+ देश, काल और आकार के भेद से अत्यंत भिन्न ही भाव परमार्थसत् हैं किन्तु सत् सामान्य नहीं हैं। इस प्रकार की बौद्ध की मान्यता का निराकरण करते हुए कहते हैं- -
जीवाजीवप्रभेदा यदंतर्लीनास्तदस्ति सत्।
एकं यथा स्वनिर्भासि ज्ञानं जीव: स्वपर्ययैः॥2॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[जीवाजीवप्रभेदा:] जीव और अजीव के प्रभेद [यत् अंतर्लीना:] जिसके अंतर्लीन हैं [तत् सत् अस्ति] वह सत् है। [यथा] जैसे [स्वनिर्भासि] स्वनिर्भासी [एकं ज्ञानं] एक ज्ञान और [स्वपर्ययै:] अपनी पर्यायों से [जीव:] जीव एक है॥२॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

(सत् का लक्षण)

तात्पर्यवृत्ति-जीव का लक्षण चेतना है। अजीव पुन: उससे विपरीत पुद्गल आदि हैं। त्रस-स्थावर आदि अवांतर विशेष जीव के प्रभेद हैं। ये भेद-प्रभेद सहित सभी जीव-अजीव जिसमें अंतर्गर्भित हैं वह सत्-सत्तासामान्य है-मौजूद है-प्रतीति में आ रहा है।

निश्चित ही सत्त्व-अस्तित्व से व्यतिरिक्त द्रव्य अथवा पर्याय ‘अस्ति-है’ इस प्रकार कुछ भी व्यवहार करना शक्य नहीं है क्योंकि स्ववचन में विरोध आता है और अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् ‘अस्ति’ को ही ‘है’ इस शब्द से कहते हैं। जब द्रव्य या पर्याय का अस्तित्व ही नहीं है तब यह द्रव्य है या पर्याय है ऐसा कहना तो ‘मैं मौनव्रती हूँ’ ऐसा बोलने वाले के समान स्ववचन बाधित ही है और अतिप्रसंग से आकाश के फूल, बंध्या के पुत्र आदि भी दिखने लगेंगे।

प्रश्न-एक ही अनेक जीवादि भेदों में व्यापक कैसे हो सकता है ?

उत्तर-जैसे आपके द्वारा मान्य एक ही ज्ञान चित्रपटाति को विषय करने वाला है स्वनिर्भासी है। स्व-अपने ज्ञानस्वरूप निर्भास-नीलादि आकार जिसमें हैं, वह स्वनिर्भासी कहलाता है और जिस प्रकार से एक जीव-आत्मा अपनी पर्यायों से सहित है। स्व-चिद्रूप पर्याय-रागादि परिणामों से आक्रांत-व्याप्त प्रतीति के पद पर आरूढ़ हुआ विरुद्ध नहीं है अर्थात् चैतन्य स्वरूप राग, द्वेषादि भावों से व्याप्त और प्रतीति में आता हुआ एक जीव द्रव्य सिद्ध है। उसी प्रकार से जीवादि अनेक भेदों से आक्रांत सत्त्व भी विरुद्ध नहीं है।