अभयचन्द्रसूरि :
यहाँ पर ‘यत्’ इस पद का अध्याहार करना चाहिए। प्रसिद्ध प्रमाण से निश्चित गोरूप अर्थ के सादृश्य धर्म से उत्पन्न हुआ साध्य-ज्ञेयरूप उस सादृश्य धर्म से विशिष्ट गवयलक्षण को सिद्ध करता है अर्थात् ‘गाय के सदृश गवय है’ इस प्रकार का जो ज्ञान है वह उपमान नाम का भिन्न प्रमाण है। यदि आप नैयायिक इस तरह उपमान को भिन्न प्रमाण स्वीकार करते हैं तब तो आपको उस गाय के रूप से वैधम्र्य से प्रसिद्ध हुई अर्थ की विसदृशता से उत्पन्न हुआ और साध्य को सिद्ध करने वाला जो ज्ञान है वह ‘गाय से विलक्षण महिष है’ इस प्रकार का ज्ञान कौन सा प्रमाण है ? अर्थात् उसका क्या नाम है ? इसको भी आप उपमान ही नहीं कह सकते क्योंकि उसके लक्षण का अभाव है। इसे आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाण भी नहीं कह सकते, क्योंकि यह भिन्न विषय वाला है और भिन्न सामग्री से उत्पन्न हुआ है। उसी प्रकार से संज्ञी-वाच्य प्रतिपादन करना, विवक्षित संज्ञा के विषय रूप से संकलन करना; जैसे-‘यह वृक्ष है’। ऐसा ज्ञान, वह भी किस नाम वाला प्रमाण होगा ? अर्थात् उपमान प्रमाण को पृथक् मानने से तो आपको अनेकों प्रमाण मानने पड़ेंगे। संज्ञा और संज्ञी (नाम-नाम वाले) के संबंध का ज्ञान अप्रमाण भी नहीं है अन्यथा आगम प्रमाण का लोप हो जावेगा और उपमान भी अप्रमाण हो जावेगा। भावार्थ-नैयायिक उपमान को एक पृथक् प्रमाण मानता है किन्तु आचार्यों का कहना है कि इस तरह तो विसदृश धर्म आदि के निमित्त से हुए ज्ञानों को आप भिन्न -भिन्न प्रमाण मानते चलिए, यह दूषण दिया है। वास्तव में हम जैनों के यहाँ तो इस उपमान आदि प्रमाणों को प्रत्यभिज्ञान प्रमाण में गर्भित किया है और सादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि नाम दिये हैं इसलिए हमारे यहाँ कोई दूषण नहीं आता है। |