+ अब प्रमाण के विषय के विसंवाद को दूर करने के लिए आगे कहते हैं - -
अथ द्वितीय परिच्छेद:
(प्रमाण विषय)
तद्द्रव्यपर्यायात्मार्थो बहिरन्तश्च तत्त्वत:॥7॥
अन्वयार्थ : [तत्त्वत:] परमार्थ से [तद्-द्रव्यपर्यायात्मा] उस प्रमाण का द्रव्य पर्यायात्मक [बहि:अंत: च] बहिरंग और अंतरंग पदार्थ [अर्थ:] विषय है॥७॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

भावार्थ-प्रमाण और फलभूत अवग्रह आदि क्रम से होते हैं फिर भी उनमें तादात्म्य है और उसका विषय भी अभिन्न है इस बात को पहले कहा जा सकता है अब यहाँ उसी विषय को बतलाते हुए कहते हैं कि अंतरंग और बहिरंग रूप चेतन-अचेतन पदार्थ ही जिस प्रकार से वास्तव में प्रमाण के विषय हैं अथवा विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ने अंतस्तत्व को प्रमाण का विषय माना है वेैसे ही बाह्य वस्तु भी प्रमाण का विषय है यहाँ चकार को टीकाकार ने इव अर्थ में लिया है।

तात्पर्यवृत्ति -‘प्रमाणं’ यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। यहाँ पर तद् शब्द से वह ग्रहण किया जाता है उसमें षष्ठी विभक्ती का संबंध होता है तब ‘तस्य प्रमाणस्य’ ऐसा हो जाता है। जो ‘अर्यते गम्यते ज्ञायते’- जाना है उसे अर्थ कहते हैं, यह धातु से बना है। इस प्रकार से विषय को अर्थ कहते हैं। अचेतन घट, पटादि बाह्य पदार्थ और चेतन रूप अंतरंग उस प्रमाण के विषय हैं क्योंकि प्रमाण स्व और पर अर्थ को जानने वाला है ऐसा प्रतिपादित किया गया है।

(सभी पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक हैं)

अन्विताकार (यह वही है) द्रव्य और व्यावृत्ताकार (यह वह नहीं है) पर्याय है। ये द्रव्य और पर्याय जिसके स्वभाव-धर्म हैं वह द्रव्यपर्यायात्मक कहलाते हैं। चेतन-अचेतन सभी पदार्थ द्रव्य पर्यायात्मक ही होते हैं। वे परमार्थरूप से वैसे होते हैं न कि कल्पना मात्र से क्योंकि अन्यथारूप से अर्थ-पदार्थ हो नहीं सकते हैं। उसी का स्पष्टीकरण - प

प्रमाण के विषयभूत जीवादि पदार्थ द्रव्य पर्यायात्मक हैं क्योंकि वे प्रमाण के विषय हैं। जो द्रव्य पर्यायात्मक नहीं होता है वह प्रमाण का विषय भी नहीं होता है। जैसे-बन्ध्या का पुत्र। और प्रमाण के विषय जीवादि हैं इसलिए वे द्रव्य पर्यायात्मक हैं। इस अनुमान वाक्य से प्रमाण के विषय जीवादि पदार्थ द्रव्य पर्यायात्मक सिद्ध हो जाते हैं।

एकांत से द्रव्य ही अथवा पर्याय ही अथवा परस्पर में निरपेक्ष ये दोनों ही अर्थक्रिया में समर्थ नहीं हैं, जिससे कि वे प्रमाण के विषय हो जावें क्योंकि उस-उस एकांत में क्रम और युगपत् का अभाव होने से अर्थ-क्रिया नहीं हो सकती है। ये क्रम और युगपत् दोनों ही अनेकांत से व्याप्त हैं अत: अनेकांत के बिना नहीं हो सकते हैं।

इन क्रम युगपत् से अर्थक्रिया व्याप्य है और उस अर्थक्रिया से प्रमेय व्याप्य है तथा व्यापक का अभाव परम्परा से भी व्याप्य के अभाव को सिद्ध कर ही देता है। व्याप्य का सद्भाव व्यापक को सिद्ध करता है अत: हमें इसकी चिंता से क्या प्रयोजन है।

शंका -अर्थक्रिया प्रमेय से कैसे व्यापक है ?

