अभयचन्द्रसूरि :
(संशय आदि कथंचित् प्रमाण हैं) तात्पर्यवृत्ति-अक्ष-इंद्रिय और अनिंद्रिय के प्रति जो नियत है वह प्रत्यक्ष ज्ञानमात्र है उसके समान जो आभासित होता है वह प्रत्यक्षाभ-प्रत्यक्षाभास कहलाता है। वह कैसा है ? तिमिर से उत्पन्न हुआ ज्ञान तैमिरिक है, ऐसे ही और भी शीघ्र भ्रमण आदि ज्ञान होते हैं, वे प्रमाण हैं। वे कैसे प्रमाण हैं ? कथंचित् भाव प्रमेय की अपेक्षा से अथवा द्रव्य की अपेक्षा से वे सर्वथा प्रमाणाभास ही नहीं हैं किन्तु प्रमाण भी हैं। बाह्य पदार्थ के आकार को विषय करने में ही ज्ञान में विसंवाद आता है किन्तु स्वरूप की अपेक्षा उन ज्ञानों में विसंवाद नहीं है। इस विषय में अविनाभाव दिखलाते हैं - जो ज्ञान जिस प्रकार ही-जितने विषय को जानने प्रकार से अविसंवादी है अर्थात् गृहीत अर्थ के विषय में व्यभिचार होना विसंवाद है उससे रहित अविसंवादी वह ज्ञान उसी प्रकार-उतने विषय को जानने के प्रकार से परीक्षकों ने प्रमाण इष्ट किया है-माना है। उसी को कहते हैं - ‘सभी प्रमाणाभास संशय आदि ज्ञान स्वरूप की अपेक्षा से अथवा द्रव्य की अपेक्षा से प्रमाण होते हैं क्योंकि उस विषय में अविसंवादी हैं। जो जिस विषय में अविसंवादी है वह उस विषय में प्रमाण है जैसे रस में रसज्ञान और संशय आदिक ज्ञान स्वरूप के विषय में अथवा द्रव्य रूपादि को विषय करने में अविसंवादी हैं इसलिए उन विषयों में वे कथंचित् प्रमाण हैं। विसंवाद ही निश्चित रूप से अप्रमाणता का कारण है और अविसंवाद ही प्रमाणता का कारण है। इस प्रकार न्याय सभी वादीजनों सम्मत है। सर्वथा प्रमाणाभासता न्याय से शून्य है। ‘‘बहि:१ प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते’’ बाह्य प्रमेय की अपेक्षा में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों होते हैं, ऐसा वचन है। ज्ञान अपने स्वरूप से विसंवादी नहीं है। क्योंकि वे ‘अहं प्रत्ययं’ से (मैं इस ज्ञान से) सिद्ध हैं और प्रसिद्ध विषय में प्रवर्तमान होते हुए अप्रमाण कैसे हो ? भावार्थ-आचार्यश्री का ऐसा कहना है कि यदि संशय ज्ञान अपने स्वरूप में भी अप्रमाण हो जावे तब तो संशय न रहकर असंशय-सच्चा हो जावेगा अत: सभी ज्ञान अपने-अपने स्वरूप को बताने में सच्चे ही हैं आरै द्रव्यदृष्टि से ज्ञान सामान्य की अपेक्षा भी सच्चे ही हैं। हाँ, बाह्य पदार्थों को जानने के विषय में जहाँ पर विसंवादी होता है वहीं पर झूठा कहलाता है और जहाँ पर विसंवाद रहित होता है वहीं पर सच्चा कहा जाता है ऐसा समझना। |