+ अब इस समय श्रुतज्ञान में प्रमाण आरै प्रमाणाभास की व्यवस्था को प्रतिपादित करते हैं - -
प्रमाणं श्रुतमर्थेषु सिद्धं द्वीपांतरादिषु॥
अनाश्वासं न कुर्वीरन् क्कचित्तद्व्यभिचारत:॥5॥
अन्वयार्थ : [द्वीपांतरादिषु] द्वीपान्तर आदि [अर्थेषु] पदार्थों में [श्रुतं] श्रुतज्ञान [प्रमाणं सिद्धं] प्रमाण सिद्ध है [क्वचित् तद् व्यभिचारत:] कहीं पर उसमें व्यभिचार होने से [अनाश्वासं] अविश्वास [न कुर्वीरन्] नहीं करना चाहिए॥५॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(श्रुत की प्रमाणता-अप्रमाणता)

तात्पर्यवृत्ति-व्यवहार में अविसंवाद यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। आप्त के वचन आदि के निमित्त से होने वाला मतिपूर्वक अर्थज्ञान श्रुत कहलाता है और वह प्रमाण सिद्ध ही है।

प्रश्न-किस प्रकार से सिद्ध है ?

उत्तर-व्यवहार-त्याग-ग्रहण आदि में अविसंवादी होने से प्रत्यक्षादि ज्ञानों के समान प्रमेय अर्थों को जानने में वह प्रमाण सिद्ध है।

प्रश्न-वे प्रमेय क्या हैं ?

उत्तर-द्वीपान्तर आदि प्रमेय हैं। उन्हीं का स्पष्टीकरण करते हैं। प्रकृत जंबूद्वीप है, उससे अन्य धातकीखंड आदि द्वीपांतर कहलाते हैं। आदि शब्द से काल से और स्वभाव से व्यवहित-अत्यंत परोक्ष पदार्थों को ग्रहण करना अर्थात् देशकाल और आकार से विप्रकृष्ट-अत्यंत दूरवर्ती-पदार्थों में श्रुतज्ञान प्रमाण है।

श्रुत से अर्थ को जानकर प्रवृत्ति करता हुआ कोई भी पुरुष रसायन आदि क्रिया में अथवा ग्रहण आदि करने में या मलय-चंदन आदि की प्राप्ति में विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है इसलिए परीक्षकजनों को अनाश्वास-अविश्वास नहीं करना चाहिए।

प्रश्न-कहीं-कहीं व्यभिचार देखा जाता है। जैसे-किसी नदी के किनारे लड्डू रखे हुए हैं इत्यादि रूप से प्रतिपादन करने पर उस श्रुत में व्यभिचार-विसंवाद देखा जाता है ?

उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि कहीं पर विसंवाद होने से ज्ञान को अप्रमाण मानने पर सभी जगह अप्रमाण की आशंका नहीं करना चाहिए अन्यथा प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों में भी वैसे ही अप्रमाणता का प्रसंग हो जाने से सकल व्यवहार का ही लोप हो जावेगा।

प्रश्न-श्रुत के विषय में वादियों को विसंवाद देखा जाता है, इसलिए वह अप्रमाण है ?

उत्तर-प्रत्यक्षादि ज्ञानों में भी उसी हेतु से अप्रमाणता आ जावे, कोई अंतर नहीं है। जिस प्रकार से पर लोक, पुण्य, पाप, सर्वज्ञादि जो श्रुतज्ञान के विषय हैं इनमें वादियों को विसंवाद है उसी प्रकार से प्रत्यक्ष आदि ज्ञान के विषयभूत जीवादि पदार्थों में भी सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि रूप से विसंवाद होते हैं। इसलिए अविसंवाद (और विसंवाद) से की गई प्रमाणता और अप्रमाणता की व्यवस्था श्रुतज्ञान में अथवा अन्य ज्ञान में स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि यही न्याय रूप है।

भावार्थ-कुछ लोग आगम को प्रमाण नहीं मानते हैं इसलिए यहाँ आचार्य ने स्पष्ट किया है कि जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान आदि ज्ञान जहाँ-जहाँ जिस-जिस विषय में अव्यभिचारी हैं वहाँ-वहाँ उस-उस विषय में प्रमाण हैं अन्यत्र व्यभिचारित होने से अप्रमाण हैं। वैसे ही श्रुतज्ञान भी सूक्ष्म-परमाणु आदि अंतरित राम, रावणादि और दूरवर्ती-हिमवान्, सुमेरु आदि विषयों में अविसंवादी होने से प्रमाण है और जहाँ व्यभिचारी हो जाता है वहाँ अप्रमाण है।




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