अभयचन्द्रसूरि :
शिष्य के भेद प्रतिपादन के योग्य शिष्य चार प्रकार के होते हैं। व्युत्पन्न, अव्युत्पन्न, संदिग्ध और विपर्यस्त। उनमें से आदि के एवं अंत के-व्युत्पन्न और विपर्यस्त ऐसे दो प्रकार के शिष्य तो समझाने योग्य नहीं हैं क्योंकि उनमें व्युत्पन्न होने की-समझने की इच्छा का अभाव है। अव्युत्पन्न-अज्ञानी में तो लोभ, भय आदि से समझने की इच्छा उत्पन्न करके समझाना चाहिए अर्थात् स्वर्ग, मोक्ष आदि का लोभ और संसार आदि से भय दिखाकर उस अज्ञानी में समझने की इच्छा उत्पन्न करके समझाना योग्य है और जो संदिग्ध हैं, उन्हें अपने संदिग्ध अर्थ के विषय में प्रश्न करने पर समझाना योग्य है। (शास्त्र की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती है)। यहाँ पर अव्युत्पन्न और संदिग्ध इन दो प्रकार के शिष्यों के प्रति प्रमाण के उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा का प्रतिपादन करते हैं क्योंकि शास्त्र की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती है। उनमें से अर्थ के नाम मात्र का कथन करना उद्देश है। जिसका उद्देश किया गया है उसके असाधारण स्वरूप का निरूपण करना लक्षण है और प्रमाण के बल से उस लक्षण के विसंवाद पक्ष का निराकरण करना परीक्षा है। उनमें प्रमिति-प्रमाण को कहना है इतना मात्र कथन उद्देश है क्योंकि सभी शून्यवादी भी अपने इष्ट के साधन और अनिष्ट के दूषण की अन्यथानुपपत्ति से प्रमाण को स्वीकार करते हैं, यह बात प्रसिद्ध है और वह प्रमाण ज्ञान ही होता है यह लक्षण निर्देश है क्योंकि यह लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष से रहित है। प्रमाणत्व की अन्यथानुपपत्ति अन्य प्रकार से प्रमाणता नहीं हो सकती है। इस प्रकार हेतुवाद को परीक्षा कहते हैं क्योंकि उस परीक्षा से ही उस लक्षण के विसंवाद का निराकरण होता है। उसी को कहते है। प्रमाण का लक्षण ‘प्रकर्षेण’-प्रकृष्ट रूप से-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का व्यवच्छेद-निराकरण करके स्व और पर स्वरूप को जो ‘मिमीते जानाति’ जानता है, या ‘मीयतेऽनेन’ जिसके द्वारा जाना जाता है अथवा ‘मितिमात्रं’ जानना मात्र प्रमाण है। प्रमाण शब्द की ऐसी व्युत्पत्ति होती है। निश्चय और व्यवहारनय के द्वारा द्रव्य और पर्याय में अभेद और भेद की विवक्षा से उस प्रकार की संभव है अर्थात् निश्चयनय से द्रव्य और पर्याय में अभेद होने से ‘प्रकर्षेण मिमीते इति प्रमाणं’ जो प्रकर्ष रीति से जानता है वह जानने वाला आत्मा ही प्रमाण है क्योंकि ज्ञान और आत्मा में कोई भेद नहीं है और व्यवहारनय से द्रव्य-पर्याय में भेद होने से ‘मीयतेऽनेनेति प्रमाणं’ जिसके द्वारा जाना जाय वह प्रमाण है, यहाँ आत्मा कर्तारूप और ज्ञान करण रूप होने से आत्मा से ज्ञान में कथंचित् भेद विवक्षित है। अज्ञान को प्रमाण मान लेने से उस अज्ञान से संशय आदि मिथ्या ज्ञानों का निराकरण करना शक्य नहीं है क्योंकि वे अज्ञान के अविरोधी हैं। जो जिसका विरोधी होता है वही उसको अलग कर सकता है ,अन्य नहीं कर सकता है। जैसे कि प्रकाश अंधकार का विरोधी होने से उसे दूर कर देता है। अज्ञानस्वरूप सन्निकर्षादि संशय आदि मिथ्याज्ञान के निराकरण करने वाले नहीं हैं इसलिए