+ अब पूर्वचर को भी हेतुपना सिद्ध करते हुए कहते हैं -
भविष्यत्प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात्॥
श्व आदित्य उदेतेति ग्रहणं वा भविष्यति॥5॥
अन्वयार्थ : [कृत्तिकोदयात्] कृत्तिकोदय हेतु से [भविष्यत् शकटं] भविष्य में होने वाला रोहिणी नक्षत्र [प्रतिपद्येत] जाना जाता है। [श्व: आदित्य: उदेता] आगे कल सूर्य उदित होगा [वा] अथवा [ग्रहणं] सूर्य का ग्रहण [भविष्यति] होवेगा [इति] इस प्रकार ज्ञान होता है॥५॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

सूत्र उपस्कार सहित ही होते हैं। उसी का व्याख्यान करते हैं। ‘शकट-रोहिणीनक्षत्र’ धर्मी हैं, ‘मुहूर्त के अंत में होना’ यह साध्य धर्म है, क्यों ? क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है यह हेतु अर्थात् ‘मुहूर्तांते शकटं उदेष्यति कृत्तिकोदयात्१’’ एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय हो रहा है, यह पूर्वचर हेतु है।

यहाँ कृत्तिकोदय हेतु रोहिणी के उदय का कार्य अथवा स्वभाव नहीं है। केवल अविनाभाव के बल से अपने उत्तरचर का ज्ञान कराता ही है, इस प्रकार से सभी लोग मानते हैं। उसी प्रकार ‘कल प्रात: आदित्यसूर्य उदित होगा क्योंकि आज सूर्य का उदय हो रहा है’ यह जाना है। अथवा ‘कल ग्रहण-राहु स्पर्श होगा, क्योंकि ज्योतिर्विद के गणित के नियम से जाना जाता है’ ऐसा ज्ञान होता है। इन सभी में व्यभिचार दोष नहीं है। क्रमभावी नियम अविनाभाव कार्य कारण के समान पूर्वचर और उत्तरचर में भी अविरुद्ध है इसलिए पक्षधर्मत्व आदि के बिना भी हेतु अन्यथानुपपत्ति की सामथ्र्य से साध्य का ज्ञान करा देता है।

इस कथन से ‘कार्य, कारण और स्वभाव के भेद से हेतु के तीन ही भेद हैं’ इस सौगत की मान्यता का भी निराकरण कर दिया गया है और इसी से ही ‘कारण, कार्य, संयोगी, समवायी और विरोधी ये पाँच प्रकार के हेतु हैं’ इस नैयायिक मत का भी खंडन हो गया है क्योंकि उपर्युक्त कहे हुए हेतु (पूर्वचर आदि) इनमें अंतर्भूत नहीं हो सकते हैं। मात्रा मात्रिक, कार्य, विरोध, सहचारी, स्वामी, बध्य-घातक और संयोगी के भेद से सात प्रकार का हेतु है। इस प्रकार सांख्य द्वारा कल्पित हेतु की संख्या का नियम भी संभव नहीं है, ऐसा समझना चाहिए।

विशेषार्थ-कारण से कार्य का अनुमान होना। जैसे-जलते हुए र्इंधन को देखकर भस्म होवेगा ऐसा समझना, यह कारण हेतु है।

कार्य से कारण का अनुमान, जैसे-नदी पूर (प्रवाह) के देखने से वृष्टि का ज्ञान होना, यह कार्य हेतु है। संयोगी के देखने से संयोगी का अनुमान, जैसे-धूम के देखने से अग्नि का ज्ञान, यह संयोगी हेतु है। समवायी के देखने से समवायी का अनुमान, जैसे-शब्द से आकाश का अनुमान, यह समवायी हेतु है।

विरोधी के देखने से दूसरे विरोधी का अनुमान जैसे विस्पूâर्जित (उत्तेजित) नकुल के देखने से निकट के सर्प का ज्ञान, यह विरोधी हेतु है। इन पाँचों हेतुओं में पूर्वचर आदि हेतु गर्भित नहीं हो सकते हैं अत: यह संख्या ठीक नहीं है।

इनमें यदि अविनाभाव नियम नहीं है तो ये हेत्वाभास हैं, अव्याप्ति आदि दोषों से दूषित हैं तथा संयोगी और समवायी हेतु तो सिद्ध ही नहीं है।

सांख्य ने सात हेतु माने हैं। उनका लक्षण-(१) मात्रामात्रिकानुमान, जैसे-चक्षु के ज्ञान का अनुमान। (२) कार्य से कारण का अनुमान, जैसे-विद्युत् देखने से कारण का ज्ञान। (३) प्रकृतिविरोधी देखने से भिन्न विरोधी का अनुमान, जैसे-मेघ नहीं बरसेगा क्योंकि उल्टी हवा चल रही है। (४) सहचरानुमान, जैसे-दो चकवे पक्षी में से एक को देखने से दूसरे का ज्ञान। (५) स्व (धन) देखने से स्वामी का अनुमान, जैसे-छत्र विशेष से राजा का अनुमान। (६) बध्य-घातानुमान, जैसे-प्रसन्न नकुल को देखने से ‘इसने सर्प को मारा है’ ऐसा ज्ञान। (७) संयोगी अनुमान, जैसे-समुदाय के मध्य पारिव्राजक होने पर ‘पारिव्राजक कौन है’ ऐसा संशय होने पर त्रिदण्ड के देखने से ‘यह पारिव्राजक है’ ऐसा ज्ञान। इन सात हेतु से अनुमान ज्ञान होता है।

यह मान्यता भी गलत है क्योंकि कृतिकोदयादि हेतुओं का इनमें अंतर्भाव न होने से संख्या ठीक नहीं है तथा यदि अविनाभाव संबंध इनमें नहीं है तो ये अहेतु ही हैं, ऐसा समझना।