समाधान-ऐसा नहीं कहना। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की परिणतिरूप लक्षण वाली अर्थक्रिया में ही अथवा बहिरंग-अंतरंग पदार्थ में प्रमाण की प्रवृत्ति होती है अन्यथा गृहीत को ग्रहण करने वाले होने से सभी ज्ञान अप्रमाणीक हो जावेंगे और विषय रहित होने से असत् रूप हो जावेंगे क्योंकि उस प्रकार की अर्थक्रिया के बिना स्वप्न में भी अस्तित्व उपलब्ध नहीं होता है और असत् अभाव प्रमेय नहीं होता है।

शंका-अनेकांत क्रम और युगपत् में कैसे व्यापक है ?

समाधान-ऐसा नहीं कहना। पर्याय की अपेक्षा से देश, काल का क्रम और द्रव्य की अपेक्षा से युगपत् संभव है अर्थात् सभी वस्तुओं में पर्याय की अपेक्षा से देश और काल का क्रम देखा जाता है और द्रव्य की अपेक्षा से अक्रम रहता है।

भावार्थ-अपने कार्य का करना अर्थक्रिया कहलाती है। जैसे-घट की जलधारण अर्थक्रिया है। ज्ञान की हेयोपादेय के त्याग और ग्रहणरूप अर्थक्रिया है। यहाँ यह बतलाया है कि केवल अकेला द्रव्य या मात्र स्वतंत्र पर्यायें या परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हुए दोनों ही अर्थ में क्रिया को नहीं कर सकते हैं इसलिए प्रमाण के द्वारा जाने नहीं जा सकते हैं। पुन: यह बतलाया है कि एकांत में क्रम और अक्रम न होने से अर्थक्रिया नहीं है क्योंकि ये क्रम-अक्रम दोनों ही अनेकांत से व्याप्त हैं। (संबंध रखते हैंअनेकांत के होने पर ही होते हैं) और इन क्रम-अक्रम से अर्थक्रिया व्याप्य है और उस अर्थक्रिया से प्रमेय प्रमाण का विषय व्याप्य है। ‘व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च’ व्यापक तत् और अतत् दोनों में रहता है और व्याप्य तत् में ही निष्ठ रहता है। जैसे-वृक्षत्व ये व्यापक है नीम आदि सभी वृक्षों में है और नीम व्याप्य है वह उसी में रहता है।

व्यापकरूप वृक्षत्व का अभाव अपने व्याप्यरूप नीम के अभाव को ही सिद्ध करता है। यहाँ क्रम और अक्रम अनेकांत से व्याप्त है इसलिए अनेकांत व्यापक है और उनसे अर्थक्रिया व्याप्य है।

वैशेषिक-हमारे यहाँ द्रव्य और पर्याय में एकांत से भेद मानने पर भी उनका प्रमेय होना अविरुद्ध ही है। उसी का स्पष्टीकरण -

द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छह पदार्थ भावरूप हैं। इनमें द्रव्य के नव भेद हैं। गुण चौबीस होते हैं, कर्म पाँच हैं। सामान्य दो हैं, विशेष अनेक हैं और समवाय एक है। अभावरूप चार हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यंताभाव। यह सत-असत् रूप पदार्थों का वर्ग परस्पर में अत्यंत भिन्न है और प्रमाण का विषय है।

