अभयचन्द्रसूरि :
अनुमान, आगम आदि के बिना जो वस्तु के विशेष-वर्ण संस्थान आदि आकारों का प्रतिभासन-जानना होता है अथवा जो भिन्न प्रतीति के व्यवधान के बिना जानना होता है, वह विशेष प्रतिभासन कहलाता है और वही ज्ञान की विशदता-निर्मलता है। विशद के भाव को विशदता या वैशद्य कहते हैं। यहाँ पर वही स्याद्वादियों को इष्ट है। अनुमान आदि में साधारण ऐसा विशेष प्रतिभासन प्रत्यक्ष में प्रतीत नहीं होता है कि जिससे उन अनुमान आदि ज्ञानों में भी विशदता हो सके इसलिए उपर्युक्त लक्षण वाली विशदता से अन्य व्यवहित (तिरोहित) प्रतिभासन-ज्ञान अविशद कहलाते हैं। वह अविशदता-अस्पष्टता अनुमान आदि सभी परोक्ष ज्ञान के भेदों में व्यवस्थित है। इस प्रकार से बाह्य अर्थ की अपेक्षा से ही ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता होती है, ऐसा श्री भट्टाकलंकदेव ने कहा है। स्वरूप की अपेक्षा से तो सभी ज्ञान विशद ही हैं क्योंकि स्वसंवेदन-स्व को जानने में किसी भी ज्ञान में भिन्न ज्ञान का व्यवधान नहीं आता है। उन ज्ञान की प्रमाणता और अप्रमाणता भी बाह्य अर्थ की अपेक्षा से ही है न कि स्वरूप की अपेक्षा से।अपने स्वरूप का अनुभव करने में सभी ज्ञान में अप्रमाणता का अभाव है। भाव-अपने स्वरूप के प्रमेय की अपेक्षा होने पर प्रमाणाभास का अभाव है तथा बाह्य प्रमेय की अपेक्षा में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों होते हैं, ऐसा श्री समंतभद्रस्वामी ने कहा है। भावार्थ - यहाँ खास बात यह समझने की है कि बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से ही ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता होती है, अपने स्वरूप को जानने में नहीं। अपने स्वरूप के जानने में सभी ज्ञान स्पष्ट ही हैं तथा दूसरी बात यह है कि ज्ञान का जब अपना स्वरूप ही प्रमेय-विषय है तब उसमें प्रमाणाभास नहीं होता है क्योंकि यदि संशय ज्ञान अपने स्वरूप में विपरीत है तो वह असंशय रूप हो जावेगा। इसी प्रकार से चाहे समीचीन ज्ञान हो चाहे मिथ्या, अपने-अपने स्वरूप से सभी उसी रूप होने से समीचीन ही हैं किन्तु बाह्य पदार्थों को प्रमेय-विषय करने की अपेक्षा से ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास ये दो विकल्प हो जाते हैं। जो ज्ञान बाह्य पदार्थों को बाधारहित या संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित ग्रहण करते हैं वे समीचीन कहलाते हैं और जो ज्ञान पदार्थों को बाधा सहित संशय आदि सहित ग्रहण करते हैं वे प्रमाणाभास कहे जाते हैं। इस बात को यहाँ बतलाया है। |