+ न केवल ये ही प्रमाणांतर है अपितु अन्य भी हैं, ऐसा दिखलाते हैं -
इदमल्पं महद् दूरमासन्नं प्रांशु नेति वा॥
व्यपेक्षात: समक्षेऽर्थे विकल्प: साधनांतरं॥12॥
अन्वयार्थ : [इदं अल्पं महत्] यह अल्प है, बहुत है, [दूरं आसन्नं] दूर है, निकट है, [प्रांशुं वा न ति] यह दीर्घ है अथवा दीर्घ नहीं है-ह्रस्व है, इस प्रकार [व्यपेक्षात:] अपेक्षा से [समक्षे अर्थे] प्रत्यक्ष अर्थ में [विकल्प:] जो विकल्प हैं [साधनांतरं] वे प्रमाणांतर हैं॥१२॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-यह इससे अल्प है, यह इससे महान् है, यह इससे दूर है, यह इससे आसन्न है, यह इससे दीर्घ है, यह इससे दीर्घ नहीं है। यहाँ कारिका में ‘वा’ शब्द परस्पर समुच्चय अर्थ में है। किस विषय में ? प्रत्यक्ष पदार्थ में व्यपेक्षा से-विरुद्ध-प्रतिपक्ष की अपेक्षा से कथंचित अजहद्वृत्ति-कथंचित् अपने स्वभाव को न छोड़ते हुए जो विकल्प-निश्चय होता है, वह भिन्न प्रमाण है।

इस प्रकार अल्प महत्व आदि का जोड़रूप ज्ञान पर के द्वारा मान्य प्रमाण की संख्या के नियम को विघटित कर देता है।

[शंका-आप स्याद्वादियों के यहाँ भी इस प्रकार प्रमाण की संख्या का विधान वैâसे नहीं होता है ?

समाधान-हमारे यहाँ तो परोक्ष के भेदरूप प्रत्यभिज्ञान में सादृश्य संकलन आदि सभी का अंतर्भाव हो जाता है।

शंका-अर्थापत्ति को प्रमाणांतर मानना ही चाहिए , क्योंकि उसका कहीं पर भी अंतर्भाव नहीं हो सकता है ?

समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अनुमान में उसका अंतर्भाव हो जाता है। नदीपूर आदि से अनंतर वृष्टि आदि के अविनाभावी रूप से लिंगत्व है और लिंग से उत्पन्न हुआ ज्ञान अनुमान है।

शंका-पक्षधर्मत्व का अभाव होने से उसको लिंगपना नहीं है ?

समाधान-नहीं, पक्ष में जिसका धर्म नहीं है ऐसा अपक्ष धर्म वाला भी हेतु समर्पित है। गम्य गमक भाव निमित्तक ही अविनाभाव है, अन्य नहीं है और वह अविनाभाव यहाँ भी है इसलिए अर्थापत्ति अनुमान ही है। इस कथन से अभाव भी एक भिन्न प्रमाण है’ ऐसा मानने वालों का भी खंडन कर दिया गया है क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण में ही भावाभावात्मक वस्तु को विषय करने से वैसा व्यवहार होता है। ऐसा तो है नहीं कि भाव को ग्रहण करने वाला प्रमाण अथवा अभाव को विषय करने वाला प्रमाण कोई हो क्योंकि उससे अर्थक्रिया नहीं हो सकती है।

यदि अभाव स्वतंत्र होता तब तो उसको ग्रहण करने वाला एक भिन्न प्रमाण कल्पित करना ही चाहिए। उसमें ‘घट नहीं है’ इस प्रकार भाव के आश्रित की उपलब्धि होती है। भाव को ग्रहण करने वाले के द्वारा ही उसका ग्रहण होता है।

