+ इसी का समर्थन करते हुए कहते हैं - -
अक्षधीस्मृतिसंज्ञाभिश्चिंतयाऽऽभिनिबोधिकै:॥
व्यवहाराविसंवादस्तदाभासस्ततोऽन्यथा॥4॥
अन्वयार्थ : [अक्षधी:] इंद्रियज्ञान-मतिज्ञान [स्मृतिसंज्ञाभि:] स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, [चिंतया] तर्क और [आभिनिबोधकै:] अनुमान ज्ञानों के द्वारा [व्यवहाराविसंवाद:] व्यवहार में अविसंवादी है (अत: प्रमाण हैं) [तत:] इनसे [अन्यथा] अन्य प्रकार से-व्यवहार में विसंवादी होने से [तदाभास:] प्रमाणाभास हैं॥४॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(प्रमाण और प्रमाणाभास)

तात्पर्यवृत्ति-‘प्रमाण’ यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। उससे अभिसंबंध करने से अक्षधी आदि में प्रथमान्त विभक्ति करके अर्थ करना चाहिए। यहाँ ‘अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणाम:’ इस न्याय से अर्थ के निमित्त से विभक्ति में परिवर्तन हो गया है। इससे इस प्रकार व्याख्यान किया जाता है-अक्षधी, स्मृति, संज्ञा से, चिंता से और आभिनिबोधिक से हानोपादान रूप व्यवहार में अविसंवाद-अव्यभिचार सकल व्यवहारीजनों में प्रतीति से सिद्ध है इसलिए वे ज्ञान प्रमाण होते हैं, यह अर्थ हुआ।

अक्ष-इंद्रियों से उत्पन्न हुआ धी-ज्ञान अक्षधी है अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को अक्षज्ञान कहते हैं। अतीत अर्थ का अवमर्श करने वाला ज्ञान स्मृति है। संज्ञा-प्रत्यभिज्ञान, चिंता-तर्वâ और आभिनिबोधिक- अनुमान। आभिनिबोध अर्थात् हेतु के अन्यथानुपपत्ति नियम का निश्चय, उसमें होने वाला आभिनिबोधिक है ऐसा व्याख्यान किया गया है। इन ज्ञानों के द्वारा प्रमेय-जानने योग्य विषय प्रवर्तन करता हुआ छोड़ने- ग्रहण करने आदि फल में विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है इसलिए उन ज्ञानों को प्रमाणता क्यों नहीं होगी ?

शंका-इस प्रकार से उन ज्ञानों में प्रमाणता कैसे होगी ?

समाधान-ऐसे आशंका को हम दूर करते हैं उसी व्यव्हार में विसंवाद नहीं होने से वे प्रमाण हैं अन्यथा उस व्यवहार मिएँ विसंवाद होने से वे अक्षधी - साम्व्यव्हारिक प्रत्यक्ष, स्मृति आदि ज्ञान तदाभास-प्रमाणाभास हो जाते हैं। निश्चित ही अर्थक्रिया से व्यभिचरित होने वाले को प्रमाणता नहीं है अन्यथा अति प्रसंग आ जावेगा।

(प्रमाणाभास के लक्षण)

संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अदर्शन आदि प्रत्यक्षाभास कहलाते हैं। जो वह नहीं है उसमें ‘वह’ इस प्रकार का परामर्शी ज्ञान स्मृत्याभास है। जो उस सदृश नहीं है उसमें ‘यह उसके सदृश हैं’ और जो वह नहीं है उसमें ‘यह वहीं है’ इत्यादि ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास हैं। जिसका आपस में संबंध नहीं है ऐसे असंबद्ध में व्याप्ति को ग्रहण करना तर्काभास है। असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक और अकिन्चित्कर ये हेत्वाभास हैं। प्रत्यक्ष आदि से बाधित साध्याभास है। साध्य विकल, साधन विकल और उभयविकल ये दृष्टांताभास हैं। विस्तार से इनका लक्षण परीक्षामुखालंकार आदि ग्रन्थों में देखना चाहिए।