भावार्थ-वैशेषिक के द्वारा मान्य छह पदार्थों में द्रव्य के नव भेद हैं। उनके नाम-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। गुण के चौबीस भेद हैं। उनके नाम-रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार। कर्म के पाँच भेद हैं-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आक्रुन्चन, प्रतारण और गमन। सामान्य के दो भेद हैं-पर सामान्य और अपर सामान्य। विशेष केवल नित्य द्रव्यों में रहता है और वह अनंत है। पूर्वोक्त नव द्रव्य और परमाणु नित्य माने गये हैं। समवाय एक ही है। अनेक भेदों को लिए हुये ये छहों पदार्थ अस्तित्व रूप हैं और प्रागभाव आदि चार प्रभाव के अभाव सर्वथा अभावनास्तित्व रूप हैं। ये द्रव्यगुण आदि परस्पर में, सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, इस प्रकार के पदार्थों को प्रमाण जानता है। ऐसा वैशेषिक ने कहा है।

जैन -ऐसी मान्यता ठीक नहीं है। क्योंकि इन सभी में अत्यंत भेद होने पर संबंध नहीं बन सकता है।

वैशेषिक-इनमें समवाय संबंध पाया जाता है।

जैन -नहीं, वह समवाय सभी में साधारणरूप से रहने से नियामक नहीं है। जैसे ज्ञान आदि का आत्मा में समवाय होता है वैसे पृथ्वी आदि में भी ज्ञान के समवाय का प्रसंग हो जावेगा। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार से द्रव्य से भिन्न सभी गुण अद्रव्य हैं उसी प्रकार से सत्तासामान्य से भिन्न द्रव्य आदि का भी असत्व क्यों नहीं हो जाता है ? इसमें कोई अंतर नहीं है।

यदि आप कहें कि द्रव्य अनुगत स्वरूप है अर्थात् अन्वयरूप स्वरूप है। तब तो वह सामान्य ही है अर्थात् वही अन्वय स्वभाव ही तो द्रव्य होता है जो कि सत्सामान्य रूप से अस्तित्व सहित है। पुन: द्रव्य सत्सामान्य से भिन्न कहाँ रहे ? यदि आप कहें कि द्रव्य व्यावृत्त स्वरूप है, तब तो वह व्यावृत्त स्वरूप भी (पररूप से नहीं होना) विशेष ही है अर्थात् अनुगतस्वरूप और व्यावृत्तस्वरूप कहो या सामान्यस्वरूप, विशेषस्वरूप कहो एक ही बात है, इनमें कुछ अन्तर नहीं है।

इसी प्रकार से गुणादि में भी लगा लेना चाहिए अन्यथा पदार्थद्वैत का प्रसंग आ जाता है।

(अभाव प्रमाण के विषय नहीं हैं)

नीरूप-स्वरूपरहित अभाव तो प्रमाण का विषय नहीं हो सकता है अन्यथा केश में मच्छर के ज्ञान आदि विषयशून्य ज्ञान भी प्रमाणीक हो जायेंगे।

वैशेषिक-अभाव प्रमाणभाव विषय है।

जैन -यदि ऐसा कहो तो केश में मच्छर के ज्ञान में भी केश में मच्छर का ज्ञान है। उसे भी प्रमाण का विषय मानो, क्योंकि दोनों जगह कोई अंतर नहीं है।

वैशेषिक-वहाँ केश में मच्छर की तो कल्पना मात्र है, इसलिए वह ज्ञान मिथ्यारूप है।

जैन- यदि आप ऐसा कहते हैं तब तो अभाव भी नि:स्वभाव होने से वह मिथ्यारूप क्यों न हो जावे ? इसलिए दुराग्रह का ग्रहण छोड़कर कथंचित् भावाभावात्मक ही प्रमाण का विषय स्वीकार करना चाहिए अत: आप वैशेषिक का मत सुमत नहीं है क्योंकि उसमें प्रत्यक्ष और अनुमान से विरोध आता है।

(नैयायिकाभिमत भेदैकांत का खंडन)

नैयायिक-हमारे यहाँ प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान ये सोलह पदार्थ हैं। इन पदार्थों में आत्मा, शरीर, इंद्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग के भेद से बारह प्रकार का प्रमेय बन जाता है।