वे सन्निकर्ष आदि प्रमाणता को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? सन्निकर्षवाद का खंडन-रूप के समान रस में भी चक्षु इंद्रिय का संयुक्त समवाय लक्षण सन्निकर्ष विद्यमान है। फिर भी वह सन्निकर्ष-संबंध उसके ज्ञान में हेतु नहीं है अर्थात् जैसे चक्षु रूप को देख रही है वैसे ही रस को भी देख रही है, रस के साथ भी उसका सन्निकर्ष लक्षण संबंध मौजूद है फिर भी वह चक्षु रस का ज्ञान नहीं कर पाती है। रस का ज्ञान रसना इंद्रिय से ही तो होता है। चक्षु इन्द्रिय का भी रूप के साथ सन्निकर्ष-स्पर्श करके जानने रूप संबंध नहीं है, क्योंकि वह चक्षु इंद्रिय अप्राप्त-बिना स्पर्श किये ही पदार्थों का प्रकाशन करती है। देखिये! पर्वत आदि को देखते समय चक्षु पर्वत आदि अर्थरूप प्रदेश के पास नहीं जाती है और न वे पर्वत आदि चक्षु इंद्रिय के स्थान तक आते हैं जिससे कि चक्षु का पदार्थ के साथ संयोग इन दोनों का अपने-अपने योग्य प्रदेश में अवस्थित रहना ही प्रतीति में आ रहा है। वैशेषिक-उस चक्षु के तेज का संयोग है ही है। जैन-ऐसा आप नहीं कर सकते। तेज का संयोग होने से तो अंधकार का ही विच्छेद होगा न कि संशयादि मिथ्या ज्ञानों का। क्योंकि तेज का संशय आदि से कोई विरोध नहीं है, ऐसा मैंने पहले ही कह दिया है। इसलिए सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है, अचेतन होने से घट आदि के समान। भावार्थ-वैशेषिक कहता है कि इंद्रियों का पदार्थ को छूकर जानना सन्निकर्ष है और वही प्रमाण है। तब आचार्य ने कहा जैसे चक्षु का रूप से संबंध है वैसे ही रस से भी है पुन: रूप को तो जान लें और रस को न जाने यह क्या बात है। दूसरी बात यह है कि चक्षु इंद्रिय तो अप्राप्यकारी है, पर्वत आदि प्रदेश बहुत दूर हैं। उन पर अग्नि जल रही है चक्षु ने देख लिया है किन्तु न पर्वतादि चक्षु से स्पर्शित हुए हैं और न चक्षु ही उनके पास गई है। ये लोग चक्षु में एक तेजोद्रव्य मानते हैं वह भी कल्पना निराधार है तथा यदि चक्षु में तेज मान भी लें तो भी वह तेज अंधकार को दूर करेगा न कि संशयादि को। इसलिए सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है। नैयायिककारक साकल्य को प्रमाण मानते हैं उसका निराकरण कारकसाकल्य भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह भी अचेतन है सन्निकर्षादि के समान। यदि कारक साकल्य को प्रमाण मानेंगे तो कर्ता, कर्म आदि को पृथक् करने का अभाव होने से वह प्रमाण अवलंबनरहित और निष्कल हो जावेगा। नैयायिक-कारक और उनके साकल्य में अत्यंत भेद होने से यह दोष नहीं आता है। जैन-यदि आप अत्यंत भेद मान लेते हैं तब तो प्रमाण (कारक) और उसकी सकलता में अभेद कैसे होगा ? क्योंकि प्रमाण को करणरूप से मानने से वह तदात्मक नहीं हो सकेगा। नैयायिक - करणरहित ही प्रमाण है। जैन - ऐसा आप नहीं कह सकते, अन्यथा क्रिया और कारक से भिन्न प्रमाण की सिद्धि हो जाने पर तो वह प्रमाण अर्थक्रिया से शून्य हो जावेगा, आकाश पुष्प के समान। नैयायिक - कारकों का समुदाय ही प्रमाण है। जैन - ऐसा पक्ष स्वीकार करने पर भी उस कारक समुदायरूप प्रमाण के जानने में कारक साकल्य लक्षण एक और प्रमाण मानना पड़ेगा, पुन: उसके भी जानने के लिए एक और कारक साकल्य