+ इसी उपर्युक्त कथन का ही समर्थन करते हैं -
प्रत्यक्षार्थांतरापेक्षा संबंधप्रतिपद्यत:॥
तत्प्रमाणं न चेत्सर्वमुपमानं कुतस्तथा॥11॥
अन्वयार्थ : [यत:] जिस ज्ञान से [प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा] प्रत्यक्ष से भिन्न अर्थ की अपेक्षा रखने वाला [संबंध प्रतिपत्] वाच्य-वाचक भावरूप संबंध का ज्ञान होता है [चेत् तत् प्रमाणं न] यदि वह ज्ञान प्रमाण नहीं है, तो [तथा सर्वं उपमानं कुत:] उसी प्रकार से सभी उपमान प्रमाण कैसे होंगे ?॥११॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष अर्थांतर-उससे भिन्न अर्थ की अपेक्षा करने वाला वाच्य- वाचक भावरूप संबंध का ज्ञान होता है अर्थात् प्रकृत शब्द लक्षण से भिन्न अर्थ अर्थांतर है, ‘वृक्षादि’ प्रत्यक्ष अर्थांतर हैं, उनकी अपेक्षा जिस ज्ञान को है, वह प्रत्यक्ष अर्थांतर की अपेक्षा वाला ज्ञान कहलाता है। वह ज्ञान यदि प्रमाण न होवे, तब तो सभी नैयायिक, मीमांसक आदि के द्वारा कल्पित सभी उपमान कैसे प्रमाण हो सकते हैं ? क्योंकि दोनों जगह कोई अंतर नहीं है। सादृश्य संबंधी ज्ञान प्रमाण है किन्तु वाच्य वाचक संबंधी ज्ञान प्रमाण नहीं है, इस प्रकार का अंतर तो है नहीं। इसलिए संज्ञा और संज्ञी का संकलन-जोड़ रूप ज्ञान भी एक भिन्न प्रमाण हो ही जायेगा इसलिए आप लोगों के द्वारा मान्य प्रमाण की संख्या का नियम कैसे बनेगा ?