+ अब सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कारण और भेद का निर्णय करने के लिए आचार्य कहते हैं - -
अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधी:।
अवग्रहे विशेषाकांक्षेहाऽवायो विनिश्चय:॥5॥
धारणा स्मृतिहेतुस्तन्मतिज्ञानं चतुर्विधम्।
अन्वयार्थ : [अक्षार्थयोगे] इंद्रिय और पदार्थ का योग होने पर सत्तामात्र का आलोक दर्शन है [अर्थाकारविकल्पधी:] पुन: अर्थ के आकार के विकल्प वाला ज्ञान [अवग्रह] है [अवग्रहे विशेषाकांक्षा ईहा] अवग्रह के विषय में विशेष आकांक्षा का होना ईहा है [विनिश्चय:] विशेष का निश्चय [अवाय:] अवाय है [स्मृति हेतु: धारणा] स्मृति का हेतु धारणा है [तत् मतिज्ञानं चतुर्विधं] वह मतिज्ञान चार प्रकार का है॥५॥ [१/२]

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

सूत्र उपस्कार सहित होते हैं। इस नियम से यहाँ उत्पद्यते-उत्पन्न होता है; इस क्रिया का अध्याहार होता है अर्थात् सत्तालोक-दर्शन उत्पन्न होता है ऐसा संबंध है। सत्ता-संपूर्ण पदार्थों में साधारण रूप से रहने वाले, ऐसे सत्त्वसामान्य-अस्तित्व सामान्य को, आलोक-निर्विकल्प ग्रहण करना दर्शन कहलाता है। सामान्य ग्रहण को दर्शन कहते हैं, ऐसा आगम में कथित है।

प्रश्न - यहाँ मतिज्ञान के प्रकरण में दर्शन अप्रकृत है अर्थात् यहाँ दर्शन का कोई प्रकरण नहीं है पुन: इसका वर्णन क्यों किया ?

उत्तर - ऐसा नहीं कहना। ज्ञान से पूर्व के परिणाम को बतलाने के लिए यहाँ उसका ग्रहण किया गया है क्योंकि छद्मस्थ जीवों को दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, ऐसा आगम वचन है।

प्रश्न - सिद्धान्त में स्वरूप के ग्रहण करने को दर्शन कहा है पुन: यहाँ सत्तामात्र ग्रहण को दर्शन कहा है। इस कथन के सिद्धान्त से विरोध क्यों नहीं आता है ?

उत्तर - विरोध नहीं आता है क्योंकि अभिप्राय में भेद है। पर के विसंवाद को दूर करने के लिए ही न्यायशास्त्र होते हैं। इन न्यायशास्त्रों से पर के द्वारा स्वीकृत निर्विकल्प दर्शन ही प्रमाणता का खंडन करने के लिए स्याद्वादियों ने सामान्यग्रहण (सत्तामात्र ग्रहण) को दर्शन कहा है। स्वरूप ग्रहण की अवस्था में छद्मस्थजीवों को बाह्यपदार्थ विशेष के ग्रहण का अभाव है और प्रमाणता का विचार तो बाह्यपदार्थ की अपेक्षा से ही किया गया है क्योंकि वह व्यवहार में उपयोगी है। देखो! व्यवहारी लोग स्वरूप के प्रकाशन के लिए प्रदीप का अन्वेषण नहीं करते हैं इसलिए दर्शन बाह्य पदार्थ विशेष के व्यवहार के लिए अनुपयोगी है। उसमें तो ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि वही बाह्य पदार्थ विशेष के व्यवहार में उपयोगी है तथा वह विकल्पात्मक है।

परमार्थ से तो स्वरूप का ग्रहण करना ही दर्शन है क्योंकि केवली जीवों से दर्शन और ज्ञान इन दोनों की युगपत् प्रवृत्ति होती है अन्यथा ज्ञान के सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय करने के अभाव का प्रसंग आ जावेगा अर्थात् सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है और यदि ज्ञान को वस्तु के विशेष अंश को विषय करने वाला ही मानेगें तो फिर सामान्य विशेषात्मक वस्तु प्रमाण का विषय नहीं हो सकेगी।

