+ तादात्म्य और तदुत्पत्ति से अविनाभाव होता है इसलिए व्यापक का व्याप्य ही लिंग है और कारण का कार्य ही लिंग है। इस प्रकार विधि हेतु दो प्रकार के ही हैं। इस तरह सौगत के विसंवाद का निराकरण करते हुए कारण को भी लिंगत्व हेतुपना सिद्ध करते हैं -
चंद्रादेर्जलचंद्रादिप्रतिपत्तिस्तथाऽनुमा॥4॥
अन्वयार्थ : [तथा] उसी प्रकार [चंद्रादे:] चंद्र आदि से [जलचंद्रादिप्रतिपत्ति:] जल में चंद्र आदि का ज्ञान होना भी [अनुमा] अनुमान ज्ञान है॥४॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

चंद्रादि में आदि शब्द से सूर्य आदि को लेना चाहिए। इन चंद्र, सूर्य आदि कारण हेतु से स्वच्छ जल में चंद्र, सूर्य आदि के प्रतिबिंब का ज्ञान अनुमान ज्ञान है ऐसा स्वीकार करना चाहिए क्योंकि व्यभिचार दोष नहीं है। जैसे कि कार्यहेतु से कारण का ज्ञान होना अनुमान होता है। अविनाभाव गम्य और गमक भाव का कारण है, वह कार्यरूप अथवा अन्यरूप नहीं है क्योंकि अविकल सामथ्र्य वाले कारण कार्य को उत्पन्न करने के प्रति अव्यभिचारी हैं।

वृक्ष में आतप और छाया का व्यभिचार नहीं है अथवा मणि, मंत्र आदि से जिसकी शक्ति रोकी नहीं गई है, ऐसी अग्नि में स्फोट आदि का व्यभिचार नहीं है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं मानोगे तो कभी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। पुन: इस तरह तो अर्थक्रिया के अभाव से वस्तु का अभाव ही हो जायेगा।

भावार्थ-बौद्ध विधि साधक हेतु के दो भेद मानता है-स्वभाव हेतु और कार्य हेतु। यहाँ आचार्य ने जलचंद्र का दृष्टांत देकर कारण हेतु का समर्थन किया है। कुमारिलभट्ट की ऐसी मान्यता है कि जलादि वस्तुओं में जो मुख आदि के प्रतिबिंब दिखाई देते हैं, वे प्रतिबिंब नहीं हैं किन्तु हमारी नयनरश्मियां जल से टकरा कर लौटती हुई हमारे ही मुख को देखती हैं, उसे हम भ्रांतिवश जलगत बिंब का देखना समझ लेते हैं। न्यायकुमुदचंद्र में इसका ऊहापोह विशेष किया है और सिद्ध किया है कि वस्तुओं में दूसरी वस्तुओं का प्रतिबिंब पड़ सकता है।