दूसरी बात यह है कि भावग्राहक ज्ञान से अभावग्राहक ज्ञान अन्य ही है। ऐसा मानने पर तो सामान्य ग्राहक ज्ञान से विशेष ग्राहक ज्ञान और नित्यत्वग्राहक ज्ञान से अनित्यत्वग्राहक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न प्रमाण ही हो जावेंगे और इस प्रकार से तो कहीं पर भी अवयवी की सिद्धि नहीं हो सकेगी इसलिए ‘अभाव’ नाम का कोई भिन्न प्रमाण नहीं है क्योंकि उसके विषय का अभाव है, केशों में मच्छर ज्ञान के समान। इसलिए यहाँ यह सुस्थित हो गया कि ‘स्मृति आदि ज्ञान परोक्ष हैं क्योंकि वे अविशद ज्ञान हैं और इसी परोक्ष में ही सकल अस्पष्ट ज्ञानों का अंतर्भाव हो जाता है।

भावार्थ-यह छोटा है, यह बड़ा है। इन दोनों ज्ञानों में एक-दूसरे की अपेक्षा है। जैसे-आंवले की अपेक्षा बेल बड़ा है और बेल की अपेक्षा आंवला छोटा है, यहाँ अपेक्षा से होने वाला ज्ञान भी संकलनजोड़ रूप है इसे भी एक अलग प्रमाण कहना चाहिए। वैसे ही दूर-निकट के जोड़रूप, ह्रस्व-दीर्घ के जोड़रूप, आदि अनेकों भिन्न-भिन्न प्रमाण मानने चाहिए और उनके नाम बताने चाहिए। तब आप नैयायिक, मीमांसक आदि की मान्य संख्या खत्म हो जाती है तब उन लोगों ने कहा कि यह दोष तो आप जैनों को भी संभव है, किन्तु आचार्य ने कहा कि हमारे यहाँ परोक्ष के अंतर्गत एक प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है जिसमें ये सभी भेद सम्मिलित हो जाते हैं।

मीमांसक ने कहा कि ‘अर्थापत्ति’ को तो अलग प्रमाण मानना ही पड़ेगा। अर्थापत्ति-इसके होने पर होना, नहीं होने पर नहीं होना, जैसे-देवदत्त मोटा है किन्तु दिवस में नहीं खाता है, मतलब रात्रि में खाता है, इसे अर्थापत्ति कहते हैं। यह अनुमान में अंतर्भूत है क्योंकि इस अर्थापत्ति के बिना अनुमान होता ही नहीं है।

पुन: मीमांसक ने अभाव को एक स्वतंत्र प्रमाण मानना चाहा तब आचार्य ने कहा कि यदि भाव के विपक्षी अभाव का ग्राहक एक अभाव प्रमाण है तो नित्य के विपक्षी अनित्य आदि को ग्राहक प्रमाण भी मानना पड़ेगा। किन्तु ऐसा तो है नहीं अत: प्रत्यक्ष आदि प्रमाण ही भाव और अभावरूप सभी वस्तुओें को ग्रहण करने वाले हैं इसलिए जितने भी अस्पष्ट ज्ञान हैं वे सभी परोक्ष प्रमाण में शामिल हैं।

श्लोकार्थ-श्री भट्टाकलंकदेवरूपी चंद्रमा से प्रगट हुई किरणों के द्वारा विशदेतर-परोक्ष प्रमाण का स्पर्श किया गया है-स्पष्ट हुआ है। इस प्रमाण के भेद में श्री अभयचंद्रसूरि की वाणी प्रतिभासित करने वाली क्यों नहीं होगी ? अर्थात् श्री अकलंकदेव ने परोक्ष प्रमाण का स्पष्टरूप से वर्णन किया है, मेरे द्वारा बनाई गई तात्पर्यवृत्ति से आप सभी लोगों को उस प्रमाण का प्रतिभास-ज्ञान हो जावेगा।।१।।

इस प्रकार श्री अभयचंद्रसूरि कृत लघीयध्Eाय की स्याद्वादभूषण नामक तात्पर्यवृत्ति में परोक्ष प्रमाण का वर्णन करने वाला तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।