नाम वाला प्रमाण स्वीकार करना पड़ेगा। इस प्रकार से तो अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा इसलिए कारक साकल्य भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह भी अज्ञानरूप ही है। भावार्थ - एक जरन्नैयायिक कहलाते हैं वे लोग कारक-कर्ता कर्म करण आदि कारकों की सफलतापूर्णता को प्रमाण कहते हैं। तब आचार्य ने कहा है कि वास्तव में सभी कारक मिलकर भी अचेतन ही रहते हैं पुन: वे प्रमाण कैसे हो सकेंगे। हाँ, ये कारक ज्ञान को उत्पन्न करने में सहकारी कारण हो जाते हैं और इसीलिए इन्हें उपचार से प्रमाण माना जा सकता है किन्तु मुख्यरूप से ज्ञान ही प्रमाण है। सांख्य द्वारा मान्य प्रमाण का खंडन सांख्य -‘इन्द्रियवृत्ति: प्रमाणं’-इंद्रियों का व्यापार ही प्रमाण है। जैन] - प्रमाण का यह लक्षण भी असंभव है, क्योंकि अचेतन रूप होने से यह भी विशेष नहीं है सन्निकर्ष के समान। बात यह है कि इंद्रियों का व्यापार का आप क्या अर्थ करते हैं-उन्मीलन आदि व्यापार या संशयादि का निराकरण। प्रथम पक्ष में प्रमाणता नहीं है क्योंकि व्यभिचार दोष आता है, कहीं संशय आदि में भी इंद्रियों का उन्मीलन आदि व्यापार देखा जाता है। यदि संशयादि का निराकरण होना रूप दूसरा पक्ष लेते हो तब तो ‘ज्ञान ही प्रमाण है’ यह बात सिद्ध हो जाती है क्योंकि अज्ञान से संशयादि का निराकरण हो नहीं सकता है इसलिए इन्द्रियवृत्ति प्रमाण नहीं है। हाँ, इन्द्रियाँ ज्ञान की उत्पत्ति में कारण हैं इसलिए उपचार से प्रमाण हैं यह बात सर्वत्र मान्य ही है। प्रभाकर द्वारा मान्य प्रमाण का खंडन प्रभाकर - ज्ञाता का व्यापार ही प्रमाण है। जैन - प्रश्न यह होता है कि वह ज्ञाता का व्यापार ज्ञानात्मक है या अज्ञानात्मक। यदि वह ज्ञानात्मक है तब तो बात ठीक ही है। पुन: वही ज्ञान ही प्रमाण सिद्ध हो जाता है। यदि आप उसे अज्ञानस्वरूप कहेंगे तब तो वहाँ संशयादि को दूर करने वाले किसी भिन्न प्रमाण का अनुसरण करना ही पड़ेगा और यदि वह अज्ञानस्वरूप है तो पुन: उसके लिए एक प्रमाण ढूंढ़ना पड़ेगा, ऐसे अनवस्था आ जावेगी। अत: यह प्रमाण का लक्षण भी ठीक नहीं है। शंका - अज्ञानरूप भी सन्निकर्ष आदि संशय आदि को दूर करने में कारण हो जावें, क्या दोष है ? समाधान - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि संशयादि अज्ञान विशेष होने से ज्ञान सामान्य से व्याप्त हैं और व्यापक के द्वारा व्याप्य का निराकरण नहीं किया जा सकता है अन्यथा व्याप्यव्यापक भाव में विरोध हो जावेगा। शंका - संशयादि ज्ञान विशेषरूप होने से ज्ञान सामान्य के साथ व्याप्त हैं तो पुन: ज्ञान के साथ उनका विरोध कैसे है ? समाधान - ऐसा नहीं है। यहाँ सम्यग्ज्ञान ही ज्ञानरूप से विवक्षित है और संशयादि मिथ्याज्ञानरूप हैं, इसलिए इनका सम्यग्ज्ञान के साथ विरोध सिद्ध है। इसलिए यह ठीक नहीं है कि ‘ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि अज्ञान की निवृत्ति अन्यथा-अन्य प्रकार से नहीं सकती है। बौद्ध द्वारा मान्य प्रमाण का निरसन सौगत - ज्ञान प्रमाण होवे, ठीक है किन्तु वह विज्ञानाकार गोचर में ही प्रमाण है। जैन - वह ज्ञान निर्विकल्प ही है क्योंकि विकल्प अवस्तु को विषय ही करता है। जैन - यहाँ विज्ञान