+ सर्वत्र श्रुत में अविश्वास होने पर और भी अनिष्ट को बताते हैं -
आप्त्तोक्तेर्हेतुवादाच्च बहिरर्थाविनिश्चये॥
सत्येतरव्यवस्था का साधनेतरता कुत:॥7॥
अन्वयार्थ : [ आप्त्तोक्ते:] आप्त के वचन से [हेतुवादात् च] और हेतुवाद से [बहि: अर्थाविनिश्चये] बाह्य अर्थ का निश्चय न मानने पर तो [सत्येतर व्यवस्था का] सत्य-असत्य की व्यवस्था क्या होगी ? और [साधनेतरता कुत:] साधन-असाधन की व्यवस्था कैसे होगी ?॥७॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-सत्य-सुगत के वचन और इतर-असत्य कपिल आदि के वचन इन दोनों की व्यवस्था-विभाग क्या होगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं होगा। उसी प्रकार साधन-अपने इष्ट की सिद्धि निमित्तक सत्त्वादि हेतु और इतर-हेत्वाभास इन दोनों का भाव साधनेतरता भी कैसे व्यवस्थित होगी ?

प्रश्न-कब ये दोष आएंगे ?

उत्तर-जो जहाँ पर अवंचक है वह वहाँ पर आप्त है, उसके वचन से, केवल आप्त के वचन से ही नहीं किन्तु हेतुवाद-साधन के प्रयोग से इन दोनों से बाह्य अर्थ विप्रकृष्ट-अत्यंत परोक्ष प्रमेय का निश्चय नहीं होने पर उपर्युक्त सत्य-असत्य व्यवस्था और साधन-साधनाभास की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थ यह हुआ कि आप्त के कथन से यदि अर्थ की प्रतीति नहीं मानोगे तब तो आपके सुगत के वचन सत्य हैं और कपिलादि के वचन असत्य हैं यह व्यवस्था वैâसे बनेगी ? क्योंकि अर्थ को विषय नहीं करना दोनों जगह समान है और हेतुवाद से भी बाह्य अर्थ का निश्चय नहीं मानने पर साधन-साधनाभास की व्यवस्था भी कैसे बनेगी, क्योंकि बाह्य अर्थ की शून्यता दोनों जगह समान है।

भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने सौगत को लक्ष्य करके ही श्रुत को प्रमाण मानने की पुष्टि की है कि यदि आप बुद्ध के वचन को प्रमाण नहीं मानोगे तो आपके बुद्ध सत्य हैं और उनके वचन सत्य हैं। अन्य संप्रदाय वालों के ईश्वर और उनके वचन असत्य हैं यह विभाग भी कैसे बनेगा ? अत: श्रुत को प्रमाण मान लेना उचित है।