अभयचन्द्रसूरि :
तात्पर्यवृत्ति-स्व-तत्त्वज्ञानरूप से संवेद्य-ग्राह्य अर्थात् ज्ञान का स्वरूप स्वसंवेद्य कहलाता है क्योंकि इसमें वेद्य और वेदक इन दोनों आकार का विरोध नहीं है अन्यथा ज्ञान अवस्तु हो जावेगा। वह ज्ञान कैसा है ? विशद अर्थ का अवभासी है विशद-स्पष्ट और परमार्थ सत्-वास्तविक पदार्थ का अवभासित करने वाला ज्ञान विशद अर्थावभासी है। किनमें विशद अर्थ प्रतिभासन होता है ? यह घट है, यह गौ है, यह शुक्ल है, यह गायक है इत्यादि विकल्पों का-निश्चय ज्ञानों में विशद अर्थ प्रतिभासन होता है। कैसे प्रतिभासित होता है ? विकल्प-जाति आदि आकार वाले ज्ञान सहित जो सविकल्पक ज्ञान है, उसके प्रतिभासन-अनुभव से प्रतिभासित होता है। कब प्रतिभासित होता है ? अशेष स्मृति आदि चिंताविकल्पों के नष्ट हो जाने पर होता है अर्थात् चक्षु आदि के ज्ञान में जाति आदि आकार विशेष का जानना अप्रतिहत-निर्विघ्न रूप से होता है इसलिए विकल्प ज्ञान को प्रत्यक्षाभास कहना गलत है, यह अर्थ हुआ। भावार्थ-‘यह गौ है, यह घट है’ इत्यादि विषयों में जो स्पष्ट रूप से पदार्थों का प्रतिभासन होता है वह स्वसंवेद्य है अर्थात् ज्ञानस्वरूप है। वह ज्ञान संपूर्ण स्मृति आदि विकल्पों की समाप्त दशा में जाति आदि आकार के विकल्प सहित होने वाले अनुभव से होता है इसलिए यह विकल्पों से अर्थ को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान सविकल्पक है वह सच्चा है, प्रमाणाभास-असत्य नहीं है। |