भावार्थ-सभी पदार्थों में सामान्य और विशेष ऐसे दो धर्म पाये जाते हैं। जैसे-वृक्षों में वृक्षत्व यह सामान्य धर्म है आरै सभी वृक्षों में पाया जाता है नीम, आम, जामुन आदि विशेष धर्म है कोई न कोई विशेष धर्म भी सभी वृक्षों में मौजूद ही है। दर्शन का लक्षण है सामान्य अस्तित्व मात्र को ग्रहण करना और ज्ञान का लक्षण है वस्तु के विशेष आकारादि को ग्रहण करना किन्तु सिद्धान्त ग्रंथों में दर्शन का लक्षण है स्वरूप को ग्रहण करना और ज्ञान का लक्षण है बाह्य पदार्थों को ग्रहण करना। ज्ञान प्रमाण है। प्रमाण का विषय है सामान्य विशेषात्मक वस्तु।

यहाँ पर आचार्य ने सत्तामात्र ग्राहक दर्शन को माना है तब शंकाकार ने शंका की है कि आपके इस कथन से सिद्धांत में विरोध आता है। इस शंका का समाधान करते हुए आचार्य ने कहा कि न्यायग्रंथ पर के द्वारा माने गये विपरीत प्रकरणों को निराकरण करने वाले होते हैं। बौद्ध ने ज्ञान को निर्विकल्प माना है, उसकी मान्यता का खंडन करने के लिए न्याय ग्रंथों में दर्शन को स्वरूप को ग्रहण करने वाला कहा है। यह भी बताया है कि वह बाह्य पदार्थों को ग्रहण नहीं करता है, इसलिए वह व्यवहार में उपयोगी नहीं है और ज्ञान प्रमाण है। वही बाह्य वस्तु के व्यवहार में उपयोगी है। पुन: यह भी स्पष्ट कह दिया है कि दर्शन के विषय में जो सिद्धांत की मान्यता है, वही वास्तविक है।

(दर्शन की उत्पत्ति कैसे होती है ?)

शंका - सत्तामात्र अवलोकन रूप दर्शन कैसे उत्पन्न होता है ?

समाधान - इंद्रिय और पदार्थ का योग होने पर होता है। अक्ष-इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इंद्रियाँ हैं और मन यह छठी इन्द्रिय है (इसे अनिंद्रिय भी कहते हैं)। उन इन्द्रियों के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। उसमें पुद्गलपरिणाम को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। उसके भी निर्वृत्ति और उपकरण दो भेद हैं। जीव के परिणाम को भावेन्द्रिय कहते हैं। उसके लब्धि और उपयोग ऐसे दो भेद हैं।

अर्थ ग्रहण की शक्ति का नाम लब्धि है और अर्थ ग्रहण के व्यापार का नाम उपयोग है।

(इन्द्रिय के आकार की रचना को निर्वृत्ति तथा उनके सहायक अवयवों को उपकरण कहते हैं।)

‘निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्१’ ऐसा सूत्रकार का वचन है।

शंका-मन को इंद्रिय कैसे कहा है ?

समाधान-अंत:करण रूप होने से मन का इन्द्रियपने से विरोध नहीं है।

विषय को अर्थ कहते हैं। उन इन्द्रिय और अर्थ का योग्य देश में अवस्थान होना योग कहलाता है, उसके होने पर होता है अर्थात् इन्द्रिय और विषय के योग्य देश में रहने पर वह दर्शन उत्पन्न होता है।

शंका - ऐसा मानने पर तो इन्द्रिय के समान पदार्थ भी दर्शन की उत्पत्ति में कारण हो जावेंगे ?

