+ स्याद्वादियों के यहाँ भी अनेकांतात्मक तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होने से अनुमान प्रमाण की विफलता का प्रसंग आ जाता है, इस प्रकार की आशंका होने पर आचार्य अगली कारिका को कहते हैं -
वीक्ष्याणुपारिमांडल्यक्षणभंगाद्यवीक्षणं॥
स्वसंविद्विषयाकारविवेकानुपलंभवत्॥7॥।
अन्वयार्थ : [वीक्ष्याणुपारिमांडल्य क्षण भंगाद्यवीक्षणं] स्थूल के अणुओं की गोलाई और क्षण-क्षण में नाश होना आदि दिखते नहीं हैं [स्वसंविद्विषयाकार विवेकानुपलम्भवत्] जैसे स्वसंवेदन के विषयाकार के भेद की उपलब्धि नहीं होती है॥७॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

उपलब्धि लक्षण प्राप्त स्थूल को ‘वीक्ष्य’ कहते हैं। उसके सूक्ष्म अवयवों को ‘अणु’ कहते हैं। उन अणुओं का वर्तुलाकार परिमंडल कहलाता है। ये अणु परस्पर में भिन्न-भिन्न रहते हैं। क्षण-क्षण में भंग-नाश होना क्षण भंग है अर्थात् एक समय में नष्ट हो जाना। क्षणभंगादि में आदि शब्द से कार्य- कारण की सामथ्र्य आदि को लेना चाहिए। इनका अवीक्षण-प्रत्यक्ष से उपलब्ध न होना अर्थात् निश्चित ही सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से वेक्षणभंग आदि नहीं दिखते हैं किन्तु उसके द्वारा स्थिर स्थूल साधारण आकार ही देखा जाता है। योगी प्रत्यक्ष ही उनको (क्षणवर्ती पर्यायों को) देखनें में समर्थ होता है इसलिए वहाँ-उस सूक्ष्म परमाणु आदि के आकार को और क्षणिक आदि को जानने में अनुमान ही जागता-प्रगट होता है। वही उनके निर्णय की सामथ्र्य रखता है।

सत्त्वात्, प्रमेयत्वात्, अर्थक्रियाकारित्वात् इत्यादि हेतुओं में कथंचित् अनेक, अनित्यादि धर्म व्याप्य होने से उनका अविनाभाव प्रसिद्ध है। इस प्रकृत अर्थ में दृष्टांत देते हैं-जैसे स्वसंवेदन के विषयाकार- घटादि आकार से विवेक-व्यावृत्ति की उपलब्धि नहीं होती है अर्थात् प्रत्यक्ष से ग्रहण नहीं होता है। जिस प्रकार आप सौगत के यहाँ ज्ञान के स्वरूप प्रतिभासन में बाह्य अर्थाकार का अभाव, विद्यमान होने से भी प्रतिभासित नहीं होता है क्योंकि उस ज्ञान में उस प्रकार के सामथ्र्य का अभाव है। उसी प्रकार बहिरंग- अंतरंग, अणु के वर्तुलाकार आदि प्रत्यक्ष से प्रतिभासित नहीं होते हैं, क्योंकि वैसी शक्ति का अभाव है इसलिए अनेकांत मत में अनुमान सफल है, यह अर्थ हुआ।

भावार्थ-‘अदृश्यपरचित्तादे’ इत्यादि कारिका की टीका में श्री अभयचंद्रसूरि ने अंत में कहा कि बौद्ध के यहाँ प्रमाण से बाधित विषय के होने से ‘सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्’ इत्यादि अनुमानों में हेतु अकिंचित्कर या विरुद्ध ही हैं इसलिए उनके मत में अनुमान प्रमाण नहीं बनता है। तब उसने भी कह दिया कि आप स्याद्वादियों के यहाँ भी अनेकांतात्मक तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है पुन: आपके यहाँ भी अनुमान प्रमाण मानना व्यर्थ ही रहा।

तब आचार्यदेव ने उत्तर दिया कि आपके द्वारा मान्य अणु आदि के आकार और क्षण-क्षण का विनाश भी तो प्रत्यक्ष से ही नहीं दिख रहा है। उसको जानने के लिए अनुमान की आवश्यकता है ही है।

अर्थात् बौद्ध का कहना है कि प्रत्येक दिखने योग्य स्थिर स्थूल घट आदि वस्तु में जितने भी परमाणु हैं वे प्रत्येक वर्तुलाकार हैं और परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं तथा प्रत्येक पदार्थ एक क्षण ठहरता है। अनंतर क्षण में ही नष्ट हो जाता है तथा कार्य और कारण की शक्ति भी दिखती नहीं है।

आचार्यों का कहना है कि इन अदृश्य वस्तुओं के जानने के लिए अनुमान प्रमाण मानना बहुत जरूरी है क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान से उन सूक्ष्मादि का प्रतिभासन नहीं होता है प्रत्युत् स्थिर, स्थूल आदि का और अनेक क्षण रहने वाली वस्तु का ही ज्ञान होता है।