+ अब दृश्यानुपलब्धि ही निषेध साधन है, अदृश्यानुपलब्धि नहीं है, इस एकांत का निराकरण करते हुए कहते हैं -
अदृश्यपरचित्तादेरभावं लौकिका विदु:।
तदाकारविकारादेरन्यथानुपपत्तित:॥6॥
अन्वयार्थ : [अदृश्य पर चित्तादे:] नहीं दिखने योग्य ऐसे अन्य के चैतन्य आदि के [अभावं] अभाव को [लौकिका: विदु:] लौकिकजन भी जानते हैं [तदाकारविकारादे:] क्योंकि उसके आकार [उष्णस्पर्श, उच्छ्वास] आदि के विकार [अन्यथानुपपत्तित:] अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है॥६॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(अदृश्यानुपलब्धि हेतु की सिद्धि)

तात्पर्यवृत्ति-पर-आतुर के जनों के चित्त-चैतन्य आदि शब्द से भूत, ग्रह, व्याधि आदि ग्रहण किये जाते हैं। ये अदृश्य-हम, आपको दिखने योग्य नहीं हैं क्योंकि इनका स्वभाव सूक्ष्म है। ऐसे अदृश्यपने के चैतन्यभूत, ग्रह व्याधि आदि के अभाव को लौकिकजन, आबाल, गोपाल आदि भी जानते हैं पुन: परीक्षकजनों की तो बात ही क्या ? यहाँ ‘अपि’ को ग्रहण ले लेना चाहिए।

कैसे जानते हैं ? उन पर के चैतन्य आदि के कार्यभूत अविनाभावी उष्ण स्पर्शादि लक्षण को ‘आकार’ कहते हैं। उस आकार का विकार-अन्य प्रकार होना आदि शब्द से वचन विशेष आरोग्य श्वासोच्छ्वास आदि होने रूप हेतु से जान लेते हैं। अन्यथा-पर चैतन्यादि के अभाव बिना कैसे जानते हैं ? अर्थात् किसी रोगी आदि के शरीर को निश्चेष्ट, उच्छ्वासरहित और ठंडा देखकर जान लेते हैं कि इसमें चैतन्य का अभाव हो गया है तथा किसी रोगी के वचन विशेष और आरोग्य को देखकर यह भी जान लेते हैं कि इसमें भूत या पिशाच का प्रकोप नहीं है अथवा रोग का अभाव हो गया है। इन बातों को आबाल-गोपाल भी जान लेते हैं फिर परीक्षकजनों की तो बात ही क्या है ?

पर जीवों के भूत व्याधि आदि दिखते तो हैं नहीं क्योंकि वे सूक्ष्म हैं। अदृश्य का अभाव सिद्ध करना भी अशक्य नहीं है अन्यथा संस्कार करने वाले-जलाने वालों की पातकी कहना पड़ेगा तथा चैतन्य आदि होने पर भी विश्वास नहीं हो सकेगा। जिस प्रकार उष्ण, स्पर्श आदि आकार की उपलब्धि होने से पर के चैतन्य आदि का भाव (होना) सिद्ध किया जाता है। उसी प्रकार उष्ण, स्पर्शादि आकार विशेष की उपलब्धि न होने से पर के चैतन्य आदि का अभाव भी सिद्ध किया जाता है।

शंका-कार्य की उपलब्धि से कारण का अस्तित्व सिद्ध करना सुघटित है किन्तु कार्य की उपलब्धि न होने से कारण का अभाव सिद्ध करना शक्य नहीं है, क्योंकि कारण का कार्य के साथ अविनाभाव नहीं है।

समाधान-नहीं, इस प्रकार के निर्बंध का अभाव है। कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ जो कारण है, उसका कार्य के साथ अविनाभाव सुघटित है। समर्थ कारण के होने पर कार्य अवश्य ही होता है। अन्यथायदि ऐसा न मानोगे तो कभी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। इस प्रकार तो सभी में अर्थक्रिया को करने का अभाव होने से शून्यता का प्रसंग आ जावेगा।

(हेतु के भेद-प्रभेद)

इसलिए उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से हेतु के दो भेद हैं। उनमें विधि को साध्य करने में उपलब्धि हेतु के छह भेद हैं और प्रतिषेध को साध्य करने में भी छह भेद हैं।

