+ पुन: अनुमान प्रमाण क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर इस सूत्र को कहते हैं - -
लिंगात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात्।
लिंगिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धय:॥3॥
अन्वयार्थ : [साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात्] साध्य के साथ अविनाभाव के निर्णयरूप एक प्रधान लक्षण वाले [लिंगात्] हेतु से [लिंगिधी:] साध्य का ज्ञान [अनुमानं] अनुमान है और [हानादिबुद्धय:] हान-उपादान आदि बुद्धि का होना [तत् फलं] उसका फल है॥३॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(अनुमान का लक्षण)

लिंग-अविनाभाव संबंध जिसका हो वह लिंगी-साध्य कहलाता है। अनुमान साध्य के साथ अविनाभाव नियमरूप प्रधान लक्षण वाले साधन से उस साध्य का ज्ञान उत्पन्न होता है। उसी का नाम अनुमान है। वह अनुमान प्रमाण होता है।

इष्ट, अबाधित और असिद्ध को साध्य कहते हैं। अन्य प्रकार से न होने रूप नियम को अविनाभाव कहते हैं। उसके अभि-अभित: भिन्न देशकाल की व्याप्ति के निबोध-निर्णय को अभिनिबोध कहते हैं। वह है एक-प्रधान लक्षण-स्वरूप जिसका उसे अभिनिबोध एक लक्षण कहते हैं। ऐसे साध्य के साथ अविनाभाव नियमरूप प्रधान लक्षण वाले साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है वही अनुमान है।

प्रश्न-यह अनुमान तो तर्वâ का फल है, पुन: प्रमाण वैâसे होगा ?

उत्तर-उस अनुमान का फल हानादि बुद्धि है। परिहार को हान कहते हैं और ‘आदि’ शब्द से उपादान-ग्रहण और उपेक्षा को ग्रहण करना है। जो उन हानादि का विकल्प है वही उस अनुमान का फल होता है इसलिए फल का हेतु होने से वह अनुमान प्रमाण है, प्रत्यक्ष के समान। यहाँ यह अभिप्राय हुआ है।

(अनुमान को प्रमाण न मानने से दोष)

इसको अप्रमाण मानने पर प्रत्यक्ष ज्ञान को भी प्रमाणता नहीं बन सकेगी क्योंकि अगौणत्व आदि हेतु के प्रयोग नहीं बन सकते हैं। कहीं अभ्यस्त विषय में स्वत: प्रमाणता की सिद्धि होने पर भी उसकी (प्रत्यक्ष की) अनभ्यस्त विषय में अनुमान से ही प्रमाणता की सिद्धि होती है। परलोक आदि का निषेध भी अनुपलब्धि हेत से साध्य होने से अनुमान का अभाव करना उचित नहीं है अर्थात् चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानता है और परलोक आदि का निषेध करता है उसमें यह निषेध अनुपलब्धि हेतु से ही तो करता है।

अथवा पर के चैतन्य के ज्ञान में व्यवहार आदि लिंग से उत्पन्न हुआ अनुमान प्रमाण है इसलिए अनुमान को अप्रमाण नहीं कहना चाहिए क्योंकि युक्ति से विरोध आता है।

(निर्दोष हेतु का कथन)

शंका-पक्ष में धर्म, सपक्ष में तत्त्व और विपक्ष से व्यावृत्ति ये तीन रूप हेतु के लक्षण हैं। पुन: आपके द्वारा मान्य अविनाभाव रूप एक लक्षण उसका नहीं बन सकता है ? अन्यथा असिद्ध, विरुद्ध और अनैकांतिक दोषों का निराकरण नहीं हो सकेगा ?

समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि असाधारणस्वरूप ही लक्षण होता है। निश्चित ही ये तीन रूप असाधारण नहीं हैं। देखिये-‘वह श्याम है क्योंकि उसका पुत्र है’ इत्यादि हेत्वाभास में भी ये तीन रूप देखे जाते हैं। विवाद की कोटि में आये हुए उसके पुत्र में और अन्यत्र श्याम में ‘उस पुत्र होनारूप’ हेतु पाया जाता है और कहीं अश्याम में उसके पुत्रत्व का अभाव है।

बौद्ध-यहाँ पर विपक्ष से व्यावृत्ति होने रूप नियम का अभाव है अत: यह हेतु के लक्षण नहीं हैं।

जैन-ऐसा नहीं कहना। क्योंकि वही अविनाभाव उस हेतु का लक्षण हो जावे, पुन: अन्य ‘अंतर्गडु’ से (व्यर्थ के अंतर्विकल्पों से) क्या प्रयोजन है ? उसी को कहा भी है-

‘अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्’ जहां अन्यथानुपपत्ति-अन्य प्रकार से न होना यह अविनाभाव मौजूद है वहाँ इन तीनों से क्या प्रयोजन है ?

इसी कथन से ‘असत्प्रतिपक्षत्व और अबाधित विषयत्व उस हेतु के लक्षण हैं, इस मान्यता का भी खंडन हो गया है क्योंकि अविनाभाव के अभाव में ये लक्षण साध्य के गमक-बतलाने वाले नहीं हैं।

भावार्थ-बौद्ध ने हेतु के तीन रूप माने हैं-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति। आचार्य ने कहा कि हेतु में यदि ये तीन रूप हैं भी और अविनाभाव नहीं है तो वह हेतु अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर सकेगा। यदि अविनाभाव है और रूप नहीं है फिर भी वह साध्य को सिद्ध कर देगा। उसी प्रकार नैयायिक हेतु के इन्हीं तीन रूपों में असत्प्रतिपक्षत्व और अबाधित विषयत्व ये दो रूप और जोड़कर हेतु के पाँच रूप मानते हैं किन्तु इनके खंडन में भी यही बात है कि जब इन पाँचों के होने पर भी अविनाभाव के बिना हेतु गमक नहीं होता है और अविनाभाव लक्षण के होने पर ये हों चाहे न हों, हेतु साध्य को सिद्ध कर देता है। तब इन पाँचों के मानने से कोई प्रयोजन नहीं है।

(अविनाभाव के भेद)

उस अविनाभाव के दो भेद हैं-सहभाव और क्रमभाव।

सहचारी रूप और रस तथा व्यापक वृक्षत्व और शिंशिपात्व साध्य-साधन में सह अविनाभाव होता है।

पूर्वचर-उत्तरचररूप रोहिणी के उदय और कृत्तिका के उदय में तथा कार्य-कारणरूप धूम और अग्नि में क्रम अविनाभाव है।

भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने अनुमान का लक्षण बतलाते हुए साध्य एवं साधन का लक्षण भी बतलाया है। जो इष्ट, अबाधित और असिद्ध है वह साध्य है क्योंकि अनिष्ट और बाधित को कोई सिद्ध करना नहीं चाहेगा और असिद्ध विशेषण परवादी की अपेक्षा है क्योंकि स्वयं को तो सिद्ध है किन्तु अन्य को असिद्ध है, तभी तो उसे साध्य की कोटि में रखकर सिद्ध करते हैं। साधन-हेतु का अन्यथानुपपत्ति रूप किया है क्योंकि हेतु में तीनरूप या पाँचरूप होने पर भी यदि अन्य प्रकार से नहीं होने रूप ऐसा साध्य के साथ- अविनाभाव नहीं है तो वह साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता और यदि यह एक लक्षण मौजूद है तो भले ही अन्य रूप नहीं भी होवे तो भी वह हेतु साध्य को सिद्ध कर देता है।

अनंतर अविनाभाव के सहभावी और क्रमभावी ऐसे दो भेद करके उनके उदाहरण दिये हैं। जो व्याप्य और व्यापक में साथ ही रहे वह सहभावी है। जैसे-‘अयं वृक्ष: शिंशिपात्वात्’ यह वृक्ष है क्योंकि सीसम है। जो क्रम से हो, वह क्रमभावी है। जैसे-‘अयं पर्वतोऽग्निमान धूमवत्त्वात्’ यह पर्वत अग्नि वाला है क्योंकि धूम वाला है। ऐसे ही रूप और रस में सहभाव नियम और पूर्वचर-उत्तरचर में क्रमभाव नियम अविनाभाव पाया जाता है।