जैन -ऐसा नहीं मानना। यहाँ पर भी भेदैकांत में संबंध नहीं बनता है और इन्द्रिय, बुद्धि तथा मन की सामर्थ्य की उपलब्धि रूप साधन से प्रमेय नहीं हो सकता है तथा आत्मा प्रमाता है। प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमिति ये अंतर्भेद स्वीकार किये गये हैं।

संशय आदि को प्रमेय नहीं मानने पर व्यवस्था नहीं बन सकती। भेदैकांत पक्ष में संग्रह का विरोध है और प्रत्यक्ष आदि का अंतर्भाव हो भी नहीं सकता है इसलिए आपके द्वारा मान्य सोलह पदार्थ की व्यवस्था संभव नहीं है।

भावार्थ-यौग के दो भेद हैं-वैशेषिक और नैयायिक। प्राय: इनकी मान्यतायें मिलती जुलती हैं। इन दोनों ने अपने माने हुए पदार्थों में परस्पर में सर्वथा भेद माना है पुन: उनमें समवाय से संबंध माना है किन्तु यह कल्पना बिल्कुल गलत है।

जैसे-जीव का ज्ञान गुण जीव से बिल्कुल भिन्न है किन्तु समवाय से उसका संबंध हो रहा है। इस पर आचार्यों का कहना है कि भाई! जीव और ज्ञान पहले अलग-अलग दिखे, फिर उन्हें अलग मानकर उनका संबंध करना चाहिए किन्तु ज्ञान के बिना जीव का, उष्णगुण के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है इसलिए द्रव्यगुण आदि को भिन्न ही मानना नितांत गलत सिद्धांत है।

(चार्वाक के भेदैकांत का खंडन)

चार्वाक-हमारे यहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार तत्त्व ही प्रमेय हैं और ये परस्पर में अत्यंत भिन्न हैं।

जैन -ऐसा नहीं है क्योंकि पाँचवे जीवतत्त्व का सद्भाव देखा जाता है और उन चार तत्त्वों में परस्पर में अत्यंत भेद असंभव है। अत: तत्त्व दो ही व्यवस्थित होते हैं अर्थात् जीव और पृथ्वी आदि अजीव ऐसे दो ही तत्त्व हैं।

चार्वाक-पृथ्वी आदि का विकार ही चैतन्य है किन्तु भिन्न तत्त्व नहीं है।

जैन -यह तो महान आश्चर्य है कि जो आप अत्यंत विलक्षणभूत चेतन में अभेद मान रहे हैं और सदृश लक्षण वाले पृथ्वी आदि में भेद कहते हैं। देखो! ज्ञान लक्षण वाला चैतन्य है। स्पर्श आदि लक्षण वाले भूतचतुष्टय हैं तथा चारों में भेद है फिर भी स्पर्शादि वाले होने से उन चारों में अभेद प्रतीत हो रहा है।

भावार्थ-चार्वाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इनको भूतचतुष्टय कहता है और इन चारों से ही आत्मा की उत्पत्ति मानता है तथा इन चारों में परस्पर में अत्यंत भेद स्वीकार करता है किन्तु जैनाचार्यों काकहना है कि मुख्यरूप से जीव और अजीव रूप से दो ही तत्त्व हैं। पृथ्वी, जलादि चारों ही अजीव तत्त्व हैंऔर चेतन आत्मा जीव तत्त्व है। चेतन का अचेतन से सर्वथा भेद है क्योंकि इनके लक्षण जुदे-जुदे हैं। चेतन का लक्षण है ज्ञान और अचेतन का लक्षण है स्पर्श, रस आदि और वैसा ही अनुभव आ रहा है इसलिए चार्वाक का मान्य भेदैकांत गलत है।

(ब्रह्माद्वैतवादी और ज्ञानाद्वैतवादी का खंडन)

