्न अन्य अश्व नहीं है गधा नहीं है इत्यादि से अन्य अर्थों का निषेध करके ही शब्द अर्थ को कहते हैं। गौ शब्द से गाय अर्थ को नहीं कहते हैं। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि केवल अन्य अर्थ के निषेध को कहने वाले वचन असत्य हैं क्योंकि प्रत्येक शब्द प्रथम अपने अर्थ को अवश्य कहते हैं। गौ शब्द के सुनते ही मनुष्य को गाय का बोध हो जाता है। |