+ गुण-गुणी आदि में समवाय संबंध है ही है इस प्रकार के यौगमत का निराकरण करते हुए कहते हैं -
स्वतोऽर्था: संतु सत्तावत्सत्तया किं सदात्मनां॥
असदात्मसु नैषा स्यात्सर्वथाऽतिप्रसंगत:॥10॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[ सत्तावत् अर्था: स्वत: संतु] सत्ता के समान पदार्थ स्वत: विद्यमान होवें, पुन: [सदात्मनां सत्तया किं] सत्रूप पदार्थों में सत्ता से क्या प्रयोजन है ? [असदात्मसु एषा न स्यात्] असत् रूप पदार्थों में भी वह सत्ता नहीं हो सकती है [सर्वथा अतिप्रसंगत:] सब प्रकार से अतिप्रसंग दोष आता है॥१०॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-यौगमत में स्वत: सत् स्वरूप पदार्थों में सत्ता समवाय होता है या असत् स्वरूप पदार्थों में सत्ता समवाय है ? इस प्रकार के दो विकल्प को मन में रखकर प्रथम पक्ष में दूषण देते हैं-

स्वत: स्वरूप से सत्तावत् पदार्थ होवें अर्थात् जैसे सत्तांतर के बिना भी सत्ता-परसामान्य स्वत: ही है, उसी प्रकार द्रव्यादि भी स्वत: ही होवें और उस प्रकार से स्वत: सत् स्वरूप के सत्ता से क्या प्रयोजन है? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है यह अर्थ हुआ क्योंकि उस सत्ता के बिना भी उन पदार्थों का सत्त्व है।

अब द्वितीय विकल्प को दूषित करते हुए कहते हैं -

सर्व था असत् स्वरूप द्रव्यादिकों में अन्य कोई सत्ता है नहीं अन्यथा अतिप्रसंग आ जावेगा। सर्वथा असत् रूप खर, विषाण आदि में भी सत्ता समवाय हो जाना चाहिए।

एवं द्रव्यत्वादि समवाय का भी इसी प्रक्रिया से विचार करना चाहिए अर्थात् प्रश्न यह उठता है कि द्रव्य में स्वत: द्रव्यत्व है या नहीं ? यदि द्रव्य में स्वत: द्रव्यत्व है तो द्रव्यत्व का समवाय अनर्थक है और यदि नहीं है अर्थात् वह द्रव्य अद्रव्य है तब तो उसमें अद्रव्य में द्रव्यत्व का समवाय मानने पर अतिप्रसंग दोष आ जाता है।

दूसरी बात यह है कि अवयवी अवयवों में एकदेश से रहता है या सर्वात्मदेश से रहता है ? यदि प्रथम पक्ष लो कि वह अवयवी अवयवों में एकदेश से रहता है तब तो उस अवयवी को जितने कि अवयव हैं उतने ही अंशों से होना चाहिए अन्यथा सभी अवयवों को एकत्व का प्रसंग आ जावेगा। यहाँ पर भी रहना मानने पर तो फिर उस अवयवी के उतने ही अंश कल्पित करने पर अनवस्था हो जावेगी।

यदि आप कहें कि अवयवी अवयवों में संपूर्ण रूप से रहता है तब तो अवयवी को बहुत मानना पड़ेगा अन्यथा रहने का विरोध हो जावेगा इसलिए उन गुण-गुणी आदि में कथंचित् तादात्म्य लक्षण समवाय स्वीकार करना चाहिए अन्य प्रकार से नहीं, यह बात व्यवस्थित हो गई।

विशेषार्थ-प्रत्येक वस्तु में कथंचित् तद्भाव लक्षण अभिन्न रूप एक संबंध दिख रहा है जैसे कि जीव का ज्ञान गुण जीव से अभिन्न है, तद्भावरूप है और अग्नि का उष्ण गुण भी अभिन्न है। इसे ही जैनों ने तादात्म्य लक्षण संबंध कहा है कि जिसको कभी भी वस्तु से अलग नहीं कर सकते हैं। यौग ने अकारण ही इस अभिन्न रूप अयुत लक्षण संबंध को समवाय नाम देकर पृथक् से सिद्ध करना चाहा था किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि कथंचित् तादात्म्य लक्षण संबंध को ही आप समवाय नाम दे दीजिए, कोई बाधा नहीं है।