अद्वैतवादी-भेदैकांत में ये दोष होवें, ठीक ही है किन्तु हमारे यहाँ अभेदैकांत में यह बात नहीं है।द्रव्य और पर्याय को सर्वथा अभिन्न-एकरूप ही मानने पर इनका प्रमेयरूप होना युक्त है क्योंकि भेद तो अविद्या से कल्पित हैं और भेदों के मानने से अनवस्था भी आ जाती है।

अनंत भेद प्रमाण के द्वारा जाने नहीं जा सकते हैं क्योंकि अनंत का जानना अशक्य है। प्रत्यक्ष के द्वारा निर्विशेष भेद से रहित वस्तु ही जानी जाती है पुन: उसमें कल्पना ही भेदों को कल्पित कर देती है इसलिए अद्वैत ही तत्त्व है।

जैन -इस प्रकार से आप ब्रह्माद्वैतवादी और ज्ञानाद्वैतवादी दोनों की मान्यता प्रमाण से बाधित ही है। क्रिया और कारकरूप भेदों के अभाव में अर्थक्रिया नहीं हो सकती है क्योंकि वह असत् रूप है। ‘यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्’ जो अर्थक्रियाकारी है, वही परमार्थ सत् है ऐसा आप लोगों का ही कहना है।

‘अद्वैत शब्द अपने वाक्य से विपरीत (द्वैत शब्द) का अविनाभावी है, क्योंकि वह नञ् समास पूर्व वाले अखंड पदरूप है जैसे कि ‘अगौ’ इत्यादि पद। इत्यादि रूप अनुमान वाक्य से आपका अद्वैत बाधित हो जाता है। कर्म, उसका फल और परलोक आदि भेदों का भी विरोध हो जाता है।

भावार्थ-अद्वैत शब्द अपने वाच्य अर्थ से विपरीत अर्थ को कहने वाले द्वैत शब्द के बिना नहीं हो सकता है। जैसे-जैन के बिना अजैन शब्द नहीं बनता है। क्योंकि इसमें नञ् समास हुआ है-‘‘न जैन: अजैन:’’ जो जैन नहीं है वह अजैन है। ‘‘न द्वैत: अद्वैत:’’ जो द्वैत नहीं है वह अद्वैत है अर्थात् अद्वैत शब्द अपने विरोधी द्वैत के बिना नहीं होने से द्वैत के अस्तित्व को सिद्ध ही कर रहा है। उपर्युक्त प्रकार के अनुमान से भी अद्वैत सिद्ध नहीं होता है तथा जो कर्मफल परलोकादि रूप या ग्राम, नगर, चेतन, अचेतन आदि रूप से भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे भी विरुद्ध हो जावेंगे।

दूसरी बात यह है कि आप इस अद्वैत को हेतु से सिद्ध करते हो या हेतु के बिना ही। यदि हेतु से कहो तो द्वैत का प्रसंग आ जाता है क्योंकि साध्य और साधन की भेद रूप से ही प्रवृत्ति होती है अर्थात् अद्वैत साध्य को सिद्ध करने वाला साधन हेतु कहलाता है पुन: साध्य और साधन दो चीज हो जाने से द्वैत हो ही गया। यदि आप कहें कि हेतु के बिना ही अद्वैत को सिद्ध करते हैं तब तो वचनमात्र से ही आप अद्वैत को सिद्ध कर रहे हैं पुन: वचनमात्र से सभी लोगों का सभी इष्ट तत्त्व यथेष्ट रूप से सिद्ध हो जावेगा अर्थात् सभी लोग वचनमात्र से अपने-अपने सिद्धांत को सिद्ध कर लेंगे इसलिए अद्वैत एकांत में प्रमेय-प्रमाण का विषय सिद्ध नहीं होता है क्योंकि प्रमाण से विरोध आता है।

(सांख्य द्वारा मान्य अभेदैकांत पक्ष का खंडन)

सांख्य-हमारे द्वारा मान्य अभेद एकांत में प्रकृति आदि तत्त्व प्रमेय बन जाते हैं क्योंकि सर्वत्र आविर्भाव-तिरोभाव के निमित्त से प्रधान का परिणाम संभव है।

