+ अब ज्ञान के भेद और प्रमाण तथा फल के व्यवहार को बतलाते हैं - -
बह्वाद्यवग्रहाद्यष्टचत्वारिंशत्स्वसंविदाम्॥6॥
पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम्॥
अन्वयार्थ : [स्वसंविदां] स्वसंवेदन ज्ञानों में [बह्वाद्यवग्रहाद्यष्ट चत्वारिंशत्] बहु आदि बारह भेदों के अवग्रह आदि चार भेद होने से अड़तालीस भेद होते हैं। [इनमें] [पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं] पूर्व-पूर्व के ज्ञान प्रमाण हैं और [उत्तरोत्तर] आगे-आगे के ज्ञान [फलं स्यात्] फल हैं॥६॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(मतिज्ञान के विशेष भेद)

तात्पर्यवृत्ति-बहु है आदि में जिनके वे बहु आदि अर्थ विशेष हैं। उनके बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत,अनुक्त, ध्रुव और इनके प्रतिपक्षी-अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, नि:सृत, उक्त और अध्रुव ये बारह भेद हैं। इनमें प्रत्येक के अवग्रह आदि चार अर्थ विशेष को ग्रहण करने वाले होते हैं अत: उनके अड़तालिस भेद हो गये अर्थात् बहु आदि बारह से अवग्रह आदि चार को गुणित करने से अड़तालिस भेद हो जाते हैं। प्रत्येक इन्द्रिय के प्रति ये भेद संभव होने से इन्हें छह इंद्रियों से गुणा करने से अर्थ के प्रति दो सौ अठ्यासी भेद हो जाते हैं।

व्यंजन के प्रति अवग्रह ही होता है। चक्षु और मन से रहित चार इन्द्रियों से बहु आदि बारह को गुणित करने से अड़तालिस भेद हो जाते हैं क्योंकि व्यंजन में ईहा आदि असंभव हैं अर्थात् व्यंजनावग्रह के अड़तालिस भेद हो गये हैं। अव्यक्त शब्दादि समूह का व्यंजनावग्रह होता है।

(बहु आदि का लक्षण)

अब बहु आदि का किंचित अर्थ कहते हैं।

‘बहु’ का अर्थ अनेक होता है। जैसे बहुजन। उससे प्रतिपक्षी उल्टे का एक अर्थ होता है जैसे एक जन। अनेक जाति से भिन्न- भिन्न को बहुविध कहते हैं। जैसे बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। उससे विपरीत एकविध है जैसे ब्राह्मण लोग। क्षिप्र-शीघ्रता यह ज्ञान का विशेषण है। जैसे एक बार में ग्रहण करना। उससे विपरीत धीरे-धीरे ग्रहण करना अक्षिप्र है। प्रगट हुए को संवृत, अप्रगट को अनि:सृत कहते हैं। जैसे-जल में डूबे हुए हाथी की सूंड मात्र ऊपर है। इससे विपरीत प्रगट-खुले हुए को नि:सृत कहते हैं। जल में हाथी पूरा निकला हुआ है । आभ्f ाप्राय से समझने को अनुक्त कहते हैं जैसे - अग्नि के लाने में सकोरा आदि को बिना कहे ही समझ लिया। प्रतिपादित को उक्त कहते हैं। जैसे-स्पष्ट रीति से ‘लाओ’ ऐसा कहने पर लाना। अवस्थित रहने को ध्रुव कहते हैं यह ज्ञान का विशेषण है। अनवस्थित को अध्रुव कहते हैं। जैसे-फूटे बर्तन का जल। अथवा स्थिर पर्वत आदि ध्रुव हैं और बिजली आदि अस्थिर पदार्थ अध्रुव हैं। इनके विषय रूप से अवग्रह आदि विशिष्ट रूप होते हैं। इसी प्रकार से व्यंजन में भी लगा लेना चाहिए। अर्थावग्रह, ईहा आदि के २८८ भेद और व्यंजनावग्रह के ४८ भेद इन दोनों को जोड़ देने से मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं।

भावार्थ-अवग्रह ज्ञान के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। दर्शन के अनंतर जो शब्दादि का अव्यक्त ग्रहण होता है, वह व्यंजनावग्रह है। इसके आगे ईहा आदि नहीं होते हैं और यह अव्यक्त ज्ञान चक्षु और मन से भी नहीं होता है इसलिए अवग्रह को शेष चार इन्द्रियों से गुणने से १५४=४ भेद हुये। पुन: यह ज्ञान भी बहु आदि को विषय करता है अत: इससे बारह को गुणने से १२*४=४८ भेद हो जाते हैं। अनंतर व्यक्त-स्पष्ट को ग्रहण करने वाला अर्थावग्रह ज्ञान होता है। इसके आगे ईहा आदि भेद भी व्यक्त को ग्रहण करने वाले होते हैं। ये चारों ज्ञान बहु आदि को विषय करते हैं। अत: १२ को ४ से गुणित करके ६ इंद्रियों से गुणने से १२*४*६=२८८ भेद होते हैं। इनको जोड़ देने से २८८+४८=३३६ भेद हो जाते हैं। ये सब मतिज्ञान के भेद हैं।

(ज्ञान स्वसंवेदी भी हैं)

शंका-बाह्य पदार्थों के अवलंबन लेने से ही ज्ञान के ये भेद संभव हैं। अत: ज्ञान स्वव्यवसायात्मक - स्व को जानने वाला कैसे होगा ?

