+ अर्थ से ज्ञान की उत्पत्ति न मानने पर संपूर्ण अर्थ को प्रकाशित करने का प्रसंग हो जावेगा क्योंकि इनमें कोई अंतर नहीं है, ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं -
मलविद्धमणिव्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारत:॥
कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारत:॥7॥
अन्वयार्थ : अन्वयार्थ-[यथा] जैसे [मलविद्धमणिव्यक्ति:] मल से आच्छादित मणि की व्यक्ति [अनेकप्रकारत:] अनेक प्रकार से होती है [तथा] वैसे ही [कर्मविद्धात्मविज्ञप्ति:] कर्म से आच्छादित आत्मा का ज्ञान भी [अनेकप्रकारत:] अनेक प्रकार से होता है॥७॥

  अभयचन्द्रसूरि 

अभयचन्द्रसूरि :

तात्पर्यवृत्ति-जिस प्रकार से कालिमा रेखा आदि से विद्ध हुए ऐसे जो पद्मराग आदि मणि विशेष हैं उनके तेज का प्रादुर्भाव अनेक प्रकार से होता है अर्थात् विशद्-अविशद्, दूर-निकट, प्रकाश्य-प्रकाशन आदि विशेष भेदों के आश्रित होता है उसी प्रकार से ज्ञानावरण आदि कर्मों से विद्ध-संबद्ध-संयुक्त जो आत्मा है उसकी विज्ञप्ति-आत्म पदार्थ की उपलब्धि अनेक प्रकार से होती है अर्थात् जो नाना रूप प्रत्यक्ष-परोक्ष, दूर-आसन्न पदार्थों के प्रतिभासन विशेष हैं, इंद्रिय, अनिंद्रिय और अतीन्द्रिय शक्ति विशेष रूप क्षयोपशम विशेष हैं उनके आश्रय से जीवों का अनेक प्रकार से अनुभव आ रहा है और ज्ञानावरण कर्म के संपूर्ण तथा निरस्त हो जाने पर तो संपूर्ण पदार्थों का ज्ञान आत्मा में उत्पन्न होता ही है क्योंकि वह आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला है।

भावार्थ-जैसे मल से आच्छादित मणि की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से देखी जाती है उसी प्रकार से कर्मों से आच्छादित आत्मा के ज्ञान का विकास भी हीनाधिकरूप से अनेक प्रकार का देखा जाता है।