जैन -यह आपका कथन भी असंगत है क्योंकि अभेदरूप एकांत के मानने पर तो आविर्भाव और तिरोभाव ही असंभव है, पुन: किससे परिणाम होगा। प्रकृति और पुरुष के भी अभाव का प्रसंग आ जावेगा और अर्थक्रिया भी नहीं बन सकेगी। अभेदैकांत में अर्थक्रिया संभव ही नहीं है क्योंकि उसमें (अभेद में) क्रम का अभाव है।

इस प्रकार से भेदैकांत के समान अभेदैकांत में भी प्रमेयत्व का होना असंभव है इसलिए परमार्थ से चेतन-अचेतनरूप सभी प्रमेय द्रव्य पर्यायात्मक ही हैं, यह बात सुस्थित हो गई।

उपसंहार-कारिका के इस उत्तरार्ध में प्रमाण का विषय बतलाया गया है। आचार्य ने इस बात को स्पष्ट किया है कि परमार्थ से चेतन, अचेतन रूप सभी द्रव्य पर्यायस्वरूप हैं और वे ही ज्ञान के विषय हैं। सांख्य केवल द्रव्य को ही मानता है, बौद्ध केवल पर्याय को मानता है और यौगादि द्रव्य-पर्याय को मानकर भी इन्हें परस्पर में अत्यंत भिन्न मानते हैं। आचार्य ने इन्हें समझाया है कि इस एकांत से इस प्रकार केवल द्रव्य या केवल पर्याय अथवा परस्पर में निरपेक्ष दोनों ही ज्ञान के विषय नहीं होते हैं। इनमें क्रम और अक्रम के न होने से अर्थ क्रिया असंभव है और अर्थक्रिया के बिना ज्ञान के विषय नहीं हो सकते हैं। चूँकि क्रम से युगपत् से कार्य आदि का होना अनेकांत में ही संभव है इसलिए अनेकांतात्मक वस्तु ज्ञान से जानी जाती है।

इतना कहने के अनंतर वैशेषिक ने और नैयायिक ने कहा कि हम लोगों ने द्रव्य और पर्याय में सर्वथा भेद माना है फिर भी वे ज्ञान से जाने जाते हैं। आचार्य ने कहा कि यह तुम्हारा कथन गलत है। पहले तो तुम्हारे द्वारा मान्य द्रव्य, गुण आदि परस्पर में भिन्न सिद्ध ही नहीं होते हैं। क्या कहीं उष्णत्व के बिना अग्नि का अस्तित्व दिख रहा है ? अत: जब तुम्हारे मान्य तत्त्व ही सिद्ध नहीं हैं तब वे ज्ञान के विषय कैसे हो सकेंगे।

चार्वाक ने भी अपने द्वारा मान्य भूतचतुष्टय को तो भिन्न मान करके उन्हें प्रमाण का विषय चाहा किन्तु आचार्य ने उसके मान्य भूतचतुष्टय को तो एक अजीव तत्त्व कह करके चेतन तत्त्व को अलग सिद्ध कर दिया और समझाया कि जब तुम्हारी मान्यता ही गलत है, तब तुम्हारे मान्य तत्त्व ज्ञान से कैसे जाने जायेंगे।

ब्रह्माद्वैतवादी ने और ज्ञानाद्वैतवादी ने तथा सांख्य ने एकांत से सभी तत्त्वों में अभेद सिद्ध करना चाहा किन्तु आचार्य ने स्पष्ट बतला दिया कि न तो अद्वैत तत्त्व ही सिद्ध है और न प्रकृति पुरुष का एकत्व ही सिद्ध है अत: अभेदैकांत के मान्य तत्त्व भी ज्ञान के विषय नहीं हैं प्रत्युत् द्रव्य पर्यायात्मक पदार्थ ही प्रमाण के विषय हैं, ऐसा समझना।s