समाधान-ऐसी बात नहीं है। ये भेद स्वसंवेदन के होते हैं। कारिका में ‘स्वसंविदाम्’ पद है। पुन: यहाँ पर ‘अपि’ शब्द का अध्याहार करना चाहिए। तब ऐसा अर्थ निकलता है कि ये भेद केवल अर्थ संवेदन के ही नहीं है किन्तु स्वसंवेदन के भी अवग्रह आदि होते हैं। स्व-ज्ञानस्वरूप का, संविद-वेदन, भिन्न ज्ञानों की अपेक्षा न करके अनुभव होना जिनमें है वे ज्ञान स्वसंवेदन कहलाते हैं। यहाँ ऐसा व्याख्यान है।

ज्ञान अस्वसंवेदी नहीं है अन्यथा अर्थ के संवेदन का भी विरोध हो जावेगा। यदि आप ऐसा कहें कि ज्ञान अपने स्वरूप को दूसरे ज्ञान से जानता है, तब तो अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा। इस कथन से ‘ज्ञान परोक्ष है’ ऐसा कहने वाले मीमांसक, ‘ज्ञान ज्ञानांतर से प्रत्यक्ष है’ ऐसा कहने वाले यौग, ‘ज्ञान अचेतन है’ऐसा कहने वाले सांख्य और ज्ञान पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय का परिणाम है ऐसा कहने वाले चार्वाक इन सभी का खंडन कर दिया गया है क्योंकि इन सबके मत प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित हैं।

भावार्थ-प्रश्न यह उठा था कि ये मतिज्ञान के बहु आदि की अपेक्षा करके अवग्रह आदि ज्ञान के ३३६ भेद हुए हैं। ये सब भेद बहु आदि बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से ही तो हुए हैं अत: ज्ञानत्व को जानने वाला नहीं है मात्र पर पदार्थों को ही जानने वाला है। इसका उत्तर देते हुए आचार्य ने कहा कि ये भेद पदार्थों को ग्रहण करने वाले ज्ञान के ही नहीं हैं किन्तु स्व को अनुभव करने वाले स्वसंवेदी ज्ञान के भी ये सभी भेद होते हैं क्योंकि ज्ञान स्व-पर प्रकाशी है। यदि ज्ञान अपने स्वरूप को नहीं जानता है तो वह परपदार्थों को भी नहीं जान सकेगा। इस पर नैयायिक ने कहा कि ज्ञान अपने स्वरूप को दूसरे ज्ञान से जानता है। तब आचार्य ने कहा कि ऐसी मान्यता में पुन: उस दूसरे ज्ञान के स्वरूप को तीसरे ज्ञान से जानेगा आदि। ऐसी व्यवस्था में तो अनवस्था आ जावेगी अत: ज्ञान को स्व परवेदी मानना उचित है।

मीमांसक परोक्ष ही है वह पदार्थ को जानता है किन्तु वह स्वयं किसी से नहीं जाना जाता है। यौग ज्ञान को दूसरे ज्ञान से वेद्य मानता है। सांख्य कहता है कि ज्ञान अचेतन है, वह प्रकृति-जड़ का परिणाम है। चार्वाक कहता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन भूतचतुष्टय से आत्मा बनता है आरै ज्ञान भी इन्हीं का परिणाम है । यहाँ पर ज्ञान को स्व पर को जानने वाला सिद्ध कर देने से इन सभी की मान्यता का निराकरण हो जाता है।

(प्रमाण का फल)

शंका-अवग्रह ज्ञान को प्रमाण मान लेने पर फल के अभाव का प्रसंग आ जाता है ?