का ऐसा अर्थ करना चाहिए। वि-विशेष जाति आदि आकार का ज्ञान निश्चय है जिसके वह विज्ञान है किन्तु निर्विकल्पक दर्शन विज्ञान नहीं है क्योंकि उस दर्शन का व्यवहार में उपयोग नहीं होता है। छोड़ना, ग्रहण करना आदि रूप जो व्यवहारी लोगों का फल है वह निर्विकल्पदर्शन से नहीं बन सकता है अन्यथा निश्चय को विफल होने का प्रसंग आ जायेगा। ‘सभी विभ्रम ही है’ इस प्रकार के विभ्रमैकांत पक्ष में भी संव्यवहार विशेष नहीं बन सकता है। संशय आदि का निराकरण करने से ही ज्ञान संव्यवहार में हेतु है किन्तु भ्रांति से नहीं है, जिससे कि सभी ज्ञान भ्रांत हो सकें अर्थात् सभी ज्ञान भ्रांत नहीं हैं। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध - निश्चय को कराने वाला भी ज्ञान बाह्य पदार्थों का अवलंबन लेने वाला नहीं है, क्योंकि बाह्य पदार्थों का ही अभाव है। यौगादि - ज्ञान पदार्थों का ही निश्चय कराने वाला है किन्तु वह अपने स्वरूप को नहीं जानता है क्योंकि अपने में क्रिया का विरोध है। भावार्थ - विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध बाह्य पदार्थों को नहीं मानते हैं केवल ज्ञान मात्र को ही स्वीकार करते हैं और यौग आदि कहते हैं कि ज्ञान बाह्य पदार्थों को ही जानने वाला वह स्वयं को नहीं जानता है। आगे आचार्य इन दोनों के मत का निराकरण करने के लिए निरुक्ति अर्थपूर्वक विज्ञान शब्द की व्याख्या करते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी का खंडन जैन - वि-विविध स्व और अपूर्व अर्थ को विषय करने वाला, ज्ञान अवबोध है जिसका वह ‘विज्ञान’ है। इस प्रकार से व्याख्या की गई है। बाह्य अर्थ से शून्य ज्ञान प्रमाण नहीं है कि जिससे बाह्य अर्थ शून्यता उस ज्ञान के सिद्ध हो सके, क्योंकि उस बाह्य अर्थ की शून्यता को सिद्ध करने वाला अनुमान बाह्य अर्थ के अवलंबनपूर्वक ही होता है अन्यथा साध्य और साधन दोनों समान हो जावेंगे। दूसरी बात यह है कि आप बौद्ध ज्ञान के अस्तित्व को अंतर्मुख अनुभव के बल से स्वीकार करते हुए बहिर्मुख अनुभव के बल से ज्ञेय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं। यह तो कोई एक महान आश्चर्य है। एक को समीचीन और दूसरे को मिथ्या कहना भी स्वच्छंद मान्यता ही है किन्तु विचारशीलता नहीं है, क्योंकि दोनों जगह कोई अंतर नहीं है। इसलिए ज्ञान बाह्य अर्थ से शून्य नहीं है। प्रमाणान्तर से निश्चित भी संशय आदि से सहित अपूर्वार्थ है। ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उसी में ही प्रमाण की सफलता है। यौग का खंडन ज्ञान अपने स्वरूप को नहीं जानने वाला अस्वसंवेदी है। ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि ज्ञान प्रकाशरूप है। वह ज्ञान स्व और पर को विषय करने वाला-जानने वाला है यह बात प्रतीति से सिद्ध है। इस ‘नील’ आदि को ‘मैं’ जानता हूँ। इस प्रकार से ‘मैं’ शब्द से अंतरंग का और ‘नीलादि’ शब्द से बाह्य पदार्थों का अनुभव सिद्ध है। अन्यथा-यदि नहीं मानोगे तो बाह्य पदार्थों के अनुभव का भी अभाव हो जायेगा। यौग - स्वात्मा में क्रिया का विरोध है अर्थात् अपने आप में क्रिया न हो सकने से ज्ञान अपने आपको कैसे जानेगा ? जैन - यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि