अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-अनुमान ज्ञान को निश्चयात्मा कहते हैं। विकल्प को व्यवसाय निश्चय और अविकल्प को अव्यवसाय कहते हैं। बाह्य-घट पटादि के विषय में विकल्पात्मक और अंत:स्वरूप में निर्विकल्पात्मक अनुमान ज्ञान पुन: वैâसे सिद्ध हो सकता है अर्थात् सिद्ध नहीं हो सकता है। प्रश्न-कैसे सिद्ध नहीं होता है ? उत्तर-स्वत: अर्थात् स्वसंवेदन से सिद्ध नहीं होता है ? क्योंकि वह स्वसंवेदन निर्विकल्प होने से विकल्प को विषय नहीं करता है। ‘‘सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं स्वसंवेदनम्’’ अर्थात् सभी ज्ञान क्षणों का स्वरूप संवेदन ही स्वसंवेदन है ऐसा आप बौद्धों का वचन है। केवल स्वत: ही नहीं किंतु पर से भी कैसे सिद्ध होगा ? अर्थात् पर-विकल्पांतर से भी सिद्ध नहीं होता है। प्रश्न-पर से क्यों नहीं सिद्ध होता है ? उत्तर-अनवस्था आ जाने से सिद्ध नहीं होता है अर्थात् विकल्पात्मक अनुमान को सिद्ध करने के लिए एक दूसरा विकल्प ज्ञान लाये, पुन: उसकी सिद्धि के लिए तीसरा विकल्पज्ञान लाना पड़ेगा क्योंकि वह भी विकल्प को विषय न करने से स्वत: सिद्ध नहीं है और उस तीसरे को सिद्ध करने के लिए पुन: एक विकल्पांतर की कल्पना करनी पड़ेगी। इस प्रकार से बहुत दूर जाकर कहीं पर भी उपरति न होने से अनवस्था आ जाती है इसलिए अनुमान की सिद्धि न होने से बौद्ध के द्वारा कल्पित प्रमाण की संख्या (दो) का नियम भी कैसे घटित हो सकेगा, अर्थात् नहीं हो सकेगा यह भाव हुआ। भावार्थ-बौद्धों का कहना है कि अनुमान ज्ञान निश्चयात्मक है और वह बाह्य पदार्थों का निश्चय करता है किन्तु अपने स्वरूप में निर्विकल्प है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि ऐसा अनुमान ज्ञान स्वत: तो सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि स्वसंवेदन में तो वह निर्विकल्प ही रहा तथा पर से सिद्धि मानने से तो उस पर की सिद्धि पर से पुन: पर की सिद्धि पर से मानते चलिए, कहीं भी विराम न होने से अनवस्था आ जाती है अत: आप बौद्धों के यहाँ अनुमान ज्ञान के सिद्ध न होने से आपके द्वारा मान्य प्रमाण की दो संख्या का नियम समाप्त हो जाता है। |