समाधान-ऐसी बात नहीं है। क्योंकि पूर्व-पूर्व के ज्ञान प्रमाण हैं।

दो बार पूर्व शब्द का ग्रहण वीप्सा अर्थ में है। जिस प्रकार से पूर्व-पूर्व के अवग्रह आदि ज्ञान को प्रमाणता है, उसी प्रकार से उत्तर-उत्तर के ईहा आदि ज्ञान साक्षात् फल हो जाते हैं। इस प्रकार से प्रमाण और फल में कथंचित् अभेद है। यदि प्रमाण और उनके फल में सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अभेद मान लिया जाय तो इनकी अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी। विवक्षा से कारक की प्रवृत्ति होती है, ऐसा न्याय है।

जो चेतन द्रव्य, अन्वय ज्ञान के बल से अनुगताकार और अखंड प्रसिद्ध है। वही पूर्वाकार का परिहार, उत्तराकार की प्राप्ति और मूल स्वभाव की स्थिति लक्षण परिणाम से परिणमन करता हुआ व्यतिरेक ज्ञान के बल से प्रत्येक पर्यायों में भिन्न-भिन्न अनुभव में आता है। इस प्रकार से प्रमाण और फल का व्यवहार बन जाता है।

प्रमाण का परम्पराफल तो हान-उपादान आदि सर्वत्र साधारण ही है अर्थात् ज्ञान का फल है कि छोड़ने योग्य को छोड़ना और ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना तथा इन दोनों में विपरीत में उपेक्षा करना। सच्चे ज्ञान से हेय, उपादेय वस्तुओं को जानकर परम्परा से उनका त्याग आदि किया जाता है, यही परम्परा फल है।

वह ज्ञान की प्रमाणता-सच्चाई अभ्यस्त विषय में तो स्वत: सिद्ध है क्योंकि जाने हुए विषय में भिन्नज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती है किन्तु अनभ्यस्त विषय में पर से-भिन्न प्रमाण से सिद्ध होती है क्योंकि जिस विषय को नहीं जानते हैं, उनमें अनुमान आदि की अपेक्षा करनी पड़ती है। सर्वथा पर से ही प्रमाणता हो ऐसी बात नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जावेगा और अनवस्था दोष आ जावेंगे। इसलिए ठीक ही कहा है कि अवग्रह आदि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं।

भावार्थ-बात यह है कि प्रमाण फल वाला ही होना चाहिए और यहाँ पर अवग्रह ज्ञान प्रमाण है उसका फल आगे का ईहाज्ञान है। पुन: ईहा ज्ञान प्रमाण है तब उसका फल अवाय है, ऐसे ही आगे समझना। यह फल अपने प्रमाण से कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न। समीचीन जानना यह प्रमाण है और उसके ‘उसी क्षण में अज्ञान का दूर होना तथा कालांतर में हेय-उपादेय का छोड़ना, ग्रहण करना, ये फल हैं। ये फल अपने लक्षण से, नाम से, कार्य से कथंचित् प्रमाण से भिन्न हैं तथा जिस आत्मा ने जाना है उसी के अज्ञान का अभाव हुआ है और उसी ने छोड़ा या ग्रहण किया है। इस दृष्टि से प्रमाण से उसका यह फल अभिन्न है। यह स्याद्वाद व्यवस्था है।

यह प्रमाण की सच्चाई का वर्णन जाने-बूझे विषयों में स्वत: हो जाता है। जैसे-कोई प्यासा मनुष्य अपने परिचित के कुएं से पानी भर लेता है। इसमें पानी है या नहीं इस बात को किसी से नहीं पूछता है तथा अपरिचित विषय में प्रमाण की सच्चाई पर से जानी जाती है। जैसे-अपरिचित स्थान में प्यासा मनुष्य अवश्य ही पास के कृषक आदि से पूछता है कि इस कुएं में जल है या नहीं। कोई कहते हैं कि प्रमाण की प्रमाणता पर से ही होती है, सो एकांत मान्यता गलत ही है।

श्लोकार्थ - जो अकलंक चन्द्रमा से विशद प्रतिभासित है, उस सभी को आप लोगों के लिए प्रभा के बल से सूरि की तात्पर्यवृत्ति व्यक्त कर रही है।।१।।

भावार्थ - भट्टाकलंक देव को यहाँ चन्द्रमा की संज्ञा दी है जैसे चन्द्रमा का निर्मल प्रतिभास होता है ऐसे ही भट्टाकलंकदेवरूपी चन्द्र के द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष प्रमाण का विशद लक्षण प्रतिभासित हो रहा है अर्थात् इन्होंने प्रत्यक्ष का लक्षण विशद किया है और उसका विशद-स्पष्टरूप से विवेचन किया है और प्रभाचंद्राचार्य ने इस लघीयस्त्रय की न्यायकुमुदचन्द्र नाम से टीका रची है। उस टीका रचना के मनन के अनन्तर श्री अभयचंद्रसूरि ने यह तात्पर्यवृत्ति बनाई है। यह सूरि द्वारा रचित तात्पर्यवृत्ति आप लोगों को इस प्रत्यक्ष प्रमाण का सभी अर्थ स्पष्ट कर रही है ऐसा यहाँ अभिप्राय है।

इस प्रकार से अभयचंद्रसूरि कृत लघीयस्त्रय की स्याद्वादभूषण

नामक तात्पर्यवृत्ति में प्रत्यक्ष प्रमाण नाम का

पहला परिच्छेद पूर्ण हुआ।