विरोध दो में से किसी एक के अभाव से सिद्ध होता है अर्थात् शीत और उष्ण इन दोनों का विरोध है अत: शीत के अभाव में रहता हुआ उष्ण शीत का विरोध करता है यह बात सिद्ध है किन्तु ज्ञान में तो ऐसी बात है नहीं कि वह अपने में रहते हुए अपने आपका ही विरोध करे। इसलिए ज्ञान की जानने रूप क्रिया का स्वयं ज्ञान में विरोध नहीं है। ज्ञान में स्वरूप और जानना ये दोनों बातें उपलब्ध हो रही हैं। देखो! जिस प्रकार से प्रदीप और प्रकाशन का एक जगह अविरोध सभी लोगों को मान्य है, उसी प्रकार से स्वरूप और जानना इन दोनों का भी अविरोध स्वीकार करना ही चाहिए, क्योंकि न्याय से यह बात सिद्ध है अन्यथा पक्षपात का प्रसंग आ जाता है इसलिए ठीक ही कहा है कि अपना और अपूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान ही विज्ञान है। ( यहाँ तक आचार्यों ने प्रमाण के निर्दोष लक्षण को सिद्ध किया है। अब आगे प्रमाण की संख्या के विसंवाद को दूर करते हैं) - वह प्रमाण एक प्रत्यक्ष ही है, इस प्रकार चार्वाक विसंवाद करते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं’ इस प्रकार सौगत और वैशेषिक कहते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाण को मानते हैं। नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार मानते हैं। प्रभाकर प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति ऐसे पाँच मानते हैं। भाट्ट प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव ऐसे छह मानते हैं। इन सभी के विसंवाद को दूर करने के लिए आचार्य कहते हैं कि ‘प्रमाणे इति संग्रह:’- सकल प्रमाण के भेद-प्रभेदों की संख्या को संग्रह करने वाले प्रमाण के दो प्रकार ही हैं किन्तु उपर्युक्त माने गये एक, दो, तीन आदि नहीं हैं क्योंकि इन दो प्रमाणों में ही अन्य सभी भेद गर्भित हो जाते हैं। संक्षेप से अथवा समस्त रूप से ग्रहण करना ‘संग्रह’ शब्द का अर्थ है, यहाँ ऐसा समझना। शंका - ‘प्रमाण है’ इस एक संख्या से ही बस हो उसी एक में ही ये संख्याये गर्भित हो जायेंगी, पुन: प्रमाण को दो मानने से क्या प्रयोजन है ? समाधान - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि भेदों की गणना ही संख्या कहलाती है और एक तो अभेदरूप है। हाँ, द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से वह प्रमाण एक ही है किन्तु पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से तो प्रमाण के सभी भेदों को दो प्रमाण में ही संग्रहीत किया गया है अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से सामान्यतया प्रमाण एक है और पर्यायार्थिकनय से प्रमाण के दो भेद हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष। इन दो में ही सारे प्रमाण के भेद-प्रभेद गर्भित हो जाते हैं। प्रमाण के दो भेद होवें ठीक ही है किन्तु प्रत्यक्ष और अनुमान के भेद से दो भेद होते हैं। इस प्रकार की सौगत की आशंका को दूर करते हुए प्रत्यक्ष, परोक्ष के भेद से दो भेद हैं, ऐसा मन में करके श्री भट्टाकलंक देव उनमें से प्रथम को पहले कहते हैं- प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण ‘प्रत्यक्षं विशदं’ जो विशद-स्पष्ट प्रतिभास वाला ज्ञान है वह प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। ‘अक्ष्णेति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष-आत्मा’ अक्ष धातु का अर्थ है व्याप्त होना-जानना, जो व्याप्त होता है जानता है वह अक्ष-आत्मा है। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम जिसको है अथवा ज्ञानावरण कर्म का क्षय जिसके हो गया है। ऐसी उस आत्मा के प्रति जो नियत-निश्चित है-उस आत्मा से उत्पन्न होता है और पर की अपेक्षा नहीं रखता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है अर्थात् आत्मा में आवरण कर्म के क्षयोपशम से या क्षय से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है क्योंकि अविशदस्वरूप-अस्पष्ट प्रतिभास वाला प्रमाण प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जावेगा। प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद का कथन वह प्रत्यक्ष प्रमाण मुख्य और संव्यवहार के निमित्त से दो प्रकार का है। उसमें मुख्य प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। ये ज्ञान अशेष रूप से विशद-स्पष्ट प्रतिभासी हैं और इन्द्रिय आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं। अपने-अपने आवरण विशेष के पृथक् होने से उत्पन्न होते हैं इसलिए ये मुख्य रूप से ‘प्रत्यक्ष’ इस नाम को प्राप्त करने वाले होते हैं। ‘प्रत्यक्षमन्यत्’ इस सिद्धान्त के अनुरोध से इनकी प्रत्यक्षता अनुपचरित-वास्तविक है, उपचरित नहीं है। जो इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला मतिज्ञान है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है क्योंकि वह एकदेश विशद-स्पष्ट-निर्मल है। समीचीन प्रवृत्तिरूप व्यवहार संव्यवहार कहलाता है। उसको आश्रय लेकर प्रवृत्ति होने से इस मतिज्ञान में प्रत्यक्षता मानी गई है। यह प्रत्यक्षता उपचार से ही है अर्थात् यह मतिज्ञान उपचार से ही प्रत्यक्ष है।‘आद्ये परोक्षम्’ इस सूत्र में जो मतिज्ञान को परोक्ष कहा है वह मुख्य कथन है अर्थात् मतिज्ञान मुख्यरूप से परोक्ष ही है इसलिए यहाँ उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मानने में सिद्धान्त विरुद्ध कथन नहीं है। ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ - सिद्धान्त ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण से अवधि आदि तीन ज्ञान लिये हैं और परोक्ष से मति, श्रुत इन दो ज्ञानों को लिया है। यहाँ पर अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किये हैं-मुख्य और सांव्यवहारिक। मुख्यरूप से अवधि आदि तीनों ज्ञानों को ले लिया है और सांव्यवहारिक से मतिज्ञान को लिया है। टीकाकार अभयचंद्रसूरि यह स्पष्ट कर रहे हैं कि यह सांव्यवहारिक मतिज्ञान उपचार से ही प्रत्यक्ष है, मुख्य रूप से नहीं। इसलिए यहाँ सिद्धान्त विरुद्ध कथन करने का दोष नहीं आता है। अब परोक्ष प्रमाण का लक्षण कहते हैं शेष विज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। शेष-प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप से भिन्न अविशद स्वभाव वाला ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है। उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क , अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेद हैं। यह परोक्ष ज्ञान पर कारणों की अपेक्षा से प्रवृत्त होता है। स्मृति आदि में प्रत्यक्ष आदि निमित्त माने गये हैं अर्थात् स्मृति ज्ञान पूर्व में अनुभव किये गये प्रत्यक्ष की अपेक्षा रखता है। प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों की अपेक्षा करता है इत्यादिरूप से पर की अपेक्षा रखने से ही ये ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं। ( ग्रंथ में संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन ये चार चीजें होना आवश्यक हैं। इसलिए इन्हीं चारों का स्पष्टीकरण करते हैं-) ‘प्रमाणे’ इस कथन से इस शास्त्र को अभिधेय वाला सूचित किया है अर्थात् इस ग्रंथ के अभिधेयवाच्य विषय को बतलाया है। ‘प्रमाण’ इस कथन से इस ग्रंथ प्रमाण, नय और निक्षेपों का कथन है क्योंकि इनसे शून्य ग्रंथ आदरणीय नहीं हो सकते हैं, जैसे कि ‘बंध्या का पुत्र जाता है’ इत्यादि को कहने वाले शास्त्र आदरणीय नहीं हैं। वाच्य वाचक भावलक्षण संबंध तो सुघटित ही है क्योंकि शास्त्र और उसका वाच्य प्रमाण इन दोनों के संबंध का सद्भाव है अन्यथा दश अनार, छह पुये इत्यादि वाक्य के समान यह ग्रंथ अप्रयोजक ही रहेगा अर्थात् किसी ने बिना किसी संबंध के दश अनार, छह पुये आदि यद्वा-तद्वा वाक्य कहा तो उसका वह कथन संबंध रहित होने से अप्रयोजनीभूत है। शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन तो प्रमाण आदि के विषय में अज्ञान की निवृत्ति लक्षण साक्षात् फल देखा ही जाता है, शास्त्र के अध्ययन के अनंतर ही (उस विषयक) अज्ञान का अभाव हो जाता है। परम्परा से हान, उपादानादिरूप फल होता है क्योंकि प्रवचन-शास्त्र हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराने में समर्थ होता है। जो शास्त्र निष्प्रयोजन होते हैं वे प्रवृत्ति के कारण नहीं होते हैं। जैसे कौवे के दांत की परीक्षा करना निष्प्रयोजन ही है। इसलिए ‘प्रत्यक्षं विशदं’ इत्यादि रूप से जो कथन किया गया है वह ठीक ही है। भावार्थ - इस ग्रंथ के उद्देश्य को बतलाते हुए आचार्य ने यहाँ पर सबसे प्रथम शिष्यों के भेद बतलाये हैं। पुन: इस ग्रंथ में प्रमाण का वर्णन है, ऐसा संकेत करते हुए यह बताया है कि शास्त्र की प्रवृत्ति उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा इन तीन प्रकार होती है। पुन: प्रमाण का लक्षण करके अन्य मतावलंबियों द्वारा मान्य प्रमाण के लक्षण का निराकरण किया है। प्रमाण के भेदों के विसंवाद को दूर करके दो भेद सिद्ध किये हैं एवं उन्हीं में सभी प्रमाणों के अंतभूर्त होने का संकेत किया है। अनंतर यह बात भी स्पष्ट की है कि ग्रंथ में संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्टप्रयोजन ये चार चीजें अवश्य होनी चाहिए अन्यथा उसका आदर नहीं होता है। इनको बतलाते हुए यह स्पष्ट किया है कि इसको अध्ययन करने के अनंतर ही उस विषय का ज्ञान होने से अज्ञान का अभाव हो जाता है यह साक्षात् फलरूप इष्ट प्रयोजन है और परम्परा से त्याग करने योग्य को छोड़ना, ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना इन दोनों से रहित में अपेक्षा करना यह फल है, इसलिए यह प्रमाणभूत है। |