समाधान - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि पदार्थ में व्यापार नहीं देखा जाता है और दर्शन का पदार्थ के साथ अन्वय व्यतिरेक भी नहीं है, केश में मच्छर के ज्ञान के समान अर्थात् जहाँ-जहाँ पदार्थ हो वहीं-वहीं पर दर्शन उत्पन्न हो और जहाँ-जहाँ पदार्थ न हो वहाँ-वहाँ दर्शन उत्पन्न न हो, इसको अन्वय-व्यतिरेक कहते हैं। यह नहीं देखा जाता है प्रत्युत् केश में मच्छर का ज्ञान हो जाता है। यदि पदार्थ के निमित्त से दर्शन या ज्ञान उत्पन्न होते तो केशों में केश का ही ज्ञान होता, न कि मच्छर का।

देखिये! नेत्र आदि के व्यापार के समान पदार्थ का व्यापार ज्ञान की उत्पत्ति में कारण नहीं देखा जाता है क्योंकि वे पदार्थ तो उदासीनरूप ही हैं।

(ज्ञान की उत्पत्ति और भेद)

पुन: उसके अनन्तर वही दर्शन अवग्रह हो जाता है। वह वैâसा है ? अर्थाकार के विकल्पात्मक ज्ञानरूप है अर्थात् अर्थ-विषय के आकार-वर्ण आदि विशेष का निश्चय कराने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है। अर्थ यह हुआ कि दर्शन ही ज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम विशेष से सहित हुआ पदार्थ विशेष के ग्रहण लक्षण वाले अवग्रह रूप से परिणत हो जाता है। जैसे कि ‘आकाश में यह वस्तु है’, इस प्रकार का ज्ञान।

अनंतर वही अवग्रह पुन: ईहा हो जाता है। वह किस रूप है ? विशेष आकांक्षारूप है अर्थात् विशेष बगुला को जानने की जो इच्छा है। वह ‘भवितव्यता-होना चाहिए’ इस ज्ञानरूप है। जैसे कि (आकाश में जो श्वेत कुछ दिखा था) वह बगुला होना चाहिए, इस प्रकार का ज्ञान ईहा है।

अनंतर वही ईहाज्ञान अवाय हो जाता है। वह किस लक्षण वाला है ? विशेष निश्चय लक्षण वाला है अर्थात् आकांक्षित विषय का निर्णय हो जाना अवाय है। जैसे कि ‘यह बगुला ही है।’ यह ज्ञान निश्चयरूप है।

पुन: वही अवायज्ञान धारणा हो जाता है। उसका क्या लक्षण है ? वह स्मृति में हेतु है अर्थात् वह धारणा भूतकाल के पदार्थ के परामर्शरूप स्मृति का कारण है। यही संस्कार का लक्षण है जो कि कालांतर में भी विस्मरण न होना। मतलब कालांतर में भी नहीं भूलने रूप संस्कार ज्ञान को धारणा कहते हैं। इस प्रकार से यह मतिज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का होता है और यह प्रत्येक इन्द्रिय से होता है, ऐसा जानना चाहिए।

भावार्थ - यहाँ दर्शन और मतिज्ञान का लक्षण तथा मतिज्ञान के चारों भेदों का लक्षण बतलाया गया है। इन्द्रियाँ अपने स्थान पर अवस्थित हैं तथा पदार्थ भी यथायोग्य अपने स्थान पर अवस्थित हैं। इन इन्द्रिय और पदार्थ के यथायोग्य अवस्थित रहने पर आत्मा में जो सत्तामात्र का-अस्तित्व मात्र का अवभास होता है, वह दर्शन है। वास्तव में यह इतना अव्यक्त है कि इसका उदाहरण नहीं दिया जा सकता है। अनंतर उसी आत्मा को किसी इन्द्रिय के अवलंबन से यह मालूम होता है कि ‘यह है’ तब आत्मा का वही दर्शन ज्ञानरूप परिणत हो जाता है। ऐसे ही वही-वही ज्ञान आगे-आगे विशेष-विशेष को ग्रहण करने से अगले-अगले नामों को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जीव का लक्षण है उपयोग। उसके दो भेद हैं-दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग, ऐसा जानना चाहिए।