अनुपलब्धि के प्रतिषेध को सिद्ध करने में सात भेद हैं और विधि के सिद्ध करने में तीन भेद सुव्यवस्थित हैं। उन सभी हेतुओं में अविनाभाव नियम निश्चयरूप एक लक्षण के बल से गमकत्व-सिद्ध है अर्थात् ये सभी हेतु अविनाभाव नियमरूप निश्चित एक लक्षण के बल से अपने-अपने साध्य को सिद्ध करने वाले हैं।

शंका-अदृश्यानुपलब्धि हेतु से अभाव को सिद्ध करने में संशय ही बना रहेगा ?

समाधान-नहीं, इस प्रकार से तो उपलब्धि हेतु से अपने चैतन्य के अभाव में भी संशय का प्रसंग आ जावेगा।

दूसरी बात यह है कि बहिरंग और अंतरंग निरंश तत्त्व प्रमाण की पदवी पर आरोहण नहीं कर सकता है। क्रम और अक्रम से अनेक स्वभाव वाले बहिरंग और अंतरंगरूप चेतन-अचेतन तत्त्व में प्रमाण की प्रवृत्ति होती है इसलिए प्रमाण से बाधित विषय वाला होने से बौद्ध के द्वारा परिकल्पित सभी सत्त्व आदि हेतु अविंâचित्कर अभाव विरुद्ध ही हो जाते हैं। इस तरह उनके मन में अनुमान को प्रमाणता कैसे हो सकेगी ?

विशेषार्थ-किसी भी वस्तु के अभाव को अनुपलब्धि कहते हैं। उसके दो भेद हैं-दृश्यानुपलब्धि और अदृश्यानुपलब्धि। दिखने योग्य पदार्थ के अभाव को दृश्यानुपलब्धि और नहीं दिखने योग्य पदार्थ के अभाव को अदृश्यानुपलब्धि कहते हैं। जैसे-कमरे में पुस्तक थी, किसी ने वहाँ से हटा दी तब उस कमरे में पुस्तक की दृश्यानुपलब्धि है तथा कमरे में भूत था, चला गया, उस भूत के अभाव को या पर की आत्मा, ज्ञान, व्याधि आदि भी दिखने योग्य नहीं है, उनके अभाव को अदृश्यानुपलब्धि कहते हैं।

यहाँ बौद्ध दृश्यानुपलब्धि को ही मानता है उसके एकांत का निराकरण करने के लिए श्री भट्टाकलंक देव ने कहा कि अन्य के चैतन्य आदि अदृश्य हैं, उनका अभाव लौकिक जन भी मानते हैं। उनके श्वांस आदि को नहीं देखकर कह देते हैं कि इनमें से जीव निकल गया है अन्यथा उसको जलाने वाले को पापी, मनुष्यघाती कहना पड़ेगा परन्तु ऐसा तो है नहीं, इसलिए अदृश्यानुपलब्धि भी सिद्ध है।

पुन: किसी ने कहा कि नदीपूर आदि कार्य देखकर मेघ वर्षा आदि कारण को जानना ठीक है किन्तु किसी कार्य के अभाव में कारण को जानना असंभव है। तब श्री वृत्तिकार आचार्य ने कहा कि ऐसा नहीं है, देखो! अश्रद्धान रूप कार्य के अभाव में मिथ्यात्व रूप कारण का अभाव जाना जाता है तथा मुख का कड़ुवापन आदि के अभाव में पित्त ज्वर आदि के अभाव को जाना जाता है। बस! हेतु में साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित होना चाहिए।

अनंतर हेतु के बाईस भेद किये हैं -

परीक्षामुख ग्रन्थ में श्री माणिक्यनंदी आचार्य ने इनका स्पष्टीकरण किया है

हेतु के उपलब्धि और अनुपलब्धि से दो भेद हैं। उपलब्धि के दो भेद हैं-अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि। अनुपलब्धि के भी दो भेद हैं-अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि।

अविरुद्धोपलब्धि के व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर के भेद से छह भेद हैं-

(१) शब्द परिणामी होता है क्योंकि वह किया हुआ है, यह अविरुद्धव्याप्योपलब्धि का उदाहरण है।

