+ स्वसंवेदन आदि प्रत्यक्ष ज्ञान में विकल्प नहीं हैं क्योंकि वे दिखते नहीं हैं, इस पक्ष का निराकरण करते हुए कहते हैं -
प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्यया: सत्योऽपि कल्पना:॥
प्रत्यक्षेषु न लक्षेरंस्तत्स्वलक्षणभेदवत्॥3॥
अन्वयार्थ : [ प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्यया:] प्रत्येक में अनुभव में आते हुए उत्पत्ति और व्ययरूप [कल्पना:] विकल्प [सत्य: अपि] विद्यमान होते हुए भी [प्रत्यक्षेषु] प्रत्यक्ष ज्ञानों में [तत् न लक्षेरन्] वे लक्षित नहीं होते हैं [स्वलक्षण भेदवत्] जैसे स्वलक्षण में भेद नहीं जाना जाता है॥३॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-स्वसंवेदन आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों में विद्यमान रहते हुए भी वे विकल्प लक्षितविवेचित नहीं किये जाते हैं अर्थात् उन्हें कह नहीं सकते हैं। वे कैसे हैं ? उत्पत्ति-आत्मलाभ और व्यय-अभाव प्रतिसंविदित-प्रत्येक प्राणियों में उपलब्ध होने वाले ऐसे ये उत्पत्ति और व्ययरूप विकल्प हैं।

क्योंकि सत्त्व के बिना उत्पादव्ययवत्त्व अनुभव में नहीं आता है अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा और विकल्पों में उत्पाद, व्ययपना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि वह कार्य कारण के संबंध में प्रवर्तमान है। निर्विकल्प से विकल्प का होना भी शक्य नहीं है। वह निर्विकल्प अकिन्चित्कर है, विकल्प को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित है।

शंका-विकल्पों के मौजूद होने पर भी प्रत्यक्षज्ञान में नहीं दिखते हैं। इसका क्या कारण है ?

समाधान-जानने वाले का शक्ति का अप्रणिधान-उधर न लगना ही है ऐसा हम कहते हैं। इस विषय में दृष्टांत-उन विकल्पों के स्वलक्षण-स्वरूप का सजातीय विजातीय से व्यावृत्त होना भेद कहलाता है उसके स्वलक्षण के भेद के समान। यहाँ यह अर्थ हुआ कि जिस प्रकार प्रतीति के विषयभूत उत्पाद, व्यय विद्यमान होते हुए भी स्वलक्षण से व्यावृत्तिरूप कल्पनाओं में लक्षित नहीं होते हैं, वे अनुमान से ही सिद्ध हैं उसी प्रकार से निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञानों में कल्पना में भी लक्षित नहीं होती हैं।

शंका-तब तो नहीं दिखती हुई उन कल्पनाओं का उस ज्ञान में वैâसे अस्तित्व सिद्ध होगा ?

समाधान-ऐसा नहीं कहना, पुन: उस विषय के स्मरण की अन्यथानुपपत्ति से वे कल्पनाएं सिद्ध हैं अर्थात् ज्ञान में यदि कल्पनाएं न हों तब तो पुन: उनके विषय का स्मरण कैसे हो सकेगा ? इसलिए उनका अस्तित्व सिद्ध है।

संहृतसकल विकल्पावस्था अर्थात् अश्व का विकल्प करते हुए गौ को देखने की अवस्था है, उसमें भी गोदर्शन निश्चयात्मक ही है क्योंकि पुन: उसके विषय के स्मरण की अन्यथानुपपत्ति है। जहाँ निश्चय का अभाव है वहाँ स्मरण नहीं उत्पन्न होता है, जैसे-चलते हुए तृण का स्पर्श हो जाने पर स्मरण नहीं उत्पन्न होता है और पुन: उनका स्मरण होता है, इसलिए अनुमान में विकल्पों का अस्तित्व सिद्ध है। जैसे-उस विकल्प के स्वरूप की व्यावृत्ति सिद्ध है। उसकी व्यावृत्ति भी प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है क्योंकि वैसा अनुभव नहीं आता है। इसलिए यह बात सिद्ध हो गई कि निश्चय-विकल्पज्ञान प्रमाण है क्योंकि वह अविसंवादी है।