+ अब उनके सुनयत्व को प्रतिपादित करते हैं -
व्यवहारोऽविसंवादी नय: स्याद्दुर्नयोऽन्यथा।
बहिरर्थोऽस्ति विज्ञप्तिमात्रशून्यमितीदृश:॥12॥

अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[बहि: अर्थ: अस्ति] ‘बाह्य पदार्थ है’ ऐसा [अविसंवादी व्यवहार:] अविसंवादी व्यवहार [नय:] स्यात् नय है। [अन्यथा] अन्य प्रकार से [विज्ञप्तिमात्र शून्यं] तत्त्व विज्ञानमात्र या शून्यमात्र है [इति ईदृश:] इस प्रकार ऐसा व्यवहार [दुर्नय:] दुर्नय है॥१२॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-‘बाह्य अर्थ है’ इस प्रकार ग्रहण करने वाले होने से संग्रह आदि नय साध्य-साधन भावस्वरूप प्रमाणीक हैं क्योंकि ये व्यवहार में अविसंवादी हैं। कारण-कार्यभाव आदि व्यवस्था को व्यवहार कहते हैं, इस व्यवहार में ये विसंवादरहित, अव्यभिचारी हैं। व्यवहार के सुनयरूप होने पर उस व्यवहार के आधीन कारण-कार्यभाव आदि की सिद्धि होती है, अन्यथा-व्यवहार में विसंवादी होने से वे दुर्नय हो जाते हैं।

प्रश्न-कैसे दुर्नय होते हैं ?

उत्तर-विज्ञानमात्र ही तत्त्व है, अन्य कुछ नहीं है। सब कुछ शून्य ही है-समस्त ज्ञान और ज्ञेय का अभाव ही शून्य तत्त्व है। इस प्रकार कहने वाले नय दुर्नय हैं। यहाँ कारिका में ‘इति’ शब्द प्रकारवाची है, ‘सन्मात्र-परमब्रह्म ही तत्त्व है’। ‘विभ्रम ही तत्त्व है’ इत्यादि प्रकारों को सूचित करता है।

प्रश्न-सुनय कैसे है ?

उत्तर-संग्रहनय संग्रह रूप से ‘सब कुछ सत्रूप है क्योंकि सभी वस्तु में सत् से अभेद है’ इस प्रकार सभी में एकत्व स्वीकार करता है किन्तु व्यवहारनय उन्हीं में विधिपूर्वक भेद करता है, जैसे जो सत् है वह द्रव्य है अथवा पर्याय है। पुन: अपरसंग्रह ‘जीवादि द्रव्य हैं’ इस प्रकार संग्रह करता है तथा ‘ज्ञान और रागादिभाव पर्याये हैं’ इस प्रकार संग्रह करता है। पुन: अपर व्यवहारनय जो द्रव्य है वह जीव अथवा अजीव है और जो पर्याय हैं वे सहभावी तथा क्रमभावी होती हैं। इस प्रकार परसंग्रह-अपर संग्रह, पर व्यवहार-अपर व्यवहार की परम्परा चलती रहती है, जब तक कि ऋजुसूत्र का विषय नहीं आ जाता है।

विशेषार्थ-संग्रहनय वस्तु को संग्रहरूप से विषय करता है और व्यवहारनय उसमें भेद करता है। संग्रहनय के दो भेद हैं-परसंग्रह और अपरसंग्रह। इन्हीं को सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह भी कहते हैं। सामान्य संग्रह सामान्य से चेतन-अचेतन सभी वस्तु को सत् रूप से एकरूप ग्रहण करता है और विशेष संग्रह जीव को द्रव्यरूप से कहता है अथवा अजीव को द्रव्यरूप से कहता है। व्यवहार नय के भी मुख्य दो भेद हैं-पर व्यवहार, अपर व्यवहार। पर संग्रह से ग्रहण किये गये में भेद करने वाला पर व्यवहार है और अपर संग्रह से ग्रहण किये गये में भेद करने वाला अपर व्यवहार है। इन दोनों नयों की परम्परा तब तक चलती रहती है कि जब तक वर्तमान एक समय मात्र की एक पर्याय को विषय करने वाला ऋजुसूत्र नहीं आ जाता है।

इस प्रकार से एक ब्रह्ममात्र अथवा ज्ञानमात्र तत्त्व आदि को ग्रहण करने वाले दुर्नय कहलाते हैं और वस्तु के एक अंश-धर्म को ग्रहण कर अन्य धर्म का विरोध नहीं करने वाले सुनय कहे जाते हैं।

यहाँ पर वृत्तिकार ने द्रव्य और पर्यायों को ही ग्रहण करके पर्यायों में सहभावी-क्रमभावी ऐसे दो भेद दिखलाये हैं। उनमें सहभावी पर्यायें ही गुण कहलाती हैं और क्रमभावी पर्यायें पर्याय शब्द से जानी जाती हैं।