(२) इस प्राणी में बुद्धि है क्योंकि बुद्धि के कार्य, वचन आदि पाये जाते हैं, यह अविरुद्ध कार्योपलब्धि है।

(३) यहाँ छाया है क्योंकि छत्र मौजूद हैं, यह अविरुद्ध कारणोपलब्धि है।

(४) एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है, यह पूर्व चरोपलब्धि है।

(५) एक मुहूर्त के पहले भरणी नक्षत्र का उदय हो चुका है क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है, यह उत्तर चरोपलब्धि है।

(६) इस बिजौरे में रूप है क्योंकि रस पाया जाता है यह सद्चरोपलब्धि का उदाहरण है।

विरुद्धोपलब्धि के भी ऐसे ही छह भेद हैं-

(१) यहाँ शीत स्पर्श नहीं है क्योंकि उससे विरुद्ध अग्नि की व्याप्य उष्णता मौजूद है, यह विरुद्ध व्याप्योपलब्धि का उदाहरण है।

(२) यहाँ शीत स्पर्श नहीं है क्योंकि उससे विरुद्ध अग्नि का कार्य धूम मौजूद है यह विरुद्ध कार्योपलब्धि है।

(३) इस जीव में सुख नहीं है क्योंकि उससे विरुद्ध दुख का शल्य मौजूद है, यह विरुद्ध कारणोपलब्धि है।

(४) एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय नहीं होगा क्योंकि उसके विरुद्ध अश्विनी नक्षत्र के पूर्वचर रेवती नक्षत्र का उदय हो रहा है, यह विरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि है।

(५) एक मुहूर्त के पहले भरणी का उदय नहीं हुआ है क्योंकि अभी पुण्य का उदय हो रहा है, यह विरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि है।

(६) इस दीवाल में उस तरफ के भाग का अभाव नहीं है क्योंकि इस तरफ का भाग दिख रहा है, यह विरुद्ध सहचरोपलब्धि का उदाहरण है।

अविरुद्धानुपलब्धि के प्रतिषेध में सात भेद हैं-स्वभाव, व्यापक, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर।

(१) इस भूतल पर घट नहीं है क्योंकि वह दिखता नहीं है, यह अविरुद्ध स्वभावानुपलब्धि है।

(२) यहाँ सीसम नहीं है क्योंकि उसके व्यापक वृक्ष का अभाव है, यह अविरुद्ध व्यापकानुपलब्धि है।

(३) यहाँ बिना सामथ्र्य रुकी अग्नि नहीं है क्योंकि धूम नहीं पाया जाता है, यह अविरुद्ध कार्यानुपलब्धि है।

(४) यहाँ धूम नहीं है क्योंकि अग्नि नहीं है, यह अविरुद्ध कारणानुपलब्धि है।

(५) एक मुहूर्त बाद रोहिणी का उदय नहीं होगा क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय नहीं हुआ है, यह अविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि है

(६) एक मुहूर्त पहले भरणी का उदय नहीं हुआ था क्योंकि अभी कृतिका का उदय नहीं हुआ है, यहाँ अविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि हेतु है।

(७) इस तराजू में ऊँचापन नहीं है क्योंकि नीचेपन का अभाव है, यह अविरुद्ध सहचरोपलब्धि हेतु है।

विरुद्धानुपलब्धि के विधि में तीन भेद हैं-कार्य, कारण और स्वभाव।

(१) इस प्राणी में कोई रोग है क्योंकि नीरोग चेष्टा नहीं पायी जाती है, यह विरुद्ध कार्यानुपलब्धि है।

(२) इस प्राणी में दुख है क्योंकि इष्ट संयोग का अभाव है, यह विरुद्ध कारणानुपलब्धि है।

(३) वस्तु अनेकांतात्मक है क्योंकि उसमें नित्य आदि एकांत स्वरूप का अभाव है, यह विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि हेतु का उदाहरण है।

इस प्रकार से हेतु के बाईस भेदों का वर्णन करके आचार्य ने कहा है कि गुरु परम्परा से और भी जो हेतु संभव हो सकते हों, उनका पूर्वोक्त साधनों में ही अंतर्भाव करना चाहिए।